________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
कहान जैन शास्त्रमाला]
कर्ता-कर्म-अधिकार
[शार्दूलविक्रीडित] कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः। ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिनेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम्।। ५३-९८ ।।
[हरिगीत] करम में कर्ता नहीं है अर कर्म कर्ता मैं नहीं । इसलिए कर्ताकर्म की थिति भी कभी बनती नहीं ।। कर्म में है कर्म ज्ञाता में रहा ज्ञाता सदा । यदि साफ है यह बात तो फिर मोह है क्यों नाचता ?।।९८।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "कर्ता कर्मणि नियतं नास्ति'' [कर्ता] मिथ्यात्व-रागादि अशुद्धपरिणामपरिणत जीव [ कर्मणि ] ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्डमें [ नियतं] निश्चयसे [ नास्ति] नहीं है अर्थात् इन दोनों में एकद्रव्यपना नहीं है। "तत् कर्म अपि कर्तरि नास्ति'' [ तत् कर्म अपि] वह भी ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्ड [ कर्तरि] अशुद्ध भावपरिणत मिथ्यादृष्टि जीवमें [नास्ति] नहीं है अर्थात् इन दोनों में एकद्रव्यपना नहीं है। "यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते तदा कर्तृकर्मस्थितिः का" [ यदि] जो [द्वन्द्वं ] जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यके एकत्वपनाका [ विप्रतिषिध्यते] निषेध किया [ तदा] तो [ कर्तृकर्मस्थितिः का] 'जीव कर्ता ज्ञानावरणादि कर्म' ऐसी व्यवस्था कैसे घटती है ? अपितु नहीं घटती है। "ज्ञाता ज्ञातरि'' जीवद्रव्य अपने द्रव्यत्वसे एकत्वको लिए हुए है "सदा'' सर्व ही काल ऐसा वस्तुका स्वरूप है। "कर्म कर्मणि'' ज्ञानावरणादि पुद्गलपिंड अपने पुद्गलपिंडरूप है। ''इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता'' [इति] इस रूप [वस्तुस्थितिः] द्रव्यका स्वरूप [व्यक्ता] अनादिनिधनपने प्रगट है। "तथापि एष: मोह: नेपथ्ये बत कथं रभसा नानटीति'' [तथापि] वस्तुका स्वरूप तो ऐसा है, जैसा कहा वैसा, फिर भी [ एष: मोह:] यह है जो जीवद्रव्यपुद्गलद्रव्यकी एकत्वरूप बुद्धि , वह [नेपथ्ये] मिथ्यामार्गमें, [बत] इस बातका अचंभा है कि [ रभसा] निरन्तर [ कथं नानटीति] क्यों प्रवर्तेती है ?- इस प्रकार बातका विचार क्यों है ? भावार्थ इस प्रकार है - जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य भिन्न भिन्न है, मिथ्यात्वरूप परिणमा हुआ जीव एकरूप जानता है इसका घना अचंभा है।। ५३–९८ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com