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को दृष्टान्तों, तर्कों आदि से जोश भरे शब्दों "मे" प्रकट करते रहे।"
लोग
परिणाम स्वरुप सनातनियों में से जानकार जिज्ञासु पूज्य श्री के पास प्राये । पूज्य श्री ने उनका स्वागत पूर्वक सत्य-तत्व की जो जिज्ञासा हो उसे पूछने की प्रेरणा की । पूज्य श्री ने आज तक खंडन शैली को अपनाया नहीं था । जब सन्यासियों ने खुले चौक शीकर-वेदान्त की परम्पराओं में अद्वैतवाद को आगे करके दुसरे सभी को हङहाता खोटा कहकर तिरस्कृत किया । अतः आने वाले जिज्ञासुत्रों ने पूज्य श्री की गम्भीरता को पहचान कर पूज्य श्री को विनती की कि
" महाराज हम इन शास्त्रों में क्या समझे ये सब विद्वानों का काम किंतु सन्यासी महाराज जो कहते हैं उसके लिये आपका क्या मंतव्य है ? क्या सचमुच आप जैन धर्मी ईश्वर को नहीं मानते क्या ? और सनातन धर्म की बातों में और आपकी बातों में क्या फर्क है ? हम तो इतना ही जानना चाहते हैं । पूज्य श्री ने कहा "महानुभावों आप लोग भी व्यापारी हैं। हजारों का नफा-नुकसान समझने की हैंसियत रखते हैं । सीधी-सादी बात होते हुए भो विचारों की पकड़ के कारण लोगों के सामने विकृत करके रखने में क्या फायदा ? सन्यासी महाराज जो कहते हैं, उसमें रहे
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