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समयसार - कलश
और सम्यग्दृष्टि जीव जिस प्रकार निरास्रव है उस प्रकार कहते हैं
[ शार्दूलविक्रीडित]
सन्न्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्। उच्छिन्दन् परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भवन् आत्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।। ४-११६ ।।
[ कुण्डलिया ]
स्वयं सहज परिणाम से करदीना परित्याग । सम्यग्ज्ञानी जीव ने बुद्धिपूर्वक राग ।। बुद्धिपूर्वक राग त्याग दीना है जिसने । और अबुद्धिक राग त्याग करने को जिसने ।। निजशक्तिस्पर्श प्राप्त कर पूर्ण भाव को । रहे निरास्रव सदा उखाड़े परपरिणति को । । ११६ ।।
[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
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खंडान्वय सहित अर्थ:- आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा नित्यनिरास्रवः भवति [ आत्मा ] जीवद्रव्य [ यदा] जिसी काल, [ ज्ञानी स्यात् ] अनन्त कालसे विभाव मिथ्यात्वभावरूप परिणमा था सो निकट सामग्री पाकर सहज ही विभावपरिणाम छूट जाता है, स्वभाव सम्यक्त्वरूप परिणमता है। ऐसा कोई जीव होता है । [ तदा ] उस कालसे लेकर पूरे आगामी कालमें [ नित्यनिरास्रव: ] सर्वथा सर्व काल सम्यग्दृष्टि जीव निरास्रव [ भवति ] होता है । भावार्थ इस प्रकार है - कोई संदेह करेगा कि सम्यग्दृष्टि आस्रव सहित है कि आस्रव रहित है ? समाधान ऐसा है कि आस्रवसे रहित है। क्या करता हुआ निरास्रव है ? ' निजबुद्धिपूर्वं रागं समग्रं अनिशं स्वयं सन्न्यस्यन्'' [ निज ] अपने [ बुद्धि ] मनको [ पूर्वं ] आलंबन कर होता है जितना मोह राग द्वेषरूप अशुद्ध परिणाम ऐसा जो [ रागं] परद्रव्यके साथ रंजित परिणाम, जो [ समग्रं ] असंख्यात लोकमात्र भेदरूप है, उसे [अनिशं ] सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कालसे लेकर आगामी सर्व कालमें [ स्वयं ] सहज ही [सन्न्यस्यन्] छोड़ता हुआ । भावार्थ इस प्रकार है नानाप्रकारके कर्मके उदयमें नाना प्रकारकी संसार-शरीर-भोगसामग्री होती है। इस समस्त सामग्रीको भोगता हुआ मैं देव हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इत्यादि रूप रंजायमान नहीं होता। जानता है- मैं चेतनामात्र शुद्धस्वरूप हूँ, यह समस्त कर्मकी रचना है। ऐसा अनुभवते हुए मनका व्यापाररूप राग मिटता है । " अबुद्धिपूर्वम् अपि तं जेतुं वारंवारम् स्वशक्तिम् स्पृशन् '' [ अबुद्धिपूर्वम् ] मनके आलंबन बिना मोहकर्मके उदयरूप निमित्तकारणसे परिणमें हैं अशुद्धतारूप जीवके प्रदेश, [ तं अपि ] उसको भी [ जेतुं ] जीतने के लिए [ वारंवारम् ] अखण्डित धाराप्रवाहरूप [ स्वशक्तिं ] शुद्ध चैतन्य वस्तु, उसको [ स्पृशन् ] स्वानुभव प्रत्यक्षरूपसे आस्वादता हुआ । भावार्थ इस प्रकार है मिथ्यात्व राग द्वेषरूप हैं जो जीवके अशुद्ध चेतनारूप विभाव परिणाम वे दो प्रकारके हैं
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