Book Title: Sadhvi Vyakhyan Nirnay
Author(s): Manisagarsuri
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalay

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Page 8
________________ ( ८ ) अर्थोऽर्थः सुहृद्वैरी, पविः पतति च क्षणात् । शुभे त्वत्र पुनः सर्व, विपरीतमिदं भवेत् ॥ ३५ शशोचे कस्य जीवस्य, कर्मेदृक् परिणामकृत् । तथा प्रोचे ममैवेदं, कर्म खेदं ददौ बहुम् ॥ ३६ ॥ प्रोवाचाऽमरसेनोऽथ रसेनोद्भिन्न कण्टकः । कथं वा ? किंनिमित्तं वा? तत्कर्मेत्यथ सा जगौ ॥ ३७॥ संविग्ना च सभा राजबन्धुदेवो व्रतोद्यतौ । ऊचतुर्भगवत्यस्ति, जिघृक्षा नौ जिनवते ॥ १४४ ॥ प्रतिबन्धं कृषाथांमा, तयेत्युक्ता विमौमुदा । दापयित्वा महादानान्यर्चयित्वा जिनावलीः ॥ १४५ ॥ सम्मान्य प्रणयि व्रातमभिनन्द्यपुरीजनम् दत्वा च हरिषेणस्य, राज्य निजयवियसः ॥ १४६ ॥ नृपति बन्धु देवेन, प्रधानश्च निजैः सह । पुरुषेन्द्रगणैः पार्श्वे, प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान् ॥ १४७॥ श्री समरादित्य केवली रास, श्री पद्म विजयजी कृत प्रकाशक भीमसी माणेक बम्बई. पृष्ठ२९८-९, ३०८ एक दिन जय जय रव थयो, कुसुम वृष्टि सुविशाल रे ॥ ११ ॥ इंणि. ।। सुरसिद्ध विद्याधर थकी, व्यापी र आकाश रे || राय पूछे निजपुरुषनें, कहोप किशो प्रकाश रे ॥ इंणि । १२ ॥ खबर करी प्रतिहार ते, भांखे तास निदान रे । इंण नयरीमां पामीयां, साधवी केवल ज्ञान रे || इंणि | १३ || जाणे लोका लोकना, त्रण कालना भाव रे ॥ सुर विद्याधर बहु धूरों, सांभली नरपति तावरे ॥ इंणि ॥ १४॥ हरखी चाल्यो वांदवा, आव्यो उपाश्रय द्वार रे। तोरण थंभने पूतली, ज्यूं विद्युत् जातकार रे || इंणि. । १५ ।। किहांयक स्फाटिक विदुमकी हां, किहांयक चामर श्वेत रे ॥ ध्वज शिर उपर फरकतो, कनक किंकिणी समवेत रे ॥ इंगि | १६ | बहु साहुणिये परिवरयां, तिम श्राविका समुदाय रे । श्रीसम रूपें शोभतां, गुरुणी तिहां देखाय रे ॥ इंणि | १७ || भवसागर तरियां जिके, गुण मणि रयण भंडार रे । शशिसम वयण शोभा मली, नाशित तम अंधकार रे || इंणि । १८ ॥ श्वेतांबरधी साहूणी, स्तवता भूपति ताम रे । कुसुम बरसी करे धूपने, करे पंचांग प्रणाम रे ॥ इंणि । १६ ॥ बेठो धर्म श्रवण भणि, धर्म कथा कहे जाम रे । अव्या दोय तिरो समे, सारथ वाह सुत ताम रे || इंणि । २० ॥ बंधुदेव सागर नामें लेई निज निज नार रे। परमगुरु प्रणमी करी, साहुणी प्रणमे सार रे | इंणि। २१ ॥ सात मे खंडे ढाळ ए, पहेली पापनिवार रे। पद्म विजय कहे सांभलो, सुणतां जय जयकार रे ॥ इंणि । २२ ॥ दोहा - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat G सागर कहे नृप सांभलो, मत कर जो मन खेद । अद्भुत एक दीठु अमें, सांभत जो तस भेद ॥ १ ॥ सांभलतां विस्मय थशे, रहि न शकुं हुं राज्य, विस्मय प्रेरयो वीसमी, अर्थ न जाणु श्राज ॥ २ ॥ पूछें ए भगवती प्रत्यें, ठावो नृप कहे ठीक; । असंभाव्य अद्भुत किशु, ते भांखो तहकीक ॥ ३ ॥ सागर कहे मुझ सहचरी, हाथ खोयो हार । अतीत काल कोइ उपरें www.umaragyanbhandar.com

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