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समयसार - कलश
[ भगवान्
आगे मिथ्यादृष्टि एकरूप जानो तथापि जीव- पुद्गल भिन्न भिन्न हैं ऐसा कहते हैं:
[मंदाक्रान्ता ] कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि । ज्ञानज्योतिर्ज्वलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथौचैश्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत् ।। ५४-९९।।
श्री
कुन्दकुन्द -
[ सवैया इकतीसा ]
जगमग जगमग जली ज्ञानज्योति जब, अति गम्भीर चित्शक्तियों के भार से। अद्भुत अनूपम अचल अभेद ज्योति, व्यक्त धीर वीर निर्मल आर-पार से ।। तब कर्म कर्म अर कर्ता कर्ता न रहा, ज्ञान ज्ञानरूप हुआ आनन्द अपार से । और पुद्गलमयी कर्म कर्मरूप हुआ, ज्ञानी पार हुए भवसागर अपार से।। ९९ ।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:-‘' एतत् ज्ञानज्योतिः तथा ज्वलितम् '' [ एतत् ज्ञानज्योतिः ] विद्यमान शुद्धचैतन्यप्रकाश [तथा ज्वलितम् ] जैसा था वैसा प्रगट हुआ। कैसा है ? " अचलं ' स्वरूपथी चलायमान नहीं होता। और कैसा है ? ' अन्तः व्यक्तम्'' असंख्यात प्रदेशोंमें प्रगट है । और कैसा है ? 'उच्चैः अत्यन्तगम्भीरम्'' अत्यन्त अत्यन्त गंभीर है अर्थात् अनन्तसे अनन्त शक्ति बिराजमान है। किस कारण गंभीर है ? ' ' चिच्छक्तीनां निकरभरत: '' [ चित्-शक्तीनां ] ज्ञानगुणके जितने निरंश भेद–भाग उनके [निकरभरतः ] अनन्तानन्त समूह होते हैं, उनसे अत्यन्त गंभीर है। आगे ज्ञानगुणका प्रकाश होनेपर कैसे फलसिद्धि है वही कहते है - " यथा कर्ता कर्ता न भवति' [ यथा ] ज्ञानगुण ऐसा प्रगट हुआ। जैसे [कर्ता] अज्ञानपनाको लिए हुए जीव मिथ्यात्व परिणामका कर्ता होता था सो तो [ कर्ता न भवति ] ज्ञानप्रकाश होनेपर अज्ञानभावका कर्ता नहीं होता, ''कर्म अपि कर्म एव न [ कर्म अपि ] मिथ्यात्व - रागादिविभाव कर्म भी [ कर्म एव न भवति ] रागादिरूप नहीं होता । यथा च '' जैसे कि ‘‘ज्ञानं ज्ञानं भवति " जो शक्ति विभाव परिणमनरूप परिणमी थी वही फिर अपने स्वभावरूप हुई। 'यथा " जिस प्रकार पुद्गलः अपि पुद्गलः [ पुद्गलः अपि ] ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमा था जो पुद्गल द्रव्य वही छोड़कर पुद्गल द्रव्य हुआ।। ५४–९९।।
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[पुद्गलः] कर्मपर्याय