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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[रोला] जैसे भी हो स्वतः अन्य के उपदेशों से। भेदज्ञान मूलक अविचल अनुभूति हुई हो।। ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी। अरे निरन्तर दर्पणवत्रहते अविकारी।।२१।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ये अनुभूतिं लभन्ते'' [ ये] जो कोई निकट संसारी जीव [अनुभूतिं] शुद्ध जीववस्तुके आस्वादको [ लभन्ते] प्राप्त करते हैं। कैसी है अनुभूति ?
“भेदविज्ञानमूलाम्'' [भेद] स्वस्वरूप-परस्वरूपको द्विधा करना ऐसा जो [विज्ञान] जानपना वही है [ मूलाम् ] सर्वस्व जिसका ऐसी है। और कैसी है ? ' "अचलितम्'' स्थिरतारूप है। ऐसी अनुभूति कैसे प्राप्त होती है, वही कहते है-"कथमपि स्वतो वा अन्यतो वा'' [कथमपि] अनंत संसारमें भ्रमण करते हुए कैसे ही करके काललब्धि प्राप्त होती है तब सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। तब अनुभव होता है; [स्वतः वा] मिथ्यात्वकर्मका उपशम होनेपर उपदेशके विना ही अनुभव होता है, अथवा [अन्यतः वा] अंतरङ्गमें मिथ्यात्वकर्मका उपशम होनेपर और बहिरङ्गमें गुरुके समीप सूत्रका उपदेश मिलनेपर अनुभव होता है। कोई प्रश्न करता है कि जो अनुभवको प्राप्त करते हैं वे अनुभवको प्राप्त करनेसे कैसे होते हैं ? उत्तर इस प्रकार है कि वे निर्विकार होते हैं, वही कहते हैं-"त एव सन्ततं मुकुरवत् अविकाराः स्युः" [त एव] अर्थात वे ही जीव [ सन्ततं] निरंतर [ मुकुरवत्] दर्पणके समान [अविकाराः] रागद्वेष रहित [स्युः] हैं। किनसे निर्विकार हैं ? "प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावैः'' [प्रतिफलन] प्रतिबिंबरूपसे [निमग्न] गर्भित जो [अनन्तभाव ] सकल द्रव्योंके [ स्वभावैः ] गुण-पर्याय , उनसे निर्विकार हैं। भावार्थ इस प्रकार है - जो जीवके शुद्ध स्वरूपका अनुभव करता है उसके ज्ञानमें सकल पदार्थ उद्दीप्त होते हैं, उसके भाव अर्थात् गुण-पर्याय , उनसे निर्विकाररूप अनुभव है।। २१ ।।
___ [मालिनी] त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीढं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत्। इह कथमपि नात्माऽनात्मना साकमेक: किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम्।।२२।।
[हरिगीत] आजन्म के इस मोह को हे जगत जन तुम छोड़ दो। अर रसिक जन को जो रुचे उस ज्ञान के रस को चखो।। तदात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं।।२२।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "जगत् मोहम् त्यजतु'' [ जगत् ] संसारी जीवराशि [ मोहम्] मिथ्यात्वपरिणामको [त्यजतु] सर्वथा छोड़ो। छोडने का अवसर कौनसा ? "इदानीं'' तत्काल।
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