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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
ज्ञान, उसके [व्यक्तयः] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि अनेक पर्यायरूप अंशभेद [ स्वयं] द्रव्यका सहज ऐसा ही है उस कारण [उच्छलन्ति] अवश्य प्रगट होते है। भावार्थ इस प्रकार है – कोई आशंका करेगा कि ज्ञान तो ज्ञानमात्र है, ऐसे जो मतिज्ञान आदि पांच भेद वे क्यों है ? समाधान इस प्रकार है - जो ज्ञानकी पर्याय है, विरुद्ध तो कुछ नहीं। वस्तुका ऐसा ही सहज है। पर्यायमात्र विचारनेपर मति आदि पांच भेद विद्यमान है, वस्तुमात्र अनुभवनेपर ज्ञानमात्र है। विकल्प जितने हैं उतने समस्त झूठे हैं, क्योंकि विकल्प कोई वस्तु नहीं है, वस्तु तो ज्ञानमात्र है। कैसी है संवेदन व्यक्ति ? [अच्छाच्छाः ] निर्मलसे भी निर्मल है। भावार्थ इस प्रकार है - कोई ऐसा मानेगा कि जितनी ज्ञानकी पर्याय हैं वे समस्त अशुद्धरूप हैं सो ऐसा तो नहीं, कारण कि जिस प्रकार ज्ञान शुद्ध है उसी प्रकार ज्ञानकी पर्याय वस्तुका स्वरूप है, इसलिए शुद्धस्वरूप है। परंतु एक विशेष-पर्यायमात्रका अवधारण करनेपर विकल्प उत्पन्न होता है, अनुभव निर्विकल्प है, इसलिए वस्तुमात्र अनुभवनेपर समस्त पर्यायभी ज्ञानमात्र है, इसलिए ज्ञानमात्र अनुभवयोग्य है। और कैसी है संवेदनव्यक्ति ? “निःपीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ताः इव'' [निःपीत] निगला है [ अखिल] समस्त [भाव] जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश ऐसे समस्त द्रव्य उनका [ मण्डल] अतीत , अनागत, वर्तमान अनंत पर्याय ऐसा है [ रस] रसायनभूत दिव्य औषधि उसका [प्राग्भार] समूह उसके द्वारा [ मत्ताः इव] मग्न हुई है ऐसी है। भावार्थ इस प्रकार है – कोई परम रसायनभूत दिव्य औषधि पीता है तो सर्वांग तरंगावलिसी उपजती है उसी प्रकार समस्त द्रव्यों के जाननेमें समर्थ है ज्ञान, इसलिए सर्वांग आनंदतरंगावलिसे गर्भित है।। ९-१४१ ।।
[शार्दूलविक्रीडित] क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्। साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि।।१०-१४२।।
[हरिगीत] पंचाग्नि तप या महाव्रत कुछ भी करो सिद्धि नहीं । जाने बिना निज आतमा जिनवर कहे सब व्यर्थ है।। मोक्षमय जो ज्ञानपद वह ज्ञान से ही प्राप्त हो। निज ज्ञान गुण के बिना उसको कोई पा सकता नहीं।।१४२।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "परे इदं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना प्राप्तुं कथम् अपि न हि क्षमन्ते' [ परे] शुद्धस्वरूप अनुभवसे भ्रष्ट हैं जो जीव वे [इदं ज्ञानं ] पूर्व ही कहा है समस्त भेदविकल्पसे रहित ज्ञानमात्र वस्तु उसको [ ज्ञानगुणं विना] शुद्धस्वरूप अनुभवशक्तिके बिना [प्राप्तुं ] प्राप्त करनेको [कथम् अपि] हजार उपाय किये जाँय तो भी [न हि क्षमन्ते] निश्चयसे समर्थ नहीं होते हैं। कैसा है ज्ञानपद ? "साक्षात् मोक्षः''
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