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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[शार्दूलविक्रीडित] मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन् मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः। विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च।। १२-१११।।
[हरिगीत] कर्मनय के पक्षपाती ज्ञान से अनभिज्ञ हों। ज्ञाननय के पक्षपाती आलसी स्वच्छन्द हों।। जो ज्ञानमय हो परिणमित परमाद के वश में न हों। कर्म विरहित जीव वे संसार-सागर पार हों ।।१११ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "कर्मनयावलम्बनपराः मग्नाः'' [ कर्म] अनेक प्रकार की क्रिया , ऐसा है [ नय] पक्षपात, उसका [अवलम्बन] क्रिया मोक्षमार्ग है ऐसा जानकर क्रियाका प्रतिपाल, उसमें [पराः] तत्पर है जो कोई अज्ञानी जीव वे भी [ मग्नाः] धारमें डूबे हैं। भावार्थ इस प्रकार है - संसारमें रुलेगा, मोक्षका अधिकारी नहीं है। किस कारणसे डूबे है ? " यत् ज्ञानं न जानन्ति'' [ यत् ] जिस कारण [ज्ञानं] शुद्ध चैतन्य वस्तुका [न जानन्ति] प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद करने को समर्थ नहीं है। क्रियामात्र मोक्षमार्ग ऐसा जानकर क्रिया करनेको तत्पर हैं। "ज्ञाननयैषिणः अपि मग्नाः'' [ ज्ञान] शुद्ध चैतन्यप्रकाश, उसका [नय] पक्षपात, उसके [ एषिण:] अभिलाषी हैं। भावार्थ इस प्रकार है – शुद्ध स्वरूपका अनुभव तो नहीं है, परंतु पक्षमात्र बोलते हैं। [अपि] ऐसे भी जीव [ मग्नाः] संसारमें डूबे ही हैं। कैसे होकर डूबे ही हैं ? " यत् अतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः'' [ यत्] जिस कारण [ अतिस्वच्छन्द ] अति ही स्वेच्छाचारपना, ऐसा है [ मन्दोद्यमाः] शुद्ध चैतन्यस्वरूपका विचारमात्र भी नहीं करते हैं। ऐसे जो कोई हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना। यहाँ कोई आशंका करता है कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव मोक्षमार्ग ऐसी प्रतीति करनेपर मिथ्यादृष्टिपना क्यों होता है ? समाधान इस प्रकार है - वस्तुका स्वरूप इस प्रकार है कि जिस काल शुद्ध स्वरूपका अनुभव है उस काल अशुद्धतारूप है जितनी भाव-द्रव्यरूप क्रिया उतनी सहज ही मिटती है। मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा मानता है कि जितनी क्रिया जैसी है वैसी ही रहती है, शुद्धस्वरूप अनुभव मोक्षमार्ग है। सो वस्तुका स्वरूप ऐसा तो नहीं है। इससे जो ऐसा मानता है वह जीव मिथ्यादृष्टि है, वचनमात्रसे कहता है कि शुद्धस्वरूप-अनुभव मोक्षमार्ग है। ऐसा कहनेसे कार्यसिद्धि तो कुछ नहीं है।"ते विश्वस्य उपरि तरन्ति'' [ते] ऐसे जीव सम्यग्दृष्टि हैं जो कोई,वे [विश्वस्य उपरि] कहे हैं जो दोनों जातिके जीव उन दोनोंके ऊपर होकर [ तरन्ति] सकल कर्मोका क्षय कर मोक्षपदको प्राप्त होते हैं। कैसे हैं वे ? ''ये सततं स्वयं ज्ञानं भवन्तः कर्म नकुर्वन्ति, प्रमादस्य वशं जातु न यान्ति'' [ये] जो कोई निकट संसारी सम्यग्दृष्टि जीव [ सततं] निरन्तर [ स्वयं ज्ञानं] शुद्ध ज्ञानस्वरूप [भवन्तः] परिणमते हैं, [ कर्म न कुर्वन्ति ] अनेक प्रकारकी क्रियाको मोक्षमार्ग जानकर नही करते हैं।
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