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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द[ हृदयसरसि] मनरूपी सरोवरमें है [पुंसः] जो जीवद्रव्य उसकी [अनुपलब्धिः ] अप्राप्ति [किं भाति] शोभती है क्या ?भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव करनेपर स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती ऐसा तो नहीं है। ''च उपलब्धिः '' [ च] है तो ऐसा ही है कि [ उपलब्धिः ] अवश्य प्राप्ति होती है। कैसा है जीवद्रव्य ? "पुद्गलात् भिन्नधाम्नः'' [पुद्गलात्] द्रव्यकर्म-भावकर्मनोकर्मसे [ भिन्नधाम्नः ] भिन्न है चेतनरूप है-तेजःपुजु जिसका ऐसा है।। २-३४।।
[अनुष्टुप] चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम्। अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी।। ३-३५ ।।
[हरिगीत] चैतन्य शक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर। चैतन्य शक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर।। है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धात्मा । अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा।।३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अयम् जीवः इयान्'' [अयम् ] विद्यमान है ऐसा [ जीवः ] चेतनद्रव्य [इयान] इतना ही है। कैसा है ? 'चिच्छशक्तिव्याप्तसर्वस्वसार:'' [ चित्-शक्ति] चेतना मात्रसे [ व्याप्त ] मिला है [ र्वस्वसारः] दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य इत्यादि अनंत गुण जिसके ऐसा है। "अमी सर्वे अपि पौद्गलिकाः भावाः अतः अतिरिक्ताः'' [अमी] विद्यमान हैं ऐसे, [ सर्वे अपि] द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मरूप जितने हैं उन सब , [ पौद्गलिकाः ] अचेतन पुद्गलद्रव्योंसे उत्पन्न हुए हैं ऐसे [भावाः] अशुद्ध रागादिरूप समस्त विभावपरिणाम [अतः] शुद्धचेतनामात्र जीववस्तुसे [अतिरिक्ताः ] अति ही भिन्न है। ऐसे ज्ञानका नाम अनुभव कहते हैं।। ३-३५ ।।
[ मालिनी] सकलमपि विहायालाय चिच्छक्तिरिक्त स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम्। इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम्।। ४-३६ ।।
[दोहा] चित् शक्ति सर्वस्व जिन केवल वे हैं जीव । उन्हें छोड़कर और सब पुद्गलमयी अजीव।।३६ ।।
* मुद्रित 'आत्मख्याति' टीकामें श्लोक नं० ३५ और ३६ आगे पीछे आया है।
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