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नीति को छोड़कर अपने मूल ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के आधार पर वैदिक धर्म तथा जैन धर्म पर उग्र भाषा में आक्षेप किया।
इसलिए पूज्य श्री ने भी बढ़े हुए रोग के प्रतिकार के लिए उग्र औषध के उपयोग की नीति के अनुसार कठोर भाषा में स्वामी दयानन्द जी की मौलिक विचार सूची में पाई अपूर्णता का खुले चौक में वर्णन किया । सत्यार्थ प्रकाश के छोटे छोटे सूत्र परस्पर विरोधी कैसे हैं तथा वेद उपनिषद आदि से कैसे विरुद्ध है ? आदि शास्त्र प्रमाण उल्लेख कर प्रकट किये । साथ ही साथ जैन तत्व ज्ञान की परिभाषा का प्राथमिक अभ्यास भी स्वामी दयानन्द जी को नहीं था। ऐसा जैन धर्म के खण्डन में बतलाये गये तथ्यों से जो धर्म के ग्रन्थों से कितने विपरीत है, सिद्ध होता है । स्वामी दयानन्द जी को जैन धर्म का पूर्णतः ज्ञान नहीं था । यह बात भी सचोट रूप से सर्व साधारण में घोषित की।
जिसके उत्तर में आने वाले कल दिये जाने को कह वह सन्यासी जी अपने स्थान पर गये । दूसरे दिन सन्यासी का स्वास्थ्य नरम हुआ ऐसा प्रार्य समाजियों ने जाहिर किया तथा थोड़े दिन के लिए स्वामी जी हवा बदलने बाहर गांव जाने की घोषणा की जिसके कारण वाद-विवाद अधूरा रह गया। लेकिन समझदार विवेकी जनता ने सत्य की परीक्षा
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