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श्रद्धाभक्ति का हार्दिक बहुमान रखने के साथ प्रासगिक धर्म क्रिया आराधना में विथ-निवारण द्वारा सहायक होने के जैसी स्मरण करने की बात शास्त्रसिद्ध किस रोत से है । इत्यादि विचारणा की शुरुआत की।
श्रा. वि. 20 तक व्याख्यान में इस सम्बन्ध में जोरदार प्ररूपणा चलो, इस उपर से त्रिन्तुतिक मत के श्रावक विचलित हुए । पूज्य श्री के पास आकर अपनी चालू दलीलें अविरित धारी नमस्कार क्यों करें आदि प्रकट किया । पूज्य श्री पूज्य ने सचेष्ट शास्त्रीय प्रमाणों के साथ खंडन किया और बताया कि सम्यग् दृष्टि देव शासन के रखवाले है उनकी श्रद्धा भक्ति तथा सम्यग् दर्शन की निर्बलता का अनुमोदन विरक्तिधारी भी कर सकता है “प्रादि इसे सुनकर त्रिस्तुनिक-मत वाले अपने मुख्य गुरु प्रा. श्री विजय राजेन्द्र सूरिम. जो रतलाम में ही थे उनसे सारी बातें की उन्होंने भी संवेगी परम्परा को ये नये साधु आगम में क्या समझे ? यह तो पागम का गूढ़ विषय है । इत्यादि कहकर अपने श्रावकों को पूज्य श्री को विद्वत्ता भरी शैली तथा शास्त्रीय तत्वों की तर्क बुद्धि से प्रस्तुति से उत्पन्न खिझलाहट के प्रभाव से मुक्त करने की कोशिश की।
श्रावक उस समय तो शांत हो घर गये परन्तु पूज्य श्री की बातों में शास्त्रीय पदार्थों की भव्य प्रस्तुति शास्त्रीय
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