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कहान जैन शास्त्रमाला]
जीव-अधिकार
भावार्थ इस प्रकार है – निरुपाधिरूपसे जीवद्रव्य जैसा है वैसा ही प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद आवे इसका नाम शुद्धात्मानुभव है। [ किल] निश्चयसे [इयम् एव ज्ञानानुभूतिः] यह जो आत्मानुभूति कही वही ज्ञानानुभूति है [इति बुद्धवा] इतनामात्र जानकर। भावार्थ इस प्रकार है कि जीववस्तुका जो प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद, उसको नामसे आत्मानुभव ऐसा कहा जाय अथवा ज्ञानानुभव ऐसा कहा जाय। नामभेद है, वस्तुभेद नहीं है। ऐसा जानना कि आत्मानुभव मोक्षमार्ग है। इस प्रसंगमें और भी संशय होता है कि, कोई जानेगा कि द्वादशाङ्गज्ञान कुछ अपूर्व लब्धि है। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि द्वादशाङ्गज्ञान भी विकल्प है। उसमें भी ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, इसलिए शुद्धात्मानुभूतिके होनेपर शास्त्र पढ़ने की कुछ अटक नहीं है।। १३।।
[पृथ्वी ] अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहिमह: परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्।।१४।।
[रोला खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है । ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है।। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल। जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो।।१४।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- “तत् महः नः अस्तु'' [ तत्] वही [ मह:] शुद्ध ज्ञानमात्र वस्तु [नः] हमारे [अस्तु] हो। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्धस्वरूपका अनुभव उपादेय है, अन्य समस्त हेय है। कैसा है वह 'महः' [ ज्ञानमात्र आत्मा ]'? 'परमम्' उत्कृष्ट है। और कैसा है महः' ? "अखण्डितम्' खंडित नहीं है- परिपूर्ण है। भावार्थ इस प्रकार है कि इन्द्रियज्ञान खंडित है सो यद्यपि वर्तमान कालमें उसरूप परिणत हुआ है तथापि स्वरूपसे ज्ञान अतीन्द्रिय है। और कैसा है ? 'अनाकुलं'' आकुलता से रहित है। भावार्थ इस प्रकार है कि यद्यपि संसार अवस्थामें कर्मजनित सुख-दुःखरूप परिणमता है तथापि स्वाभाविक सुखस्वरूप है। और कैसा है ? “अन्तर्बहिर्चलत्'' [अन्तः ] भीतर [बहिः ] बाहर [ ज्वलत् ] प्रकाशरूप परिणत हो रहा है।
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