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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
चैत्यवासियों की शास्त्र विरुद्ध बहुतसी बातों की आचरणाओं का निषेध किया है। उसके साथ साथ उन चैत्यवासिनी साध्वियों को ग्रामादि में विहार करना तथा उपदेश देना दोनों ही बातों का निषेध किया है, उसके साथ यह भी बतलाया है कि "अडंतिधम्मंकहंतिप्रो" तथा “आर्यिका ईतय इव तिड्डाद्याः काश्चन न सर्वा" यह वाक्य ऊपर के मूल पाठ में तथा टीका के पाठ में खुलासा लिखा हुआ है, इससे ग्रन्थकार ने यह विषय उन वेशधारिणीयों के लिए कहा है, परन्तु सर्व संयमी साध्वियों के लिए नहीं जिस पर भी ग्रन्थकार के अमिप्राय विरुद्ध होकर के यह विषय सर्व साध्वियों के लिए ठहरानेवाले मायाचार से अभिनिवेशिक मिथ्यात्व का सेवन करते हैं।
४०-और भी देखिये-जिस तरह किसी ग्राम-नगर या प्रान्त में भ्रष्टाचारी साधुसाध्वियों का समुदाय रहता हो और उनके लोक विरुद्ध धर्म विरुद्ध व्यवहार के देखने से जैन शासन की अवहिलना होती हो, तब उसका सुधार करने के लिए यदि कोई सुधारक कहे कि-साधु-साध्वियों का अहार-पानी देना, वन्दना करना, और उन्हों का व्याख्यान सुनना इत्यादि कार्य पाप वृद्धि का हेतु है, इसलिए ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा कहने वालों का आशय उन साधु-साध्वियों का भ्रष्टाचार रोकने का होता है, परन्तु वे वाक्य शुद्ध संयमी सर्व साध्वियों के लिए नहीं माने जा सकते । इसही तरह से जीवानुशासन ग्रन्थकर्ता ने भी चैत्यवासिनी साध्वियों का विहार और उपदेश दोनों निषेध किया है, जिस पर भी इस प्रमाण को आगे करके सर्व शुद्ध संयमी साध्वियों को विहार करने का तथा उपदेश देने का निषेध करनेवालों की बडी अज्ञानता है।
४१-फिर भी देखिये-ऊपर के प्रमाण से यदि सर्व साध्वियों को व्याख्यान वांचने का निषेध किया जावे तो यह बात जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के सर्वथा विरुद्ध ठहरती है, क्योंकि "उत्तराध्ययन, नन्दी, सूयगडांग, ज्ञाताजी, निरयावली" आदि आगमों की टीका तथा प्रकरण और चरित्रादि अनेक शास्त्रों के पाठ ऊपर में बतलाकर हम साध्वी को व्याख्यान बांचने का अधिकार साबित कर आये हैं, यह नियम अनादिकाल से है, इसही से तो साध्वियों से प्रतिबोध पाये हुए पुरुष चारित्र लेकर यावत् सिद्ध होते हैं, इसलिए जीवानुशासन के नाम से सर्व साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेध करनेवाले जिनाशा के विराधक बनकर उत्सूत्र प्ररूपक ठहरते हैं।
४२-अगर निशीथसूत्रकोजाननेवालेकोही व्याख्यान बांचनेका अधिकारी मानकर और साध्वियोंको व्याख्यान बांचनेका सर्वथा निषेध कियाजावेतोयह भी बहुत अनुचित है, क्योंकि देखो-जैनशासन स्याद्वाद अनेकान्त है, उसमें एकान्त हठही नहीं हो सकता, देखिये-गौचरी जाना, व्याख्यान देना, इत्यादि अनेक बातों को मुख्य वृत्तिसे गीतार्थों के लिए आशा है, परन्तु इससे इनबातोंका अन्य सर्व साधुओंके लिए निषेध नहीं बन सकता अभीये बातें सामान्य साधु
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