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कहान जैन शास्त्रमाला]
जीव-अधिकार
उसी प्रकार जीव और कर्म भी यद्यपि अनादिसे एक बंधपर्यायरूप मिले चले आरहे हैं - एकपिंडरूप हैं। तथापि जीवद्रव्य अपने ज्ञानगुणसे बिराजमान है, कर्म-पुद्गलद्रव्य भी अपने अचेतन गुण को लिए हुए है। इसलिये एकपना कहना झूठा है। इस कारण स्तुतिमें भेद है। [ उसी को दिखलाते हैं-] "व्यवहारतः वपुष: स्तुत्या नुः स्तोत्रं अस्ति, न तत् तत्त्वतः'' [व्यवहारतः] बंधपर्यायरूप एक क्षेत्रावगाहदृष्टिसे देखनेपर [ वपुषः] शरीरकी [स्तुत्या] स्तुति करनेसे [नुः] जीवकी [स्तोत्रं ] स्तुति [अस्ति] होती है। [न तत्] दूसरे पक्षसे विचारनेपर, स्तुति नहीं होती है। किस अपेक्षासे नहीं होती है ? [ तत्त्वतः] शुद्ध जीवद्रव्यस्वरूप विचारनेपर। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार 'श्वेत सुवर्ण' ऐसा यद्यपि कहने में आता है तथापि श्वेतगुण चाँदीका होता है, इसलिये श्वेत सुवर्ण ऐसा कहना झूठा है। उसी प्रकार"बे रत्ता बे सांवला बे नीलुप्पलवन्न।
मरगजपन्ना दो वि जिन सोलह कंचनवन्न।।"
भावार्थ-दो तीर्थंकर रक्तवर्णे, दो कृष्ण, दो नील, दो पन्ना और सोलह सुवर्ण रंग हैं, यद्यपि ऐसा कहने में आता है तथापि श्वेत, रक्त और पीत आदि पुद्गलद्रव्यके गुणहैं, जीवके गुण नहीं हैं। इसलिये श्वेत , रक्त अने पीत आदि कहनेपर जीव नहीं होता, ज्ञानगुण कहनेपर जीव है। कोई प्रश्न करता है कि शरीरकी स्तुति करनेपर तो जीवनी स्तुति नहीं होती, तो जीवकी स्तुति कैसे होती है ? उत्तर इस प्रकार है कि चिद्रूप कहनेपर होती है – “निश्चयतः चित्स्तुत्या एव चितः स्तोत्रं भवति'' [ निश्चयतः] शुद्ध जीवद्रव्यरूप विचारनेपर [ चित्] शुद्ध ज्ञानादिका [ स्तुत्या ] बार बार वर्णन-स्मरण-अभ्यास करनेसे [ एव ] निःसंदेह [चितः स्तोत्रं] जीवद्रव्यकी स्तुति [भवति] होती
है।
__ भावार्थ इस प्रकार है - जिस प्रकार ‘पीला, भारी और चीकना सुवर्ण' ऐसा कहनेपर सुवर्णनी स्वरूपस्तुति होती है, उसी प्रकार केवली ऐसे हैं कि जिन्होंने प्रथम ही शुद्ध जीवस्वरूपका अनुभव किया अर्थात इन्द्रिय-विषय-कषायको जीते हैं, बादमें मूलसे क्षपण किया है, सकल कर्म क्षय किया है अर्थात केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य और केवलसुखरूपसे बिराजमान प्रगट हैं; ऐसा कहनेपर-अनुभवनेपर केवलीकी गुणस्वरूप स्तुति होती है। इससे यह अर्थ निश्चित किया कि जीव और कर्म एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं। विवरण- जीव और कर्म एक होते तो इतना स्तुतिभेद कैसे होता।। २७।।
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