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* ॐ * * श्री जिनाय नमः
साध्वी व्याख्यान निर्णयः
लेखक
श्रीमान् महोपाध्याय श्री सुमतिसागरजी महाराज के
लघु शिष्य श्री मणिसागर सूरिजी महाराज
MA
साध्वियों को सूचित किया जाता है कि साधुओं की तरह साध्वियों को भी श्रावक-श्राविकाओं की सभा में धर्मदेशना देने का अधिकार है जिसके शास्त्रीय प्रमाण इस ग्रन्थ में संग्रहित हैं तथा शंकाओं का समाधान भी किया गया है । कोई व्यक्ति इसका निषेध करने का आग्रह करे तो उसे न मानो और दिल खोलकर ज्ञानवृद्धि करो और धर्मोपदेश दिया करो ।
प्रकाशक
तु श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय, जैन प्रेस, कोटा
द्रव्य सहायकPा श्रीमती-प्रवर्तिनी प्रतापश्रीजी-चम्पाश्रीजी-वल्लभश्रीजी-प्रमोदश्रीजी के उपदेश से हम
श्राविका संघ फलौदी ( मारवाड़) Pass वीर सं० २४७२ ]
सन् १६४६ ई०
[विक्रम सं० २००३ BOY प्रथमावृत्ति ] जैन प्रिंटिंग प्रेस, कोटा में मुद्रित। [मूल्य सत्य ग्रहण
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बीकानेर में उपधान तप और आचार्य पद (श्रीमान् सुखसागरजी महाराज के सिंघाड़े में दूसरे आचार्य )
खरतर गच्छीय महामहोपाध्याय श्री सुमतिसागरजी महाराज के शिष्यरत्न पूज्यवर उपाध्याय श्री मणिसागरजी महाराज शिष्य विनयसागरजी सह विराजने से यहां बहुत सी धार्मिक जागृतिएं हुई। उपधान तप उन सब में प्रधान है। कार्तिक कृष्ण ६ को उपधान तप प्रारंभ हुआ, और इसमें : श्रावक ८५ श्राविकाओं ने तप वहन कर महान् लाभ उठाया । इसका सारा आयोजन सेठ संपतलालजी दफ्तरी की तरफ से हुआ था। तप की निर्विघ्न समाप्ति के उपलक्ष्य में मालारोपण का महोत्सव पौष कृष्ण प्रतिपदा १ का निश्चित होने पर चूरू में चातुर्मास कर नागौर पधारे हुवे परमपूज्य जैनाचार्य श्री जिनरिद्धिसूरिजी म० को विशेष आग्रह के साथ यहां पधारने की विनती की गई । संघ के आग्रह से प्राचार्य म० भी शीघ्रता से विहार कर मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा १५ को बीकानेर पधारे । सूरि जी के स्वागतार्थ बीकानेर का विशाल संघ बड़ी संख्या में सामने गया, उसी दिन दोपहर में माला का वरघोड़ा निकला। मिति पौष कृष्ण प्रतिपदा १ को लगभग दो ढाई हजार जनता की उपस्थिति में माला रोपण महोत्सव सेठ दानमलजी नाहटा की कोटडी-नाहटों की गवाड़ में संपन्न हुआ, इस सुअवसर पर उपाध्याय श्री मणिसागरजी म. को श्री संघ की ओर से महोपाध्याय पद देने का विचार हो रहा था पर प्राचार्य श्री जिन रिद्धिसूरिजी म. ने आपकी योग्यता एवं विशिष्ट सेवाओं को ध्यान में लाकर संघ से श्राचार्य पद देने का प्रस्ताव रक्खा, इस पर श्रीमान् सेठ भैरूदानजी कोठारी ने संघ की सम्मति द्वारा सूरिजी के प्रस्तावित श्रादेश का समर्थन किया, व गम्भीर जयध्वनि के साथ उन्हें प्राचार्य पद से सुशोभित किया गया। इसके पश्चात् संघपतिजी की सेवाओं का श्री ताजमलजी बोथरा ने दिग्दर्शन कराया और श्री भैरूंदानजी कोठारी के कर कमलों से उपधान संघवी श्री सम्पतलालजी दफ्तरी को चांदी के कास्केट में सन्मान पत्र दिया गया। श्री चंपालालजी बक्सी ने दो मास तक अपने सारे व्यापार एवं गृहकार्य को छोड़ कर दिन रात बड़े परिश्रम से उपधान की व्यवस्था संपन्न की इसके लिये उन्हें भी स्वर्ण रौप्य पदक देने की घोषणा की गई तत्पश्चात् तपस्वियों को माला पहनाई जाकर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा रावतमलजी बोथरा के चांदी के प्याले, अाठ व्यक्तियों के नगद रुपये, पुस्तकें, नारियल, खोपरे
आदि की करीब ७१ प्रभावनाएं हुई । उपधान तप के उपलक्ष में मिति कार्तिक शुक्ला ६ को स्थानीय श्री चिन्तामणिजी के मंदिर के भण्डारस्थ १११० प्राचीन प्रतिमाएं एवं श्री महावीरजी के भण्डारस्थ ७५ प्रतिमाएं को बाहर निकाल कर श्री संपतलालजी दफ्तरी ने उसके दर्शन एवं पूजन का महान लाभ उठाया। उनकी ओर से ६ अट्ठाई महोत्सव और अन्य ६-७ अट्ठाई महोत्सव हुवे। गिति कार्तिक शुक्ला १५ को श्री चिन्तामणिजी के मंदिर से बड़े धूमधाम के साथ भगवान की सवारी निकाली जाकर गौडी पार्श्वनाथजी के मंदिर होकर वापिस पधारी। मिती मार्गशीर्ष कृष्णा ६ को शांति स्नात्र एवं विसर्जन क्रिया विधि के साथ श्री चिंतामणिजी की भण्डारस्थ मूर्तियां पुनः भंडार में विराजमान की गई। श्री महावीर स्वामी के मंदिर की प्रतिमाएं पौष कृष्णा प्रतिपदा १ को भण्डारस्थ की गई । मालारोपण उत्सव में अनेकों श्रावक श्राविकाओं ने महीने, १५ दिन ब्रह्मचर्य आदि के प्रत्याख्यान किये एवंश्री रावतमलजी व पूनमचंदजी बोथरा ने जोड़े से चतुर्थ व्रत एवं जतनमलजी नाहटा (आयु २३ वर्ष) ने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया । कई श्रावक १२ व्रतादि लेने का विचार कर रहे हैं।
जैन ध्वज वर्ष ८ अंक ३१ तारीख २३-१२-४४ के अंक से उद्धत । भंवरलाल नाहटा
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उपोद्घात
' साध्वी व्याख्यान निर्णय : ' पुस्तक के लेखक पूज्य जैनाचार्य श्री मणिसागरसूरिजी जैन जगत् में सुप्रसिद्ध विद्वान् हैं। आप श्री बृहत्पर्युषणा निर्णय:, श्रगमानुसार मुहपत्ति निर्णयः, देवद्रव्य निर्णायः एवं कल्पसूत्र अनुवाद यदि कृतियों के द्वारा साहित्य सेवा करके जनता का अच्छा हितसाधन किया है एवं जैनागमों को राष्ट्र भाषा हिन्दी में अनुदित कर जनसाधारण तक पहुंचाने की आपकी योजना अवश्य ही श्लाघनीय है ।
इस पुस्तक का विषय नाम से ही स्पष्ट है । आश्चर्य तो इस बात का है कि जिस जैन धर्म ने व्यक्ति स्वातन्त्र्य के चरम विकाश का बीड़ा उठाया । जाति वर्ण और लिंग भेद के महत्व को निर्मूल कर "गुणा-पूजा स्थानं गुणीषु न च लिंगं न च वयः " का आदर्श उपस्थित कर मोक्ष का द्वार प्राणी मात्र के लिए खुला कर दिया उस पवित्र धर्ममें आज साध्वियों के व्याख्यान देने के निषेध का प्रश्न उपस्थित किया जाता है। जिनका जीवन ही स्व-पर कल्याण के लिए, ज्ञान ध्यान उपदेश के लिए है वे यदि व्याख्यान ज्ञान दानादि न करें ? तो क्या करें?
विद्वान् श्राचार्य श्री ने प्रस्तुत प्रश्न पर शास्त्रीय प्रमाण व युक्तियों के साथ इस ग्रन्थ में यथोचित प्रकाश डाला है अतः मैं उसका पिष्टपेषण न कर कुछ अपने विचार पाठकों के समक्ष उपस्थित करता हूँ ।
जैन धर्म में स्त्री जाति को धार्मिक दृष्टि से पुरुष के समान अधिकार दिया गया है । उसे मानव के अति उच्चतम विकाश केवलज्ञान और मोक्ष तक की अधिकारिणी माना गया है । चतुर्विध संघ में पुरुषों के समान ही साध्वियों और श्राविकाओं का स्थान है,श्वेताम्बर जैनागमों में सैकड़ों साध्वियों [ दीक्षित स्त्रियां ] के मोक्ष जाने का उल्लेख है । उन्नीसवें तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ भगवान् भी स्त्री जाति के प्रति थे । भगवान् ऋषभदेव स्वामी ने अपनी ब्राह्मी सुन्दरी पुत्रियों को ६४ कलाएं सिखाई थीं और वे बाहुबलिके केवल ज्ञानोपार्जन में निमित्त कारण हो कर अन्त में मोक्ष गई । सच्चरित्रता के लिए १६ सतियों के नाम आज भी नित्य प्रातः काल स्मरण किये जाते हैं । प्रत्येक तीर्थङ्कर के संघ में साधु श्रावकों से साध्वी श्राविका की संख्या अधिक थी । उत्तराध्ययन सूत्र में कामवासना के द्वारा संयम मार्ग से विचलित होते हुए रहनेमि को सती राजीमती ने बोध देकर संयम में स्थिर करने का उल्लेख है । ज्ञाता सूत्र में मल्लिकुवरि [ १६ वें तीर्थकर ] द्वारा ६ मित्र राजाओं के प्रतिबोध एबं सती द्रौपदी का जीवन चरित्र है, अर्थात् स्त्री जाति के प्रति भी समान आदर व्यक्त किया गया है ।
आज कल के समय में स्त्री व्यक्ति के परिचय देने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। जगत के बड़े से बड़े व कठिन से कठिन कार्य स्त्रियां कर सकती हैं यह पाश्चात्य देश के विकशित स्त्री समाज व भारतीय महिलाभों में पं० विजय लक्ष्मी, सरोजिनी नायडू, कैप्टन लक्ष्मीबाई आदि ने भली भांति सिद्ध कर दिखाया. है । यदि उनके विकाश में कमी है तो उसका उत्तरदायी-पुरुष समाज ही है जिसने चिरकाल से स्त्री जाति को हीन समझने और दबाये रखने की नीति धारण कर रखी है। वास्तव में स्त्री और पुरुष में लिङ्ग भेद के शारीरिक भेद के सिवा और कोइ आत्मविकाश के कारणों में भेद नहीं है । वही तेजपुंजमयी आत्मा दोनों के अन्दर बिराजमान है कई बातों में तो पुरुषों से भी बढ़कर स्त्री जाति का महत्व है I
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जैन धर्म में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार प्रवृत्ति करने का आदेश है, अपवाद मार्ग इसी का प्रतीक है । जिस कार्य से वर्तमान काल में अधिक लाभ हो वही करना श्रेयस्कर है । वर्तमान काल में साध्वियों के व्यारूयाम देने की बड़ी ही उपयोगिता है क्योंकि साधु लोग अल्प संख्यक है और उनका विहार भी अव्यवस्थित होने के कार बहुत से स्थानों के श्रावक धार्मिक ज्ञान से वंचित रह जाते हैं, यही कारण है कि लाखों की संख्या में श्रावक लोग अन्य मतावलम्बी होगये हैं । इस दृष्टि से भी साध्वियों के व्याख्यान की बड़ी उपादेयता है इसका फल प्रत्यक्ष है; खरतर गच्छ की विदुषी साध्वियों द्वारा जो धर्म प्रचार हुआ एवं हो रहा है यह सर्व विदित है अतः प्रत्यक्ष परिणाम देखते हुए इसकी उपयोगिता में कोई संदेह नहीं किया जा सकता ।
समर्थन ही करते हैं और
साध्वियों के व्याख्यान का निषेध करने वाले भी उनके ज्ञान संपादन करने का तो ज्ञान का विकाश ज्ञान दान के द्वारा होता है, इसके द्वारा वृद्धि प्राप्त होती है अन्यथा विस्मृत जाता है अतः साध्वियों के ज्ञान संपादन का लाभ भी जनता को मिलना चाहिए । व्याख्यान देना इसके लिए सुन्दर साधन है और इसे निषेध करना कोई भी विचारशील उचित नहीं समझेगा क्योंकि किसी भी कार्य का उचित और अनौचित्य उसके भालाभ पर निर्भर है।
प्राचीन काल में भी जैनधर्म में अनेको विदुषी साध्वियां हुई है जिनमें से ' गुण समृद्धि महत्तरा ' रचित "अंजना चरित्र” उपलब्ध है । व्याख्यानादि न देने से ज्ञान का उपयोग नहीं होने के कारण ही वर्तमान काल में साध्वियां पठन पाठन में अधिक सचेष्ट नहीं होतीं यदि वें व्याख्यान देना आवश्यक समझेंगी तो उनका उत्साह व अभ्यास बढ़ेगा और ज्ञान का विकाश होने के साथ साथ श्रावक श्राविकाओं में भी धार्मिक ज्ञान की वृद्धि होगी और अन्य मतावलम्बी होने से रुक कर उभय समाज का लाभ एवं उत्कर्ष होगा ।
अगरचंद नाहटा
साध्वी संघनी उपयोगिता
लेखक - पार्श्वचन्द्र गच्छीय साध्वीजी श्री खांति श्रीजी
ता० २८,१०,४५ ना अंक ४१ पाना ५५७ पर 'समाजमां साध्विओंनु कर्त्तव्य' ए मथाला भाई वरजीवनदास वाडी लाले एक लेख आप्योछे; साध्वीश्रो समाज ने उपयोगी बने अने उच्च स्थाने आवे एवो एमनो आशय छे, परन्तु ए लेखनी अंदर जे वस्तुस्थिति जणावी के ते केटलीक भयभरेली भने अयोग्य छे ।
साधु करतां साध्वीश्रो समाज ने ओछी उपयोगी छे ते ए भाई कई श्रांखे जोई शकता हशे ? कारण के खरतर गच्छीय, पार्श्वचन्द्रगछीय, अंचलगच्छीय, सुधर्मगच्छीय भने स्थानकवासी संप्रदायनी अनेक साध्वीश्रो जुदा जुदा देशोंमां विचरी, व्याख्यानो आपी, पोते मेलवेल ज्ञाननो उपयोग समाजमा छूटथी करी रहेल छे तेमज धार्मिक कार्यो करावी प्रभाव पाडे छे मने दीक्षित थये २८ वरस थवा आव्यां, ते दरम्यान कच्छ काठियाबाढ़, गुजरात, मारवाड़ (बीकानेर) सुधीना परिभ्रमणमां में ते अनुभव्युं छे, नाना मोठा
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( ५ )
हरेक गामोमां ज्यां ज्याँ साध्वीजीओ बिराजेल होय छे, त्यां त्यां नानी बालाओ थी कई मोटी बहिन सुधी ने धार्मिक अभ्यास करावता होय छे, तेमने नवकार थी मांडी कर्म ग्रन्थ सुधीनुं ज्ञान साध्वी जी मोना प्रतापेज मल्युं होय छे, साध्वीजीओ पासे स्त्री वर्ग हमेशा अभ्यास करतो अनुभवाये छे साध्वी जी ओना प्रताप जैन स्त्री समाज संयमी, तपस्वी, क्रिया कांडी मर्यादाशील अने धार्मिक अभ्यासमां जेटलो आगल वघेलो देखाय छे, तेना इजारमा अंशे पण साधु समाज थी पुरुष वर्ग धार्मिक बाबतों मां अगल वधेलो देखाय छे, ?
पदवी धरोन खरचाने पहोंची बलवा असमर्थ एवा नाना गामडांओ मां धार्मिक श्रद्धा टकावनार तथा सदुपदेश आपनार साध्वीजीओ ए ज छे, पूज्य आचार्यो तथा मुनि पुंगवो, पांच दश थी लई चालीस पचास ठाणा एकज स्थळे मोठा मोठा सहेरोमां साथ रहे छे, तेओ माँ व्याख्यानकारतो एकज होय छे, ते सिवायना मुनिराजो शां समाजोपयोगी कार्यो करेछे? पुरुषों ने बालकों ने भगात्रवानी केटली तकलीफ ले छे तदुपरांत एक बीजा ने भणावी शके तेवा मुनिवर्यो हावाछतां साथेना मुनिओने केम भणावता नथी अने मोठा पगारे पंडितो ने शा माटे रोके छे ?
वरजीवनदास भाई ने साधुओ जेटले अंशे समाजने उपयोगी जणाया छे ते धी अनेक गणो बदलो ते अनेक रीतिये समाज पासे थी ले छे जेम के साधुओ पधारे त्यारे मोटुं मोटुं सामैयुं करावनुं, पदवी प्रदान बखते हजारों नाणा खरचाववां, नाम कायम करवा लाखोनी रकम उडावरावत्री, वगेरे, आ विचारतां जणाशे के साध्वीश्रो नो आवा प्रकारनो बोझो समाज उपर नथीज, तेम छतां तेनी उपयोगिता अने सेवा समाज ने घणी जगाय छे, प्रभाविक साधुओ नेए भाई तथा बीजाओ जागे छे पण प्रभाविक साध्वीजी होय तेनुं जाणता नथी, प्रभाविक साधु कोने कद्देवाय ए समझ जोइये, मात्र वागछटाथी, विद्वत्ता थी के अमुक बे पांच कार्यो करवाथी नथी थह जवतुं दालना प्रभाविक महात्माओंना अन्य प्रभावी पण सर्वनी जाण बहार नथी, जेवां के पोतानी मान्यता साची कराववानी खातर अरसपरस्परमां शिरस्फोटन करावयां, अनाचारीश्रो ने पडले उभा रद्दी हसते मुखड़े श्रांख आडा कातकरी नभाव्ये राखवा, अयोग्य वर्त्तणूक छतां सुशीलतानो डोल राखवो, आजे धामधूम थी साधु वेशमां ने काले गृहस्थ वेश मां, आ ऊपरथी समजाशे के जैन शासन नी हेलना करवामां साधुओ ओछा भागीदार न थी ते मुकाबले साध्वीओ घणीज पवित्र श्रने प्रभाविक गणाय, साध्वीओमां अनाचार के वेश पलटो कचित ज बनेल हुशे, साधुओनी जेम केटलीक साध्वीमो दीक्षा आपे छे, व्रतोचारण विधि पूर्वक करावे छे अने धार्मिक कार्य पण घणांज करावे छे,
चालु लालमां कच्छ प्रान्तमां दशेक गाममां साधुओना चोमासां हतां, बाकीना घणा गामोमां साध्वीजीओ ना हता ज्यां तेओ व्याख्यान आपतां अने भणावतां पण साध्वीजी भो
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( ६ )
ना उपदेशे थयेला सुन्दर कार्यों छापा सुधी पहोंची प्रकाशनमां आवी शकता नथी, कदाच कोई मोकलावे तो पत्रकारो प्रायः छापता नथी कचित छापे छे तो बहुत ट्रंकाणमां, आम होवाथी साध्वीजीओनी प्रवत्ति थी घणाओ अज्ञात रहे ए देखीतुं छे,
साध्वीजीओ व्याख्यान नथी बांचता ए बात तो तप गच्छना साध्वीजीओ ने लक्षमां राखीनेज वरजीवनदास भाई ओ लख्यु हशे ए बात महदंशे साची छे, जीतविजयजी ना संघाड़ा ने बाद करतां, तपगच्छना अन्य साध्वीजीओ व्याख्यान नथी आपतां, तेनुं कारण ए के साध्वी श्री सूत्र न बंचाय, व्याख्यान न अपाय ने पुरुषों थी सांभलवा पण न जवाय, एटलुज नहीं पुरुषवर्ग साध्वी ओ पासे थी पञ्चबारा पण न ले, पवी मुनिपुंगवोनी आज्ञा होय छे, तपगच्छमां आवी प्रणालिका चाले छे, तेथी प्रभावशाली साध्वीओ दोवाकृतां बहार आवी शकती न थी, गामडाओमां चातुर्मास रही व्याख्यान द्वारा जे लाभ समाज ने मलवो जोइये, शासननी सेवा करवी जोइये ते थह शकती नथी, फर जियात साधुओ साथे चातुर्मास करवा, पड़े छे, जुहा चौमासा करवा अने सूत्र के व्याख्यान न पंचाय तो चार मासमां करेशुं । पटले ज्यां साधु होय त्यांचोमासुं करे, तो सूत्र ने व्याख्यान सांभतवानु थाय ने साधुओमा पात्रा रंगवानुं, ओघा बनाववानु अने कांबलीओ तथा पाठा वगेरे गुरु भक्ति कर्यानो लहावो लेवाय,
महेसाणा मां १० ठाणा साधुओ हता, ने ४० ठाणासाध्वीओ हता, ज्यारे महेसाणानी माजु बाजू ना गामोमां कोई नु चोमासु नहोतुं, ज्यां १५-२० घरोनी रस्ती होय बे त्रण ठाणा साओिना चोमासुं होय तो समाज पर केवलो उपकार थई सके । महेशाला जेवा गांममां ज्यां भणावनार मास्तरोने-पंडितो होय त्यां आटला बधा ठाणानी शी जरूर इती ? तो एक महेसाणानी वात थई, पण बीजा शहेरोमां ए थी ये वधु छे पासेना गामडाओ साधु साध्वीओ माटे तलसता होय पण पेला बंधन ने कारणे गांमडा वालाओं लाभ न लई शके ने साध्वीभो व्याख्यान आपी न शके हवे ए प्रणालिका ने फेरववानी जरूर छे, ।
वरजीवन भाई साध्वीश्रोना ज्ञाननो लाभ समाज ने अपाववो होय, धर्मनो प्रचार करवो होय तो पहेलां आपणा गुरुदेवो ने विनववा पड़शे । तेभो श्रीनी श्राज्ञा छूटशे तो साध्वीओ सहर्ष शिरसावंद्य करी सरसरीते कार्य करशे पण गुरूदेवोनी आज्ञा विना पोता नी मैले कांई करशे नहीं, कारण एम करवां जतां 'आज्ञा बहार' ना फरमानो छूटे ने ते थी विचरवानुं पण मुश्केल थई पड़े,
पूज्य आचार्यो के श्री संघ नीचे प्रमाणे करे तो समाज ने जरूर वधु पडतो लाभ मले
१ - ज्यां साधु चोमसुं रहे त्यां साध्वीजी ए न रहे वुं । २ -- एक गाममा १० ठाणा बघु ठाणा चोमासु न रही शके, अहमदाबाद के मुंबई जेवा शहेर मां २५ ठाणा श्री
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वधु न रही शके । ३-ज्या १.५थी२५ घर होयत्यांबे थी त्रणठाणानुं चोमासु अवश्य करावं ४- एकल विहार तद्दन बंद थेवो जोइय ५- साध्वीजीओ ब्रतोचारण विधि पूर्वक करावी शके, आप्रमाणेनी व्यवस्था थाय तो घणा गामो मां घणा भाइयो ने लाभ मलि. शके,हरिभद्र सुरिए जेने याकिनी मष्ठत्तरा कही मान जालवेल छे एज साध्वी समाज ने आजे वंदन करतां, एमनुं व्याख्यान सांभलतां, श्रीवक समुदायतुं पुरुष प्रधान पद धवाय छे ? ( जैन साप्ताहिक भावनगर से प्रकाशित ता. १६-१२-४५ अंक ४७ पृ० ६३२-३से उद्धत)
विशेष प्रमाण संक्षेप समरादित्य के वलि चरितम् , चान्द्रगच्छीय श्री प्रद्यम्नसूरि विरचित (प्रकाशक आत्मानन्द जैन सभा अम्बाला) सप्तम भवे पृष्ठ ९१-९५
अन्या पुर्यपर्यन्तो, जशे जयजयारवः । सुरविद्याध श्चके, पुष्पवृष्टि नभस्तलात् ॥१६॥ भूनेत्रा प्रेषितो वेत्री, मत्वा भूपं व्यजिज्ञपत् । देवाऽभूत्केवलज्ञानं साध्व्यास्तन्मुदिता पुरी ॥१७॥ निरवद्यामिमां विद्याधरा धरणिगोचराः । सुराश्च स्तुवते देव ! सेवका देवतामिव ॥१८॥ श्रुत्वेति मुदितो नन्तुं, प्राचाली दचलापतिः। धर्मन्यस्तमनास्तस्याः, समेतश्च प्रतिश्रयम् ॥१९॥ यः स्वच्छस्फटिकच्छायः, स्वर्णवर्णवितर्दिकं । स्फुटसौदामिनीदामशरदम्बुधरप्रभः ॥२०॥ तत्र सोमाकृतिः सोमा, नाम दृष्टा प्रवर्तिनी । यतिनीभियुता तारानुकाराभिस्तपोरुचा।।२१॥ प्रावृताङ्गी पटेनोच्चैः, शुभ्रेणशरदभ्रवत् । मनसः सर्वतः शुक्लध्यानेनेव प्रसर्पता ॥ २२ ॥ नत्वा भगवतीमेतां, पुष्पवृष्टि विधाय च । धूपमुत्क्षिप्य चिदपस्ततो भूपः पदोर्नतः ॥२३॥ निविष्टो भूतले धर्मकथा च प्रस्तुता तया । दानशीलतपोभाव मेदरूपप्रकाशिका ॥ २४॥ अत्रान्तरे ऽत्र सस्त्रीको, समायातौ ससंमदौ । सार्थवाह तौ बन्धुदेवसागर नामको ॥२५॥ नत्वा भगवतीं प्राह, सागरो नृपतिप्रति । कार्यः खेदः कथाच्छेद प्रभवो देव ! न त्वया ॥२६॥ अत्यद्भुतमसंभाव्यं, दृष्टं वस्तु मया विभो , विस्मिनोऽज्ञाततत्तत्त्वः, स्थातुं तत्पारयामिन ॥२७॥ राशा तिदिति प्रोक्ते, स प्राहाऽऽकर्णय प्रभो, मदीयपत्नी हारस्थ, प्रनष्टस्य व्यतीयिवान्॥२८॥ बहुकालस्ततः सैष, मनसोपि हि विस्मृतः । अद्य भुक्तोत्तरं यावचित्रशालां गतोऽस्यहम्॥ तावञ्चित्रगत केक्युच्छवस्योन्नम्य च कन्धराम् । विधूय पक्षौ विस्तार्य बनवततार सः॥३०॥ कौसुम्भवसनच्छन्न, पटल्यां च विमुच्य तम्। हारंययौनिजस्थान, तथारूपः पुनःस्थितः॥३१॥ विमिस्तोऽहमिह श्रुत्वां, जातं जयजयारवम् । मत्वा केवल मुत्पन्नं,भगवत्या समागतः ॥३२॥ अत्यद्भुतमसंभाव्यं सत्येन भगवत्यदः । किमिति क्षमापतिप्रोक्ते, बभाषे भगवत्यथ ॥३३॥ सौम्यनात्यद्भुतं नैवाऽसम्भाव्यं चास्ति कर्मणः। अशुभेऽत्र जलवलिश्चन्द्रोध्वान्तं नयोऽनयः॥
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( ८ )
अर्थोऽर्थः सुहृद्वैरी, पविः पतति च क्षणात् । शुभे त्वत्र पुनः सर्व, विपरीतमिदं भवेत् ॥ ३५ शशोचे कस्य जीवस्य, कर्मेदृक् परिणामकृत् । तथा प्रोचे ममैवेदं, कर्म खेदं ददौ बहुम् ॥ ३६ ॥ प्रोवाचाऽमरसेनोऽथ रसेनोद्भिन्न कण्टकः । कथं वा ? किंनिमित्तं वा? तत्कर्मेत्यथ सा जगौ ॥ ३७॥
संविग्ना च सभा राजबन्धुदेवो व्रतोद्यतौ । ऊचतुर्भगवत्यस्ति, जिघृक्षा नौ जिनवते ॥ १४४ ॥ प्रतिबन्धं कृषाथांमा, तयेत्युक्ता विमौमुदा । दापयित्वा महादानान्यर्चयित्वा जिनावलीः ॥ १४५ ॥ सम्मान्य प्रणयि व्रातमभिनन्द्यपुरीजनम् दत्वा च हरिषेणस्य, राज्य निजयवियसः ॥ १४६ ॥ नृपति बन्धु देवेन, प्रधानश्च निजैः सह । पुरुषेन्द्रगणैः पार्श्वे, प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान् ॥ १४७॥
श्री समरादित्य केवली रास, श्री पद्म विजयजी कृत प्रकाशक भीमसी माणेक बम्बई. पृष्ठ२९८-९, ३०८
एक दिन जय जय रव थयो, कुसुम वृष्टि सुविशाल रे ॥ ११ ॥ इंणि. ।। सुरसिद्ध विद्याधर थकी, व्यापी र आकाश रे || राय पूछे निजपुरुषनें, कहोप किशो प्रकाश रे ॥ इंणि । १२ ॥ खबर करी प्रतिहार ते, भांखे तास निदान रे । इंण नयरीमां पामीयां, साधवी केवल ज्ञान रे || इंणि | १३ || जाणे लोका लोकना, त्रण कालना भाव रे ॥ सुर विद्याधर बहु धूरों, सांभली नरपति तावरे ॥ इंणि ॥ १४॥ हरखी चाल्यो वांदवा, आव्यो उपाश्रय द्वार रे। तोरण थंभने पूतली, ज्यूं विद्युत् जातकार रे || इंणि. । १५ ।। किहांयक स्फाटिक विदुमकी हां, किहांयक चामर श्वेत रे ॥ ध्वज शिर उपर फरकतो, कनक किंकिणी समवेत रे ॥ इंगि | १६ | बहु साहुणिये परिवरयां, तिम श्राविका समुदाय रे । श्रीसम रूपें शोभतां, गुरुणी तिहां देखाय रे ॥ इंणि | १७ || भवसागर तरियां जिके, गुण मणि रयण भंडार रे । शशिसम वयण शोभा मली, नाशित तम अंधकार रे || इंणि । १८ ॥ श्वेतांबरधी साहूणी, स्तवता भूपति ताम रे । कुसुम बरसी करे धूपने, करे पंचांग प्रणाम रे ॥ इंणि । १६ ॥ बेठो धर्म श्रवण भणि, धर्म कथा कहे जाम रे । अव्या दोय तिरो समे, सारथ वाह सुत ताम रे || इंणि । २० ॥ बंधुदेव सागर नामें लेई निज निज नार रे। परमगुरु प्रणमी करी, साहुणी प्रणमे सार रे | इंणि। २१ ॥ सात मे खंडे ढाळ ए, पहेली पापनिवार रे। पद्म विजय कहे सांभलो, सुणतां जय जयकार रे ॥ इंणि । २२ ॥
दोहा -
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सागर कहे नृप सांभलो, मत कर जो मन खेद । अद्भुत एक दीठु अमें, सांभत जो तस भेद ॥ १ ॥ सांभलतां विस्मय थशे, रहि न शकुं हुं राज्य, विस्मय प्रेरयो वीसमी, अर्थ न जाणु श्राज ॥ २ ॥ पूछें ए भगवती प्रत्यें, ठावो नृप कहे ठीक; । असंभाव्य अद्भुत किशु, ते भांखो तहकीक ॥ ३ ॥ सागर कहे मुझ सहचरी, हाथ खोयो हार । अतीत काल कोइ उपरें
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(&) वीओ इंस वार ॥ ४ ॥ श्राज भोजन करी आवियो, चित्रशाली चित्रकार । एक थयुं अचरिज इहां भांखुं ते अधिकार ॥ ५ ॥
॥ ढाल बीजी ॥
|| अरज अरज सुणोंनें रुडा राजीया होजी ॥ एदेशी ॥
हवे हवे मोर एक चित्रमां होजी, लेवे उंचो रे श्वास । क्षणमां क्षणमां कोट हला वतो होजी, कीधो पिच्छा विलास ॥ एह ॥ १ ॥ पांख पांख खखेरी उतरयो होजी, राता वस्त्र महार | मूक मूकि गयो निज स्थानकें होजी, हुनो चित्र प्रकार ॥ रह. । २ ॥ देखी देखी विस्मय उपनो होजी, कहो एशुं कहेवाय । एहवे पहवे जय जय रव थयो होजी, कुसुम वृष्ठि थाय ॥ ० ॥ ३ ॥ सुरवर सुरवर विद्याधर मिल्या होजी, सांभली लोकनी वाणि । पाम्यां पायां केवल साहुणी होजी, आग्यो हुँ इण ठांण ॥ एक०|४ || बोले बोले नरपति सांभलो होजी, सांधु अवरिज एह । एहवुं एहवुं संभवीयें नहीं होजी, पूछे भगवती नेह ॥ ए६० | ५|| भांखे भांखे तव तेह साधवी होजी, पहमां अचरिज कांय । कर में कर में शुं नवि संभवे होजी नियमा सफलां ते थाय ॥ एह० | ६ ॥ जेहवां जेहवां शुभाशुभ बांधिश्रा होजी, तेहवें उदये रे थाय । अशुभ अशुभ जल अगनि होये होजी, न्याय ते थाय अन्याय | एह● ॥ ७ ॥ चंद चंद तिमिर हेतु होय होजी, घरमां थी मरी जाय । अर्थ अर्थ अनर्थ मित्र वेरीओ होजी, नभथी अगनि वरसाय ॥ ए६ ॥ ८ ॥ शुभथी शुभथी विष अमृत होय होजी, दुर्जन सजन होय अपजश अपजश ते जश नीपजें होजी, न हणे युद्धमां कोय ॥ एह० ॥ ६ ॥ णमे पामे श्रचिती संपदा होजी, सुणी बोले नर नाह कोहना कोहना कर्मनी परिणती होजी, बोले साहुणी एह ॥ एह. ॥१०॥ माहरा माहरा कर्मनी परिणती होजी, बोले ताम भूपाल | किमते किमते शुं निमित्त कहो होजी, साहुणी भांखे रसाल ॥ ६० ॥ ११ ॥
|| ढाल पांचमी ॥
मुख मीठा विरसा पर्छे रे लो, धर्म थकी । सहु अघ गर्छु रे लो। बूझी सभा तब भूपति रे लो; बंधुदेव कहे शुभमती रे लो ॥ २३ ॥ धरम अमें अंगीकरूं रे लो, तुम आणा अमें शिरधरुं रेलो । जिम सुख देवाणुप्रिया रे लो, विलंब न कीजें ए क्रिया रे लो ॥ २४ ॥
ठाई महोत्सव करे रे लो, दान देईनें उद्धरे रे लो । हरिसेन ने राज्यें ठबि रे लो, दीक्षा लीये ज्यू सुरगवी रे लो ॥ २५ ॥ पुरुष चन्द्र सूरिने कर्ने रे लो, । सार्थे प्रधान ने परिजनें रे लो पांची ढाल पद्मे कहीं रे लो, सात मे खंडे प सही रे लो ॥ २६ ॥
उपर के दोनों पाठों में सर्वांगसुन्दरी नामा साध्वीजी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब आकाश से पुष्पों की वर्षा हुई, देवता, विद्याधर आदि केवली साध्वी की सेवा में आये, राजा भी बन्दना करने को आया, सर्वो ने उनकी स्तुति की, उपाश्रय को देव विमान जैसा
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सुशोमित किया, सबने पंचांग नमस्कार किया, और धर्मदेशना सुनने को बैठे, तब केवली साध्वीने 'स्वर्णवर्ण वितर्दिकः' अर्थात्-कनक के वर्ण जैसी देदीप्यमान वेदिका के ऊपर उञ्चासन पर बैठ कर दान शील तप भाव रूप चार प्रकार के धर्म का स्वरूप वाली विस्तार से धर्मदेशना दी, तथा अपने ही पूर्वकृत कर्मों की विचित्रता बतलायी. शुभाशुभ कर्मों का फल और संसार की भसारता दिखलायी, जिसको सुनकर राजा आदि सभा को प्रतिबोध हुआ, उसके बाद राजा ने अपने राज कुमार को राज्यासन पर बैठाकर अठाई महोत्सव पूर्वक मंत्री आदि के साथ श्राचार्य महाराज के पास में दीक्षा ग्रहण की । ___ श्री हरिभद्र सूरिजी महाराज का बनाया हुआ 'प्राकृत समरादित्य केवली चरित्र' जो कि "समराइच कहा" नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन और सर्व मान्य है उसमें उपरोक्त अधिकार आया है, इसके अनुसार संक्षिप्त समरादित्य चरित्र"तथा"रास" बनाया है उसमें साध्वी को केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर देवताओं ने महोत्सव किया, देव विद्याधर राजा आदि मनुष्यों की पर्षदा मिली, साध्वो को सब ने पंचांग नमस्कार किया, देशना सुन कर राजादि ने प्रतिबोध पाकर दीक्षा लेने का खुलासा लिखा है।
इसी प्रकार अन्य सामान्य साध्वियों के विषय में भी पुरुषों की सभा में धर्मोपदेश देने का अधिकार जैन शास्त्र रूपी समुद्र में पाठकों को अनेक जगह देखने को मिल सकेगा। यह ग्रन्थ पूरा पढ़ने का प्रयत्न करें। ___ जब साध्वी के पास धर्म देशना सुनने को देवता और राजादि बड़े पुरुष आते हैं तय विनय धर्म की मर्यादा रखने के लिये और श्रोताओं को अच्छी तरह प्रतिबोध होने के लिये साध्वी को बैठने का उच्चासन होना आवश्यक होजाता है। अतः साध्वी को पाट पर बैठ कर देशना देने में शंका लाने वालों को यह बात दीर्घ दृष्टिले गंभीरता पूर्वक विचार करने योग्य है। और देवताओं के साथ देवी, विद्याधरों के साथ विद्याधरी, राजा आदि मनुष्यों के साथ राणी प्रादि स्त्रियों धार्मिक देशना के अवसर में गुरु वंदनार्थ स्वभाविक साथ में जाती हैं, यह प्रसिद्ध बात है। तथा देशना की सभा में लौकिक व्यवहार और धार्मिक मर्यादा का पूरा विवेक रखा जाता है, अतः सभा में पुरुषों को आगे बैठना और स्त्रियों को पीछे बैठना स्वभाविक ही सिद्ध है। उपरोक्त शास्त्रीय प्रमाण भी यही बात सिद्ध करते हैं। कई महाशय साध्वी के व्याख्यान में स्त्रियों को आगे और पुरुषों को पीछे बैठाने की बात करते हैं उन्होंका समाधान ऊपर के लेख से स्वयं हो जाता है।
निवेदकः
सूरि शिष्य मुनि-विनय सागर
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( ११ )
* प्रस्तावना *
भारतीय संस्कृत के निर्माण और विकास में जैन श्रमण श्रमणियों का सहयोग अमूल्य है । भारत के प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट विदित होता है कि इस वर्ग ने आत्म कल्याण के साथ सांस्कृतिक साहित्य निर्माण करने की बहुमूल्य सहायता प्रदान कर भारत को गौरवन्वित किया है । इस प्रकार का सांस्कृतिक साहित्य प्राचीन संस्कृति का पोषक ही नहीं अपितु नवीन संस्कृति का पथ प्रदर्शक भी है। सच कहा जाय तो प्रत्येक देश के राष्ट्र निम्मा से ऐसे त्यागियों की ही परमावश्यकता है। जहां पर त्याग और विद्वत्ता का समन्वय हो वहां पर तो पूछना ही क्या ?
जैन समाज के कुछ समझदार मुनियों ने आवाज उठाई है कि जैन साध्वियों को सभा में व्याख्यान बांचने का अधिकार नहीं है, क्योंकि इसमें मुनियों का अनादर होता है । मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार मैं कह सकूंगा कि वे लोग प्राचीन साहित्य के तलस्पर्शी अध्ययन और वर्तमान शिक्षा प्रवालिका के सौभाग्य से संभवतः वंचित हैं । प्राचीन जैनागमों में एतद्विषयक जो महत्व पूर्ण उल्लेख आये हैं उन सभी उल्लेखों का प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक ने बढी योग्यता व सफलता के साथ वर्णन किया है, जो लेखक के प्रकांड आगमिक ज्ञान का द्योतक है, इसके अतिरिक्त यह बात व्यवहारिक ज्ञान से भी जानी जा सकती हैं कि प्राचीन काल में ऐसी अनेक साध्वियां हुई हैं जिनमें से बहुतों ने बड़े बड़े मुनियों को संयम से विचलित होते बचाया है, संयम में पुनः स्थिर किये, जैन धर्म के चौबीस तीर्थ करों में स्त्री तीर्थकर भी थीं । उन्होंने जो उपदेश राजकुमारों को प्रतिबोधार्थ दिया था वह कितना महत्वपूर्ण है ( ज्ञाता धर्म कथा ) इसका कितना सुन्दर असर हुआ ।
बाहुबल जी जैसे अभिमानी को उनकी बहन ब्राह्मी सुन्दरी जैसी साध्वी ने पिघला दिया और गर्व छुड़ा दिया । राजीमति जिनका शुभाभिधान प्रातः उठते ही गौरव के साथ लिया जाता है, उन्होंने रथ नेमिको संयम से विचलित होते रोका था, जैसा कि उत्तराध्यनादि सूत्रों से फलित होता है। अतिरिक्त अनेक ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे मालूम होता कि मुनि जीवन की रक्षा के इन साध्वियों ने आत्मों उपदेशों से कितना अभूतपूर्व कार्य किया ।
मध्य कालीन प्राचीन हस्त लिखित साहित्य देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है उसमें मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अनेक ऐसे ग्रन्थ मिले हैं जिनकी लेखिका साध्वियां थीं। सौ से ऊपर प्रशस्तियें मैने एकत्रित की हैं। आज का युग प्रगतिका है, खोज का है, प्रत्येक धर्म राष्ट्र समाज अपने अपने उत्थान के लिये शत प्रयत्न करते हैं। पर ऐसी स्थिति में जैन समाज के एक महत्व पूर्ण अंग की अपेक्षा कैसे की जा सकती है, मुनि लोग तो धर्म प्रचार करते ही हैं पर जहां उनका पहुंचना नहीं होता और बहां पर यदि साध्वीऐं आत्म वाणी से मुमुक्षुओं को उपदेश देकर उनकी जैन धर्म विषयमिक तृष्णा की तृप्ति करें तो क्या बुरा है ?
अपितु एक महत्व के कार्य की पूर्ती होती है, यदि इन साध्वियों की शिक्षा की और यदि समाज विशेष
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(१२)
ध्यान दे तो निस्सन्देह जैन धर्म बहुत जल्दी प्लेटफार्म पर आ सकता है, पर साध्वियों को जैन मुनि क्या समझते हैं यह तो प्रस्तुतः ग्रन्थ का परिशिष्ट ही बतायेगा। आज के समय में ऐसे क्षुद्र वितंडावाद में समय व्यतीत न कर कुछ ठोस कार्य करने की आवश्यकता है।
___ पूज्य गुरु महाराज श्री उपाध्याय १००८ श्री सुखसागरजी महाराज के साथ मध्य प्रांत बरार खान देश में विचरण करने को अवसर मिला है। वहां पर ऐसे नगरों की कमी नहीं जहां पर विशाल जैनों का निवास होते हये भी उन्होंने जैन मुनि के दर्शन नहीं किये हैं। भारत में ऐसे अनेक नगर और प्रान्तों में भी मिल सकते हैं । इतना विशाल मुनि समुदाय के रहते हुए यदि वे लोग जैन धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर रहे हैं तो यह दोष मनियों का ही है। ऐसे स्थानों में साध्वीऐं चली जाय तो उनको प्रतिबोधनार्थ व्याख्यानादि की आवश्यकता रहती है , वहां पर यदि ऐसा न करें तो जैन धर्म की प्रभावना कैसे होगी और वे लोग जैन धर्म को कैसे जानेगें।
आज जैन समाज में २५०० से भी अधिक साध्वी समुदाय है जिसमें कई उच्च श्रेणि की विदुषी व्यख्यान दातृ भी अवश्य हैं । यदि इनके लिये और भी शिक्षा का समुचित प्रबंध किया जाय तो निस्सन्देह वे जैन धर्म के प्रचार के लिये बहुत कुछ कर सकती हैं और एक बड़े अभाव की पूर्ति भी कर सकती हैं। सामाजिक सुधार में महिलाओं के सहयोग की आवश्यकता है, और यह कार्य साध्वीऐं सफलता पूर्वक कर सकती हैं। आज के परिवर्तन शील युग में साध्वी की शक्ति को दबाना अनुचित होगा। इसमें जैन धर्म का ही नुकसान है।
जैन साहित्य में कई ग्रन्थ ऐसे हैं जो साध्विओं की प्रेणणा से निर्माण किये गये हैं। प्राचीन समय में सावित्रओं की शिक्षा का जो प्रबन्ध था, आज कुछ भी नहीं है । श्राज तक यह प्रश्न बना हुआ था ही कि साध्वी जाहिर सभा में व्याख्यान बांचे या नहीं ? पर आचार्य महाराज ने इस प्रश्न को जैन साहित्य के मूल भूत आगम और प्रकीर्णक साहित्य ग्रन्थों की साक्षी से बहुत अच्छी प्रकार न्याय दिया है यद्यपि लेखन शैली की अपेक्षा से समर्थन शैलि अत्यन्त उपयुक्त है।
प्रान्ते में जैन समाज के कर्णधार मुनियों से प्रार्थना करूंगा कि कि वे इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें और अपना मतभेद यदि हो तो ( यद्यपि ऐसे पवित्र कार्य के लिये होना तो नहीं चाहिये ) सभ्य भाषा में व्यक्त करें साथ ही साथ ऐसे प्रश्नों को छोड़ कर जैन धर्मोनति के लिये साध्वियों को उचित शिक्षा दें।
यह ग्रन्थ अपने ढंग से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, स्पष्ट कहा जाय तो प्राचार्य महाराज ने एक बड़े अभाव की पूर्ति कीहै जिसकी जैन समाज प्रतीक्षा करता था।
लेखकमुनि-कांतिसागर
ताः २६-१०.१८४५- रायपुर
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* श्री वीतरागाय नमः *
साध्वी व्याख्यान निर्णय
१-जैन शासन में जिस तरह से तीर्थकर भगवान को और अन्य सामान्य साधुओं को धर्मोपदेश देने का अधिकार है, उसही प्रकार स्त्री तीर्थकरी और अन्य सामान्य साध्वियों को भी भव्य जीवों के हित के लिये धर्मोपदेश देने का समान अधिकार है। इसलिये प्रत्येक बुद्धों से प्रतिशेध पाये हुये जितने सिद्ध होते हैं उससे कहीं अधिक साध्वियों से प्रतिबोध पाये हुये पुरुष संख्यात गुणे अधिक सिद्ध होते हैं, इस विषय का विवरण नन्दीसूत्र की टीकादि सर्व मान्य प्राचीन शास्त्रों में है। खरतरगच्छ तपगच्छ श्रादि सर्व गच्छों के पूर्वाचार्यों को भी यह बात मान्य है, किन्तु वर्तमान कालमें ज्ञानसुन्दरजी ( घेवर मुनिजी) आदि कई महानुभाव साध्वियों को स्त्री-पुरुषों की सभा में धर्मोपदेश देने का निषेध करते हैं, परन्तु प्राचीन किसी भी शास्त्र का प्रमाण नहीं बतलाते हैं। केवल अपनी मान प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए और साध्वी समाज को अपने नीचे दबाये रखने के लिए पुरुष प्रधान धर्म का बहाना लेकर व्याख्यान बांचने वाली साध्वी और सुनने वाले श्रावक समुदाय पर अनेक प्रकार के आक्षेप करते हैं और व्यर्थ कुयुक्तियों से अप्रासंगिक बात बनाकर जैन समाज में मिथ्या भ्रम फैलाते हैं इस लिये आज हम शास्त्रीय प्रमाणानुसार अपने निष्पक्ष दृष्टि से विचार प्रगट करते हैं, जिसे पाठक गण गुणानुगगी होकर इसे संपूर्ण पढ़कर सत्य का ग्रहण करें।
२-जैन श्वेताम्बर समाज में अभी प्रायः सात सौ साधु और दो हजार लगभग साध्वियों का समुदाय होगा। किन्तु साधु समुदाय में प्रभाव शाली व्याख्यान बांचने योग्य सौ साधु निकलने भी कठिन प्रतीत होते हैं और मारवाड़ दक्षिण मालवा आदि प्रान्तों में व्याख्यान योग्य प्रभाविक साधुओं का विहार मी कम होता है। जिससे प्रति दिन श्वेताम्बर जैन समाज का धार्मिक ह्रास हो रहा है। ऐसी दशा में विदुषी साध्वियां ग्राम नगरों में विहार करती हुई और वर्षा काल में (चौमासा में ) ठहरती हुई, श्रावकश्राविकाओं के समुदाय में धर्मोपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवो को धर्म मार्ग में प्रवृति कराती हुई तथा व्रत पञ्चक्खाणादि धर्म कार्यों से समाज का हित करती हुई शासन की सेवा करें तो कितना बड़ा महान् लाभ हो सकता है, इस प्रकार के धार्मिक कार्यों में बाधा पहुँचा कर समाज और धर्म को हानी पहुँचाने के लिये साध्वियों को व्याख्यान वांचने का निषेध करना उचित नहीं हैं।
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सावी व्याख्यान निर्णयः
३-जैन शासन में अनादि काल से जिनमूर्ति को शाक्षात ही जिनेश्वर भगवान के तुल्य मान कर वंदन पूजन करने का अखंड प्रवाह चला आता है, वर्तमान समय में जैन श्वेताम्बर समाज के सभी गच्छों में तथा दिगम्बर समाज में भी यही मान्यता चली आ रही है। तिसपर मी अभी कुछ काल से स्थानकवासी साधुओं ने जिनमूर्ति का वंदन पूजन करने का निषेध करके प्रपंच फैला दिया है तथा स्थानकवासी साध्वियां गांव गांव फिर कर श्रावक-श्राविकाओं की समुदाय में व्याख्यान बांचकर अनेक प्रकार की कुयुक्तियों द्वारा भोले जीवों को भ्रान्ति में डालकर हजारो मनुष्यों को मुंह बांधने वाले अपने भक्त बनालिये हैं तथा भगवान की भक्ति के विरोध में खडे कर दिये हैं। जिससे जैन श्वेताम्बर समाज को बड़ी हानी पहुंची है, ऐसी अवस्था में अपना साध्वी समुदाय शासन हित की बुद्धि से गांव गांव में विहार करके वहां के लोगों को धर्मोपदेश द्वारा उनके मिथ्यात्व का निवारण करके सन्मार्ग में लाती रहें और, भगवान की पूजा भक्ति के अनुरागी बनाती रहें इस प्रकार मारवाड़, मालवा आदि प्रदेशों में पढ़ी लिखी विदुषी साध्वियों के व्याख्यान से बड़े बड़े लाभ हुए है। वैसे लाभ सामान्य साधुओं के व्याख्यान से होने कठिन है।
ऐसे प्रत्यक्ष लाभ के कारण का विचार किये बिना अपने हठाग्रह की बात पकड़ कर स्त्री-पुरुषों के समुदाय में साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध करने वाले महाशय जैन समुदाय को बड़ी हानि पहुँचाने का कार्य करते हैं और अनेक भव्यजीवों के धर्म कार्य में अन्तराय डालते हैं।
अब हम यहां पर शास्त्रों के प्रमाण बतलाते हैं।
४-भावनगर आत्मानन्द जैन सभा की । (फ से नियुक्ति लघु भाष्यवृत्ति सहित छपा हुआ-"बृहत् कल्पसूत्र" के चतुर्थ भाग में पृष्ठ १२३३ में ऐसा पाठ है
नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अंतरगिहंसि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किहित्तए वा पवेइत्तए वा नऽन्नत्थ एगणाएण वा एग वागरणेण वा एग गाहाए वा एग सिलोएण वा सेविय ठिच्चा नो चेवणं आठिचा ।। २० ॥
अस्य सम्बन्धमाहअइप्पसत्तो खलु एस अत्थो, जं रोगिमादीक णता अणुण्णा ॥ अण्णो वि मा भिक्खगतो करिजा, गाहोवदेसादि अतोतु मुत्तं ॥ ४५६६ ॥
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः अतिप्रसक्तः खल्वेषोऽर्थः यदनन्तरसूत्रे रोगिप्रभृतीनामन्तरगृहे स्थानादीनामनुज्ञा कृता । एवं हि तत्र स्थानादिपदानि कुर्वन् । कश्चिद् धर्मकथामपि कुर्वीत, ततश्चातिप्रसङ्गो भवति । अतोऽन्योऽपि भैक्षगतो मा गायोपदेशादिकं कार्षीदितीदं सूत्रमारभ्यते ॥ ४५६६ ॥
अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्गन्थीनां वा अन्तरगृहे यावत् चतुर्गाथं वा पञ्चगाथं वा आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वां । एतदेवापवदन्नाह-"नऽन्नथ" इत्यादि "न कल्पते” इति योऽयं निषेधः स एकज्ञाताद्वा एकव्याकरणाद्वा एकगाथाया वा एकश्लोकाद्वा अन्यत्र मन्तव्यः सूत्रे च पंचम्याः स्थाने तृतीयानिर्देशः प्राकृतत्वात् । तदपि च एकज्ञातादि व्याख्यानं स्थित्वा कर्त्तव्यम् । नैव 'अस्थित्वा' भिक्षां पर्यटतोपविष्टेन वा इति सूत्रार्थः॥
ऊपर के पाठ का भावार्थ इस प्रकार है-विहार करके आये हुए साधु-साध्वी दूसरे उपाश्रय के अभाव में अथवा रोगादि कारण से किसी अन्तरगृह में, यानी-गृहस्थों के घरों के बीच में ठहरे हों अथवा गोचरी आदि के निमित्त गये हों। तब उन से कोई गृहस्थ धर्म का स्वरूप पूछे तथा अन्य किसी कारण वश वहां पर उन्हें धर्म कथा कहनी पडे वा धर्मोपदेश देना पडे तो साधुओं को अथवा साध्वियों को यावत् चार पांच गाथाओं का अर्थ करके आख्यान करना, विभावन करना, कीर्तन करना और प्रवेदन करना नहीं कल्पता है। किन्तु छोटासा एक दृष्टान्त देकर, एक प्रश्न का उत्तर देकर एक गाथा का वा एक श्लोक का अर्थ कह कर संक्षेप में धर्मोपदेश कहना कल्पता है। वह भी खडे खडे कहना कल्पता है।
जिस पर मी गृहस्थों के घरों में बैठ कर विस्तार से धर्मोपदेश देने वाले को अनेक दोषों का प्रसंग बताया है । इस विषय में लघु भाष्य का गाथाओं का विवरण करते हुये टीकाकार महाराज ने बहुत खुलासा लिखा है। छपा हुआ बृहत्कल्प सूत्र भाग चौथा पृष्ठ १२३४ से १२३९ तक ५ ठकगण देख सकते हैं।
५-और भी छपे हुये पृष्ठ १२३९ में इस विषय का दूसरा पाठ इस प्रकार है।
नो कप्पति मिग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि इमाई पंच महव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किहित्तए वा
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
पवेयत्तए वा, नऽन्नत्थ एगनाएण वा जाव सिलोएण वा, से विय ठिच्चा नो चेव णं अठिच्चा ॥ २१ ॥ ___ अस्य व्याख्या प्राक्सूत्रवद् द्रष्टव्या। न वरं "इमानि" स्वयमनुभूयमानानि पञ्चमहाव्रतानि "सभावनानि " प्रतिव्रतं भावनापञ्चकयुक्तान्याख्यातुं वा विभावायतुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा न कल्पन्ते । आख्यान नाम साधूनां पञ्चमहाव्रतानि पञ्चविंशतिभावनायुक्तानि षट्कायरक्षणसाराणि भवन्ति । विभावनं तु-प्राणातिपाताद् विरमणं यावत् परिग्रहाद् विरमणमिति । भावनास्तु-"इरियासपिए सयाजए " (आव० प्रति० संग्र० पत्र ६५८-२ इत्यादि) गाथोक्तस्वरूपाः । षटकायास्तु पृथिव्यादयः । कीर्तनं नाम-या प्रथमत्रतरूपा अहिंसा सा भगवती सदेवमनुजाऽसुरस्य लोकस्य पूज्या द्वीपः त्राणं शरणं गतिः प्रतिष्ठेत्यादि, एवं सर्वेषामपि प्रश्नव्याकरणङ्गोक्तान्- (संवराध्ययनानि ५ तः १०) गुणान् कीर्तयति । प्रवेदनं तु महाव्रतानुपालनात् स्वर्गोऽपवर्गो वा प्राप्यत इति सूत्रार्थः ॥
अर्थ-इसका अर्थ भी इस ही प्रकार है कि-साधु साध्वियों को गृहान्तर में पच्चीस भावना सहित पांच व्रतोंका विस्तार पूर्वक वर्णन करना-पाख्यान-विभावन कीर्तन और प्रवेदन करना नहीं कल्पता है। परन्तु पहिले के पाठ में स्पष्ट रूप से बताया है कि एक दृष्टान्त यावत् एक श्लोक का अर्थ खड़े खड़े संक्षेप में कद्दन। कल्पता है। किन्तु बैठ कर नहीं कल्पता है । १-साधु के पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का स्वरूप, छः काय जीवों की रक्षा का स्वरूप वर्णन करना सो आख्यान कहा जाता है २-प्राणातिपात से विरमण यावत परिग्रह से विरमण त्याग करने का, इरियासमिति आदि का यत्न करने का और पृथ्वीकाय आदि त्रस स्थावर की रक्षा करने का उपदेश देना विभावन कहा जाता है। प्रथम महाव्रत अहिंसा भगवती देव, मनुष्य, असुर आदि तमाम लोक की पूज्यनीया है। तथा द्वीप समान शरण देने वाली रक्षण करने वाली है। और उत्तम गति देने वाली है। अहिंसा में ही सर्व धर्म प्रतिष्ठित हैं सर्व धर्मों में अहिंसा ही मूल रूप से व्यापक है।
एवं प्रश्न व्याकरण सूत्र के पांच से दश अध्ययन तक संघर अध्ययन आदि से गुण वर्णन करना अहिंसा की महिमा बतलाना ये कीर्तन कहलाता है।
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
४-महावतों के शुद्ध पालन करने से देवलोक अथवा मुक्ति की प्राप्ति होती है इत्यादि वर्णन करना प्रवेदन कहलाता है। इसमें आख्यान १, विभावन २, कीर्तन ३, प्रवेदन ४ इन चारों का भावार्थ एकसा ही है।
५-इस प्रकार ऊपर के दोनों पाठों में साधु साध्वियों को गृहस्थों के घरों में विस्तार से धर्मोपदेश देने की आज्ञा दी नहीं अपितु निषेध है । परन्तु कारणवश संक्षेप में धर्मोपदेश देने की आशा भी दी है। इससे अपने ठहरने के उपाश्रय, धर्मशाला आदि में विस्तार से धर्मोपदेश देने की आज्ञा हो ही चुकी है। ___इस सूत्र पाठ में धर्मोपदेश देने के लिये साधु और साध्वी दोनों को समान रूप से अधिकारी बतलाया है। इसलिये साधुओं की तरह साध्वी भी धर्मोदेश कर सकती हैं । जिस प्रकार गृहस्थों के घरो में स्त्री-पुरुष दोनों साथ में धर्मदेशना सुन सकते हैं। उसही प्रकार उपाश्रय, धर्मशाला आदि में भी दोनो एक साथ बैठ कर धर्मोपदेश सुन सकते हैं।स में कोई प्रकार का दोष नहीं प्रासकता।
६-ऊपर के दोनों पाठों का विवेचन घेवरमुनिजी (ज्ञानसुन्दरजी) अपने बनाये शीघ्रबोध नामक पुस्तक भाग १९ वाँ रत्नप्रभाकरज्ञानपुष्पमाला फलोदी से प्रकाशित (बारह-सूत्रों का भाषान्तर) में बृहत्कल्प सूत्र का सार लिखकर छपे हुये पृष्ठ ३० में इस प्रकार लिखा है। __"(२२) साधु साध्वियों को गृहस्थ के घर में जाकर चार पांच गाथ (गाथा) विस्तार सहित कहना नहीं कल्पे । अगर कारण हो तो संक्षेप से एक गाथा, एक प्रश्न का उत्तर, एक वागरणा (संक्षेपार्थ) कहेना, सोभी ऊभा रहके कहेना परन्तु गृहस्थों के घर पर बैठ के नहीं कहना । कारण मुनीधर्म है सो निःस्पृही है। अगर एक के घर पै धर्म सुनाया जाये तो दूसरे के वहां जाना पड़ेगा, नहीं जावे तो राग द्वेषकी वृद्धि होगी। वास्ते अपने स्थान पर आये हुवे को यथा समय धर्म देशना देनी ही कल्पै"।
(२३) “एवं पांच महाव्रत पञ्चीस भावना संयुक्त विस्तार से नहीं कहना अगर कारण हो तो पूर्ववत एक गाथा वा एक वागरण कहना सोभी खड़े खड़े।'
ऊपर के लेख में साधु साध्वियों को गृहस्थों के घरों में विस्तार के साथ धर्मोपदेश देना नहीं कल्पता है, परन्तु कारण वश संक्षेप में उपदेश देना कल्पता है और अपने स्थान पर उपाश्रय में आये हुये भव्य जीवों को धर्म उपदेश देना कल्पता है, इसमें साधु साध्वियों को धर्मदेशना देने का समान अधिकार ज्ञानसुन्दरजी खुद लिखते हैं। जिस पर भी अब साध्वियों को धर्म देशना देने का निषेध करते हैं यह उनका प्रत्यक्ष मिथ्या हठाग्रह है।
७-जयपुर के जैन श्वेतांबर संघ की जैन धर्मशाला के ज्ञान भण्डार में सम्वत् १६१९ आसोज वदी ७ दिने लिखी हुई एवं तपगच्छीय श्री देवेंद्रसूरिजी महाराज विरचित
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
सिद्ध पंचाशिकावचूर्णि ग्रन्थ में प्रथम पेज पर ऐसा पाठ है।
“बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्धानां दशकं एकसमयेन सिध्यन्ति । बुद्धयोधितानां पुरुषाणामष्टशतं । बुद्धबोधितानां स्त्रीणां विंशतिः । नपुंसकानां दशकं । बुद्धिभिर्कोधितानां स्त्रीणां विंशतिः एक समयेन सिध्यन्ति । बुद्धिभिर्बोधितानामेव सामान्यतः पुरुषादीनां विंशतिपृथक्त्वं । बुद्धी च मल्लिस्वामी प्रभृतिका तीर्थकरी सामान्यसाळ्यादिका चा" । ___अर्थ-बुद्धद्वार में प्रत्येक बुख मुनियों से प्रतिबोध पाए हुए दस जीव एक समय में सिद्ध होते हैं । बुद्धबोधित साधुओं से प्रतिबोध पाये हुए १०८ पुरुष एक समय में सिद्ध होते हैं । बुद्धबोधितों से प्रतिबोध पाई हुई २० स्त्रियां एक समय में सिद्ध होती हैं। इसी प्रकार दस नपुंसक भी सिद्ध पद पाते हैं । बुद्धिभिः-अर्थात्-साध्वियों से प्रतिबोध पाई हुई बीस स्त्रियां एक समय में सिद्ध होती हैं तथा साध्वियों से प्रतिबोध पाये हुए बीस से अधिक पुरुष एक समय में सिद्ध होते हैं । यहां बुद्धि शब्द में मल्लि आदि स्त्री तीर्थकरी और अन्य सामान्य साध्वियों से प्रतिबोध पाये हुए जीव सिद्ध होते हैं।
"श्री नन्दीसूत्र की टीका जो कि आगमोदय समिति से प्रकाशित हुई है पृष्ठ ११९ में ऐसा पाठ है:
___ "बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्धानां दशकं, बुद्धपोधितानां पुरुषाणामष्टशतं, बुद्धबोधितानां स्त्रीणां विंशतिः, नपुंसकानां दशकं, बुद्धीभिर्बोधितानां स्त्रीणां विंशतिः, बुद्धीभिर्बोधितानामेव सामान्यतः पुरुषादीनां विंशतिपृथक्त्वं । उक्तं च सिद्धप्रामृत टीकायां "बुद्धीहि चेव षोहियाणां पुरिसाईणं सामनेण बीसपुहुत्तं सिज्झइ ति।" बुद्धी च मल्लिस्वामिनीप्रभृतिका तीर्थकरी सामान्यसाध्व्यादिका वा वेदितव्या । यतः सिद्धप्राभृतटीकायामेवाक्तबुद्धीओवि मल्लिपमुहाओ अन्नाओ य सामन्नसाहुणीपमुहाओ बोहंतित्ति।"
___ अर्थ-नन्दीसूत्र के इस पाठ से सिद्ध होता है कि प्रत्येक बुद्धों के उपदेश से प्रतिबोध पाये हए एक समय में दस जीव सिद्ध होते हैं । बुद्धबोधितों से उपदेश पाये हुए एक सो आठ पुरुष, बीस त्रियां और दस नपुंसक सिद्ध होते हैं उस ही प्रकार साध्वियों से प्रतिबोध पाई हुई बीस त्रियां सिद्ध होती है तथा पुरुष आदि बीस से अधिक सिद्ध होते हैं । बुद्धि अर्थात्-साध्वियों में श्री मल्लीनाथ स्वामी आदि स्त्री तीर्थकरी तथा अन्य सामान्य साध्वियों का ग्रहण किया गया है।
९-सिद्ध प्राभृत ग्रंथ में जो कि सम्वत् १९७७ में आत्मानन्द सभा भावनगर से
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
प्रकाशित हुआ है पृष्ठ ९-१० में ऐसा पाठ है
" पत्तेय सयंबुद्धा बुद्धे, य बोहिया मुणेयव्वा । एय सयंसंबुद्धा, बुद्धीहिय बोहिया दोणि ॥ ३५ ॥ दारं "पत्तेय" गाहा-पत्तेयबुध्धा एक्के १ 'सयं(बुध्धा) बुद्धेहिं बोहिया, स्वयमात्मना स्वतः परतो वा बुद्धा | स्वयंबुद्धबुध्धास्तैर्बोधिता द्वितीओ वियप्पो || २ || एवं सयंबुध्धा ततिओ ॥ ३ ॥ बुध्धीहि वियपिया दोण्णि विगप्पा - बुध्धीहिं इत्थीहिं बोहियाओ मस्सित्थओ || ४ || बुध्धीहि य बोहिया मणुस्सा केवला मिस्सा वा ॥ ५ ॥ एवं पञ्चभेदा इति गाथार्थः ।। ३५ ।।
I
अर्थः- इस पाठ में प्रत्येक बुद्ध तथा बुद्धबोधित और स्वयंबुद्ध इन तीनों का एक एक मेद बतलाया है । और बुद्धि अर्थात् साध्वियों के उपदेश से प्रतिबोध पाये हुए सिद्धों के दो भेद बतलाये हैं । साध्वियों से प्रतिबोध पाई हुई केवल मनुष्य स्त्रियां और स्त्री-पुरुष दोनों सामिल मिले हुए मिश्र । इस प्रकार साध्वियों से विशेषतः प्रतिबोध पाये हुए स्त्री पुरुष दोनों प्रकार के सिद्ध होते हैं ।
१०- फिर भी सिद्ध प्राभृत की पृष्ठ १३ पहली पुठी पर ऐसा पाठ है
"बुद्धीहिं य बोहिया दोण्णि विगप्पा" तदाह- बुद्धीहिं बोहियाणं बीसा पुण होई एकसमएणं । बुद्धीहिं बोहियाणं बीसपुहुत्तं तु सिद्धाणं ॥ ५४ ॥ दारं ॥ “ बुद्धीहिं बोहियाणं " गाहा - बुद्धीहिं बोहियाणं बीसा | तथा बुद्धीहिं चेव बोहियाणं पुरिसाईणं सामण्णेणं वीस पुहुत्तं सिज्झति । जओ बुद्धीओ सयंबुद्धीओ मल्लिपमुहाओ अण्णाओ य सामण्णसाहुणीपमुहाओ बोर्हिति ओ जहवि चिरन्तण टीकाकारेण सव्वत्थ एयं ण लिहियं । तथाऽप्यवगम्यत इति गाथार्थः ।। ५४ ।।
अर्थ - बुद्धि अर्थात् साध्वियों के प्रतिबोध दिये हुए एक समय में बीस पुरुष सिद्ध होते हैं । तथा साध्वियों के प्रतिबोध दिये हुये पुरुष आदि शब्द से पुरुष और स्त्री दोनों का ग्रहण करना चाहिये । यह सामान्य से बीस प्रथक्त्व सिद्ध होते हैं, इस प्रकार स्वयं बुद्धि श्रीमल्लिनाथ स्वामी आदि स्त्री तीर्थंकरी और अन्य सामान्य साध्वियों से प्रतिबोध पाये हुए सिद्ध होते हैं ।
देखिये – तपगच्छीय श्री क्षेमकीर्तिसूरिजी विरचित " 'बृहत्कल्प वृत्ति" तथा पूर्वघर आचार्य का बनाया हुआ “सिद्धप्राभृत” तथा तप गच्छ के श्री देवेन्द्रसुरिजी महाराज
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
की बनाई हुई "सिद्धपंचाशिकावचूर्णि" एवं श्रीमलय गिरिजी रचित "नन्दी सूत्र की टीका" आदि के प्राचीन पाठ जो कि ऊपर लिख दिये गये हैं उनसे स्पष्ट प्रकट है कि साधुओं के उपदेश से प्रतिबोध पाये हुए जीव जिस प्रकार सिद्ध होते हैं, उस ही प्रकार बुद्धि अर्थात्साध्वियों के उपदेश से प्रतिबोध पाये पुरुषादि भी सिद्ध होते हैं, इससे साध्वियों को भी साधुओं की तरह श्रोताओं के सामने धर्म देशना देने का अधिकार सिद्ध है।
११-यहां पर कई महाशय ऐसी भी शंका कर बैठेंगे कि "सिद्ध प्राभृत" आदि उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार साध्वियों को धर्मोपदेश देना कहा गया है। इससे सामान्यतया पुरुषों के आगे व्यक्तिगत रूप से धर्मोपदेश देने का सिद्ध हो सकता है। परन्तु स्त्री-पुरुषों की सभा में व्याख्यान रूप में धर्मदेशना देने का सिद्ध नहीं हो सकता । ऐसा कथन भी अनसमझ का ही प्रतीत होता है। क्योंकि देखिये
"बुद्धिओ सयंबुद्धिओ मल्लिपमुहाओ अण्णाओ य सामण्ण साहुणीपमुहाओ बोहिंति ॥"
सिद्धप्राभूत के इस पाठ में जैसे श्री मल्ली तीर्थकरी के लिए उपदेश देना लिखा है वैसे ही अन्य सामान्य साध्वियों के लिए भी उपदेश देने का लिखा है। इसलिए जिस तरह स्त्री पुरुष आदि की परिषदा में (सभा में) स्त्री तीर्थकरी मल्ली आदि के लिए व्याख्यान रूप धर्मदेशना देना ठहरता है, इसही प्रकार सामान्य साध्वियों के लिए भी स्त्री-पुरुषों आदि की सभा में व्याख्यान रूप में धर्मदेशना देने का सिद्ध होता है। इसलिए सामान्य धर्मोपदेश कह कर स्त्री-पुरुषों आदि की सभा में व्याख्यान देने का निषेध नहीं कर सकते । मल्लीनाथ स्वामी आदि स्त्री तीर्थकरी के समान ही सामान्य साध्वियों के लिए धर्मोपदेश देने का समान अधिकार बतलाया है इस बात को समझने वाले सामान्य देशना के बहाने साध्वियों के लिए सभा में व्याख्यान देने का कभी निषेध नहीं कर सकते।
अब साध्वियों के व्याख्यान के लिए और भी प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
१२-इस ही तरह "श्री सेनप्रश्न" ग्रन्थ जो कि श्री देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था की तरफ से प्रकाशित हुआ है उसके पृष्ठ ७४ की पहिली पुट्ठी में ऐसा पाठ है। - “ तथा- नन्दीवृत्तौ ५३ पत्रे 'खित्तोगाहाण' गाथाविचारे बुद्धद्वारे सर्वस्तोकाः स्वयम्बुद्धमिद्धास्तेभ्योऽपि प्रत्येकबुद्धसिद्धाः संख्येयगुणास्तेभ्योऽपि बुद्धिबोधितसिद्धाः संख्येयगुणास्तत्कथं ? यतो बुद्धिबोधितानां केवल श्राद्धसभाग्रे व्याख्यानस्य दशवैकालिकवुरयादौ निषेधदर्शनादिति।
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
प्रश्नोत्तरं - बुद्धिशब्देन तीर्थकर्यः सामान्य साध्व्यञ्चोच्यन्ते, तत्र तीर्थकरीणामुपदेशे विचार एव नास्ति, सामान्य साध्वीनां तु यद्यपि केवलश्राद्धानां पुरस्तादुपदेशनिषेधः तथापि श्राद्धमिश्रितानां कारणे केवलानां च पुरस्तादुपदेशः सम्भवत्यपीति न काव्यनुपपत्तिरिति ॥
इस पाठ का भावार्थ ऐसा है कि-बुद्धद्वार में सब से कम स्वयम्बुध ( तीर्थकर ) सिद्ध होते हैं। उनसे प्रत्येकबुद्ध नमि आदि संख्यात गुणे अधिक सिद्ध होते हैं, उनसे भी बुद्धबोध ( गुरु के उपदेश से ) संख्यात गुणे अधिक सिद्ध होते हैं । उन्होंसे भी बुद्धि बोधित अर्थात् - साध्वियों के उपदेश से प्रति पाये हुए संख्यातगुणे अधिक सिद्ध होते हैं। अब यहाँ पर यह शंका पैदा होती है कि-साध्वियों के उपदेश से प्रतिबोध पाये हुए पुरुष आदि अधिक सिद्ध होते हैं । तब साध्वियों को तो अकेले पुरुषों की सभा में धर्मोपदेशका व्याख्यान देने का " दशवैकालिक टीका" में निषेध किया है । इस शंका का समाधान श्री विजय सेनसूरिजी महाराज इस प्रकार करते हैं- बुद्धि शब्द से स्त्री तीर्थकरी तथा सामान्य साध्वी दोनों का ग्रहण होता है । स्त्रीतीर्थकरी के उपदेश की बाबत तो कोई शंका की बात ही नहीं है । परन्तु सामान्य साध्वियों के लिए यद्यपि केवल श्रावकों की सभा के सामने उपदेश देना मना है परन्तु श्रावक-श्राविकाओं की मिश्र सभा में उपदेश देसकती हैं और कारण वश अकेले पुरुषों की सभा में भी उपदेश देने का संभव शब्द से स्वीकार किया है इसमें कोई भी बाधा नहीं है ।
१३- देखिये - ऊपर के पाठ में साध्वियों के उपदेश से अधिक सिद्ध होने का कहा है । साध्वियाँ स्त्री-पुरुष दोनों को या कारण वश अकेले पुरुषों को भी उपदेश देसकती हैं, अनादि काल से सिद्ध होते आये हैं । महाविदेह क्षेत्रों में वर्तमान में सिद्ध होते हैं और आगे भी सिद्ध होते रहेगें । इससे साध्वियों भी अनादि काल से भव्य जीवों को स्त्री-पुरुष आदि को धर्मोपदेश देती आई हैं तथा वर्तमान में भी धर्मोपदेश देती हैं और आगे भी धर्मोपदेश देती रहेंगी, ऊपर के पाठ से यह नियम अनादि सिद्ध होता है ।
ऊपर के पाठ में साध्वियों के लिए सभा में व्याख्यान बांचने का स्पष्ट उल्लेख है इस लिए व्यक्तिगत सामान्य उपदेश देने का कहकर सभा में व्याख्यान बांचने का निषेध नहीं कर सकते । परन्तु अकेले श्रावकों की सभा में व्याख्यान करना निषेध किया, और श्रावकश्राविकाओं की सभा में व्याख्यान देने का बतलाया है । इसलिए वर्तमानिक जो महाशय साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेध करते हैं उन्होंको अपनी भूल सुधारकर साध्वियों के प्रति व्याख्यान बांचने की सत्य बात स्वीकार करनी चाहिये ।
१४ - श्री कीर्तिविजयगणि संग्रहीत श्री हीरविजयसूरिजी महाराज का "हीर प्रश्नोत्तराणि" नामक ग्रन्थ - जो कि शा० चंदुलाल जमनादास छाणी (गुजरात ) से प्रकाशित
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
हुआ है, उसके पृष्ठ ३३ में तेरहवां प्रश्न इस प्रकार है:
प्रश्नः-साध्वीश्राद्धानामग्रे व्याख्यानं न करोतीत्यक्षराणि कुत्र ग्रन्थे सन्तीति ॥ १३ ॥
उत्तरम्:--अत्र दशवैकालिकवृत्तिप्रमुखग्रन्थमध्ये यतिः केवरश्राद्धीसभाऽग्रे व्याख्यानं न करोति, रागहेतुत्वादित्युक्तमस्ति । एतदनुसारेण साध्व्यपि केवलश्राद्धसभाऽग्रे व्याख्यानं न करोति रागहेतुत्वादिति ज्ञायते ।
देखिये-ऊपर के पाठ में श्रीहीरविजयसूरिजी महाराज को पंडित बेलर्षिगणि ने प्रश्न पूछा कि साध्वी श्रावकों की सभा में व्याख्यान न बाँचे ऐसा पाठ कौन शास्त्र में है ? इसके उत्तर में सूरिजी महाराज श्रावकों की सभा में साध्वी व्याख्यान न वाँचे, ऐसा निषेधात्मक प्रमाण किसी भी ग्रन्थ का न बतला सके और व्याख्यान के निषेध की कोई युक्ति भी न बतलाई तथा साध्वी के व्याख्यान बाँचने में कोई दोष भी न बतलाया । इस तरह किसी भी प्रकार से युक्ति और शास्त्र प्रमाण से साध्वी के व्याख्यान बाँचने का निषेध नहीं किया। इससे “अनिषिद्धं अनुमतं" के न्यायानुसार जिस विषय की चर्चा चले उस बात का निषेध न करने पर वह बात मान्य होजाती है। इस प्रकार जब उक्त सूरिजी महाराज से प्रश्न पूछा गया तब सूरिजी महाराज ने साध्वी व्याख्यान का निषेध नहीं किया । इससे साबित होता है कि सूरिजी महाराज को साध्वी के व्याख्यान बाँचने का सिद्धान्त मान्य था।
___ अब यहां विचार करना चाहिये कि- जो महाशय उन महाराज को अपने गच्छ के प्रभावक गीतार्थ पूज्यनीय पुरुष मानते हैं, और उनकी मानी हुई बात को निषेध करते हैं, यह कैसा न्याय है। जब ऐसे प्रसिद्ध पुरुष ने भी साध्वी के व्याख्यान का किसी भी ग्रन्थ के प्रमाणानुसार निषेध नहीं किया तब आधुनिक महाशय बिना किसी शास्त्र का प्रमाण बतलाये हुए सिर्फ अपनी अपनी मति से निषेध करते हैं सो कभी मान्य नहीं होसकता।
और भी देखिये-उपर के पाठ में साधु को राग का हेतु होने से अकेली स्त्रियों की सभा में दशवैकालिक वृत्ति के प्रमाण से व्याख्यान बांचने का निषेध किया, इसी तरह राग का हेतु होने से साध्वी को भी अकेले पुरुषों की सभा में व्याख्यान बांचने का निषेध किया। इससे श्रावक-श्राविकाओं की सम्मिलित सभा में साधु एवं साध्वी को व्याख्यान बांचने की आज्ञा हो ही चुकी । फिर भी जो महाशय साध्वी को श्रावक-श्राविकाओं की सभा में व्याख्यान बांचने का निषेध करते हैं, उन्हें अपनी भूल को सुधारना चाहिए।
१५-श्री हीरविजयसूरिजी के संतानीय श्री विजयविमलगणीजी की बनाई हुई "गच्छाचार पयन्ना की" बडी टीका में जो कि- दयाविमलजी ग्रन्थमाला की तरफ से अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है उसके पृष्ठ १३८-१३९ पर ऐसा पाठ हैः-गाथाः --
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
बुड्डाणं तरुणाणं रत्ति अजा कहेइ जो धम्मं । सा गणिणी गुणसायर! पडिणीआ होइ गच्छस्स ॥ ११६ ॥
व्याख्या-" बुड्डाणं "-वृद्धानां स्थविराणां-तरुणानां-यूनां-पुरुषाणां केवलानामकेवलानां वा " रत्तिं " ति " सप्तम्या द्वितीया " (८-३-१३७) इति प्राकृतसूत्रण सप्तमीस्थाने द्वितीयाविधानात् रात्री या आर्या गणिनी "धम्म” ति धर्मकथां कथयति, उपलक्षणत्वादिवसेऽपि या कवलपुरुषाणां धर्मकथां कथयति, गुणसागर ! हे इन्द्रभूते ! सा गणिना गच्छस्य प्रत्यनीका भवत्ति, अत्र च गणिनी ग्रहणेन शेषमाध्वीनामपि तथा विधाने प्रत्यनीकत्वमवसेयमिति । ननु कथं साध्व्यः केवल पुरुषाणामग्रे धर्मकथां न कथयन्ति ? उच्यते-यथा साधवः केवलानां स्त्रीणां धर्मकथां न कथयन्ति, तथा साध्व्योऽपि केवलानां पुरुषाणामग्रे धर्मकथां न कथयन्ति, यत उक्तं श्री उत्तराध्ययने:
"नो इत्थिणं कहं कहित्ता हवइ स निग्गंथे । तं कहमिति ? आयरियाहनिग्गंथस्स खलु इत्थाणं कहं कहेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छावा समुप्पज्जेज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं भवेज्जा, केवालपन्नताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु निगंथे नो इत्थीणं कहं कहेज्ज" त्ति नो " इत्थीणं" ति-नो स्त्रीणां एकाकिनीनां कथां कथायिता भवति । यथदं दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानमध्ये द्वितीयं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं साधुनामुक्तम्, तथा साध्वीनामप्येतत् युज्यते, तच्च साध्वीनां पुरुषाणामेव केवलानां कथाया अकथने भवतीति तथा "स्थानाङ्गेऽपि" "नो इत्थीणं कहं कहेत्ता हवह इदं नव ब्रह्मचर्यगुप्तीनां मध्ये द्वितीयगुप्तिसूत्रं, अस्य वृत्ति:-"नो स्त्रीणां केवलानामिति गम्यत । धर्मदशनादिलक्षणवाक्यप्रतिबंधरूपामित्यादि यथा च द्वितीयों गुप्तिं साधवः पालयन्ति, तथा साध्व्योऽपि पालयन्ति सा च रवीनां पुरुषाणामेव कवलानामग्रे कथाया अकथने भवतीत्यतः प्रोच्यते,
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
न केवल पुरुषाणां माध्व्यो धर्मकथा कथयन्तीति । गायाछन्दः ।। ११६ ॥
अर्थः-वृद्ध हो या जवान हो केवल पुरुषों के सामने दिन में अथवा रात्रि में गणिनी अर्थात्- वृद्ध साध्वी धर्म कथा कहे- धर्म उपदेश देवे तो वह साध्वी गच्छ की प्रत्यनीक (विरोधक) होती हैं। यहाँ पर गणिनी कहने से अन्य सामान्य साध्वियों का ग्रहण कर लेना चाहिये । अर्थात्-कोई भी साध्वी केवल अकेले पुरुषों की सभा में धर्मकथा अर्थात्-व्याख्यान नहीं बाँच सकती, परन्तु स्त्री-पुरुष दोनों की सभा में व्याख्यान बाँच सकता है। जिस प्रकार साधु को केवल स्त्रियों के सामने धर्मकथा कहने का निषेध है उसी प्रकार केवल पुरुषों की सभा में साध्वियों को भी धर्मकथा कहने का निषेध है। श्री " उत्तराध्ययन" सूत्र के ब्रह्मचर्य समाधिस्थान अध्ययन के एवं स्थानाङ्ग सूत्र के पाठ के प्रमाण से भी यही बात सिद्ध की गई है कि- जो साधु होता है वह स्त्रियों में धर्मकथा न करे अगर करे तो उसके ब्रह्मचर्य की हानि होती है। उसी प्रकार साध्वी भी पुरुषों की सभा में धर्मकथा न करे, यदि करे तो उसके भी ब्रह्मचर्य की हानि होवे । संयम धर्म में ब्रह्मचर्य की रक्षा साधु-साध्वी दोनों को समान रूप से करना आवश्यक है। इसलिए साधु केवल स्त्रियों का और साध्वी केवल पुरुषों का परिचय न करें । परन्तु धर्म-देशना स्त्री-पुरुष दोनों की सभा में दोनों ही दे सकते हैं।
१६-श्री विजयसेनसूरिजी का सेनप्रश्नः- श्री हीरविजयसूरिजी महाराज का "हीरप्रश्न" एवं विजयविमलगणिजी की बनाई हुई "गच्छाचार पयन्ना" की टीका के प्रमाणानुसार साधु अकेली स्त्रियों की सभा में व्याख्यान नहीं बाँच सकता, उसी प्रकार साध्वी भी अकेले पुरुषों की सभा में व्याख्यान नहीं बाँच सकती, परन्तु जिस तरह स्त्री-पुरुष दोनों की सम्मिलित सभा में साधु व्याख्यान बांच सकता है, उसी तरह से साध्वी भी स्त्री-पुरुष दोनों की सम्मिलित सभा में व्याख्यान बांच सकती है। इससे साधुओं की तरह साध्वी भी व्याख्यान बांचने की अधिकारिणी है। इतने स्पष्ट शास्त्रीय प्रमाण मिलने पर भी जो महाशय साध्वी व्याख्यान का निषेध करते हैं, वे शास्त्रों की उपेक्षा करके अपना आग्रह जमाने वाले ठहरते हैं।
१७ - श्री लक्ष्मीवल्लभगणिजी कृत मूल-टीका सहित जामनगर से प्रकाशित "उत्तराध्ययन" सूत्र के नवमें अध्ययन में "नमिराज" चरित्र के वर्णन में साध्वी को व्यास्यान बांचने का अधिकार आया हैं - देखियेः- पाठः--
"मिथिलास्था सुव्रता जनोदतेन तद्विग्रहं श्रुत्वा जनक्षयवारणाय तयोरुपशमाय च महत्तरामनुज्ञाप्य साध्वीयुता, सुदर्शनपुरे नमि सैन्ये गत्वा नमिमवंदापयत् । नमिरपि तस्या आसनं दत्वा भृम्धुपविष्टः । साध्व्याद्धर्म उक्तः,उपदेशान्ते चोक्तः-असारा राज्यश्रीः। दु:खं विषयसुखं । पापका
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
उक्तः, उपदेशान्ते चोक्तं-असारा राज्यश्रीः । दुःखं विषयसुखं । पापका
र्यान्नियमान्नरकगतिः । - इस पाठ का भावार्थ यह है कि-नमिराजा युद्ध करने के लिये गया था। जब मिथिला नगरी में ठहरी हुई सुव्रता साध्वी ने लोगों के मुख से यह बात सुनी । तब विचार किया कि मान के वश युद्ध में अनेक प्राणियों का नाश होगा। इसलिए मैं उसके पास जाकर उन लोगों को उपदेश देकर युद्ध की हिंसा के पाप से बचाऊँ और उपशांत भाव प्राप्त कराऊँ ऐसा विचार कर साध्वी ने अपनी बड़ी गुरुणी की आज्ञा लेकर अन्य साध्वियों के साथ में सुदर्शनपुर में नमिराजा की फौज में गई, नमिराजा ने साध्वी को वंदना की, तथा बैठने के लिये आसन दिया, नमिराजा भूमि पर सामने बैठ गया। तब साध्वी ने अर्हन्त भगवान् के धर्म का उपदेश दिया और उपदेश के अन्त में फिर कहा कि- इस संसार में राज्य लक्ष्मी असार है, विषयसुख दुःखरूप हैं । पाप कर्म करने से नियम पूर्वक नरक गति में जीव जाता है, इत्यादि उपदेश देकर युद्ध बंद कराया और अनेक जीवों की रक्षा की। . १८-महोपाध्याय श्रीभावविजयजी गणित उत्तराध्ययन सूत्र की, वृत्ति में भी छपे हुए पृष्ट २१८ में ऐसा पाठ है
" तच्च श्रुत्वा जनश्रुत्या, सुवदीया व्यचिन्तयत् ।। इमौ जनक्षयं कृत्वा, मास्म यो हामोगतिम् ॥ १९९॥ तदेनौ बोधयामीति, ध्यात्वाऽऽहनन । साध्वीभिः संयुता सागात्समीपे नमिभूभुजः ।। २००॥ तां प्रणम्यासनं दत्वा, नमिर्भुवि निविष्ठवान् । आर्यापि धर्ममाख्याय, तमेवमवदत्सुधीः ॥ २०१॥ राजन्नसारा राज्यश्री भॊगाश्चायतिदारुणाः ।
गतिः पापकृतां च स्यान्नरके दुःखसंकुले ॥२०२ ॥ . इस पाठ में भी यही बात बतलाई गई है कि-अन्य साध्यिों के साथ में सुव्रता साध्वी नमिराजा के पास में गई । राजा ने वंदना की और साध्वी को बैठने के लिये आसन दिया, आप भूमि पर सामने बैठ गया, साध्वी ने भी धर्म का व्याख्यान किया और युद्ध न करने के लिये राजा को उपदेश दिया। - १९-श्री कमलसंयमोपाध्याय विरचित "सर्वार्थसिद्धि" टीका-सूत्रवृत्ति सहित छपे हुए पृष्ट १९४ पर ऐसा पाठ है
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
" प्रणम्य तां नमिद्धाञ्जलिर्दत्तासनोऽविशत् । तत्पुरो भुवि साप्युच्चैस्तेनं कुशलदेशनाम् ॥ १२६ ॥
इस पाठ में भी साध्वी के सामने राजा हाथ जोडकर बैठा तब साध्वी ने कुशल देशना दी अर्थात्-अच्छी देशना दी धर्म का व्याख्यान दिया। यहां यह बात खुलासा है कि ऊपर के पाठ में राजा के आगे देशना देने का कहा है, परन्तु वहां राजा अकेला नहीं था। अनेक जन थे। सब के सामने साध्वी ने धर्म देशना का व्याख्यान सुनाया और देशना के अन्त में राजा को युद्ध बंद कर देने का उपदेश दिया है ।
२० - इसी तरह से संवत् १९२९ में वृहद्गच्छीय श्री नेमिचन्द्र सूरिजी की बनाई हुई "सुखबोधा" नामा टीका जो कि आत्मवल्लभस्मारकग्रन्थमाला से प्रकाशित हुई है। पृष्ट १४०-१४१ में ऐसा पाठ है
"लोगपारंपरओ निसुयं सुव्वयज्जाए। चिंतियं च मा जणवयक्वयं काऊण अहरगईं वच्चंतु, ता दो वि गंतॄण उवसमावेमि । गणिणीए अणुन्नाया साहुणिसहिया गया सुदंसणपुरं । दिट्ठो य अजाए नमिराया । दिन्नं परममासणं । वंदिऊण नमी उबविट्ठो धरणीए । साहिओ अजाए असेससहकारओ जिनिंदणीओ धम्मो । धम्मकहावसाणे भणियं - महाराय ! असारा रज्जसिरी, विवागदारुणं विसयसुहं, अदुक्खपउरेसु विरुद्धपावयारीणं नियमेण नरएसु निवासो हव । "
सबसे प्राचीन इस टीका में भी यही बात बतलाई गई हैं कि- साध्वी ने राजा के आगे सम्पूर्ण सुख देनेवाला श्री जिनेन्द्र प्रणीत धर्म कहा अर्थात् धर्मदेशना दी तथा देशना के अन्त में फिर राजा को युद्ध न करने का उपदेश दिया !
इस प्रकार बृहद्गच्छीय, खरतरगच्छीय, तपगच्छीय आदि सब टीकाओं में साध्वी के व्याख्यान देने का और फिर राजा को युद्ध न करने का अलग-अलग खुलासा बतलाया है।
२१ – अगर कहा जाय कि- नमिराजा सुव्रतासाध्वी के संसारी पुत्र था और वह बड़े भाई के साथ युद्ध करने को गया था, इसलिए साध्वी उनको युद्ध न करने के लिए समझाने को गई थी, इस प्रमाण से हरेक साध्वी को व्याख्यान बांचने का अधिकार साबित नहीं हो सकता । यह कथन भी उचित नहीं है क्योंकि देखो - बृहत्कल्प, सिद्धपंचासिकावचूर्णी, नन्दीसूत्र की टीका, सिद्धप्राभृत आदि अनेक प्राचीन शास्त्रानुसार और श्री हीरविजय सूरिजी आदि के ग्रन्थानुसार साध्वी को व्याख्यान बांचने का अधिकार सिद्ध कर आये हैं और यह एक प्रकार का प्रसिद्ध शिष्टाचार भी है। किसी उद्देश्य के लिए
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
किसी बडे स्थान में बडे पुरुषों के पास जाना होता है तब पहिले शिष्टाचार की अच्छी अच्छी बातें किये बाद में फिर जिस उद्देश्य से गये हों उस विषय की बातें निकाली जाती हैं। इसही तरह से सुब्रता साध्वी भी नमिराजा की फौज में गई जब राजा ने साची को बन्दना करके बैठने के लिए आसन दिया और आप हाथ जोड़ कर सामने भूमि पर बैठ गया। तब साध्वी ने पहिले धर्मदेशना दी और देशना के अन्त में युद्ध न करने का उपदेश दिया इसही लिए शास्त्रकारों ने “उपदेशान्ते चोक्तं", "आर्यापिधर्ममाख्याय","कुशलकेशनाम्" और "धम्मकहावसाणे भणियं” इत्यादि वाक्यों में धर्मदेशना देने का अधिकार पहिले बतलाया है इससे प्रगटतया हर एक साध्वी को व्याख्यान बांचने का अधिकार उपर में बतलाये हुए शास्त्रों के प्रमाण से सिद्ध है।
२२-दूसरी बात यह है कि- “बुद्धीहि य बोहिया मणुस्सा केवला मिस्सा वा" "सिद्धप्राभृत" का यह पाठ ऊपर बतला चुके हैं, इस पाठ में साध्वियाँ केवल अकेले पुरुषों को अथवा स्त्री-पुरुष दोनों को धर्मोपदेश दे सकती हैं, तथा “श्राद्धी मिश्रितानां कारणे केवलानाम् च पुरस्सादुपदेशः" यह "सेन प्रश्न" का पाठ भी ऊपर बतला चुके हैं। इसमें भी यही बतलाया है कि-साध्वियाँ स्त्री-पुरुषों की सम्मिलित सभा में और कारण वस केवल पुरुषों की सभा में भी धर्मदेशना दे सकती है, यह नियम शास्त्रानुसार है और सुबता साध्वी ने भी खास युद्ध का कारण उपस्थित होने पर नमिराजा के समक्ष में पुरुषों की सभा में देशना दी है। इसलिए उत्तराध्ययन सूत्र की टीकाओं के पाठों के अनुसार जो कि उपर लिख चुके हैं उस मुआफिक सुब्रता साध्वी की तरह सब साध्वियों को धर्म देशना देने का अधिकार सिद्ध होता है, और इसही के अनुसार सब साध्वियें भी धर्मदेशना दे सकती हैं तथा "कुशलदेशनाम्" "आर्यापिधर्ममाख्याय" “उपदेशान्ते चोक्तं" "धम्मकहावसाणे भणियं" आदि उपर्युक्त विशेषण ही साध्वियों के लिए धर्मदेशना का अधिकार सिद्ध करते हैं । यहाँ देशना कहने से सभा में धर्मोपदेश का व्याख्यान समझना चाहिये।
२३-जिस तरह सुब्रता साध्वी ने अपने गृहस्थावस्था के पुत्र के उपर अनुकंपा करके युद्ध की हिंसा के पाप से उसको बचाया और अनेक जीवों का उपकार किया, इसी तरह से पंच महाव्रत धारी संयमी साध्वीयों के भी धर्म पक्ष में श्रावक-श्राविकायें पुत्रपुत्रियों के तुल्य हैं । उन्हों के उपर साध्वियों उपकार बुद्धि से अनुकम्पा लाकर उन्हों को आश्रव-कषाय आदि के पाप से बचाने के लिए और धर्म मार्ग में व्रत नियम करने की प्रवृति कराने के लिए अवश्य ही व्याख्यान वांच कर सद्बोध का धर्मोपदेश दे सकती है। इसमें किसी प्रकार अंतराय देना योग नहीं है । देखिये- शास्त्रों में कहा है कि भगवान की वाणी के सद्बोध का एक भी वचन धारण करने वाले भव्य जीवों को महान् लाभ होता है। और साध्वियों व्याख्यान वांच कर गाँवों गाँवों में प्रति वर्ष लाखों जीवों को भगवान् की
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
वाणी के सद्बोध के वचन सुनाती है इसमें अनेक जीवों का कल्याण है, ऐसे लाभ के काम को समझे पिना पक्षपात के वश होकर अभिनिवेशिक मिथ्यात्व के हठाग्रह से साध्वियों को व्याख्यान वांचने का निषेध करने वाले बडी भारी धर्म की अंतराय बांधते हैं।
- २४-श्रीहरिभद्र सूरिजी महाराज के बनाये हुए “संबोध प्रकरण" जो कि वि० सं० १९०२. एवं सन् १९१६ ई० में "जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा" अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसके पृष्ठ १५ में ऐसी गाथा है- "केवल थीणं पुरुओ वक्खाणं पुरिसअग्गओ अन्जा । कुवंति जत्थमेरा नडपेडगसंनिहा जाण ॥१॥" - इस गाथा में साफ लिख दिया है कि-साधु अकेली स्त्रियों की सभा में और साध्वी केवल पुरुषों की सभा में व्याख्यान बांचे तो उन साधु-साध्वियों की नट पेटक जैसी कुचेष्टा जानना चाहिये । इस गाथा में जब साधु को अकेली स्त्रियों की सभा में व्याख्यान बांचने का निषेध किया है तब स्त्री-पुरुष दोनों की सभा में व्याख्यान बांचने की स्पष्ट आशा सिद्ध
इसही तरह से साध्वियों को भी जब अकेले पुरुषों की सभा में व्याख्यान बांचने का निरोग किया तब स्त्री-पुरुष दोनों की सभामें व्याख्यान बांचने की आशा सिद्ध हो ही चुकी।
श्री सागरानन्द सूरिजी (अानन्द सागरजी) ने "सुबोधिका टीका" छपवाते समय उसके प्रथम पृष्ठ में पंक्ति १०-११ में "केवलथीणं पुरओ" ऊपर की गाथा के प्रथम चरण के ये आठ अक्षर छोड़ कर इस प्रकार पाठ दिया है-"बक्खाणं पुरिस पुरिओ अजा, कुव्वंति जत्थ मेरा नडपेडगसंनिहा जाण ।" ऐसी अधूरी गाथा छपवा कर साध्वियों के व्याख्यान बांचने मात्र का निषेध करने के लिए अर्थ का अनर्थ कर डाला है। यह कार्य प्रात्मार्थियों का नहीं हैं। क्योंकि पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रन्थों का मूल पाठ उड़ा कर अर्थ का अनर्थ कर डालना सभ्यता के खिलाफ है। सूत्र ग्रन्थों का एक भी अक्षर या बिन्दु वा मात्रा उड़ा देना या बदल देना अनन्त संसार का कारण माना जाता है। अपनी हठ की पुष्टि के लिए. ऐसा कार्य करना उचित नहीं है लत्यान्वेषियों को पर्युषणा पर्व जैसे धार्मिक पर्व के व्याख्यान में ऐसी उन्मार्ग की प्ररूपणा कदापि नहीं करनी चाहिये। ... २५-श्री हरिभद्रचूरिजी महाराज विरचित- प्रागमोदय समिति की तरफ से छपी हुई “दशवकालिक" सूत्र की नडी टीका के पृष्ठ २३७ में आठवें अध्ययन की तेपन की गाथा में धर्म कथा विधि संबंधी ऐसा पाठ है
"नारीणां, स्त्रीणां न कथयेत्कथां, शङ्कादिदोषप्रसङ्गात्, औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति ।"
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः |
इस पाठ का भावार्थ ऐसा है कि साधु को त्रियों की सभा में धर्मकथा नहीं करनी चाहिये, केवल स्त्रियों की सभा में धर्मकथा करने पर लोगों को शङ्का का स्थान होता है और ब्रह्मचर्य हानि आदि अनेक दोषों का प्रसङ्ग प्राप्त होता है, इसलिये साधु स्त्रियों की सभा में धर्मकथा न कहे परन्तु पुरुषों की परिषदा साथ में हो तो धर्मकथा कह सकता है. यहां पर धर्मकथा कहने से धर्मदेशना समझना चाहिये, इसी पाठ का आशय लेकर "हीर प्रश्नोत्तराणि" में श्री हीरविजयसूरिजी महाराज ने खुलासा कर दिया है किसाधु अकेली स्त्रियों की परिषदा में व्याख्यान नहीं बांचे, इसी तरह साध्वी भी केवल पुरुषों की परिषदा में व्याख्यान नहीं बांचे, इसका आशय यही निकला कि-साधु हो अथवा साध्वी स्त्री, पुरुष दोनों की सम्मिलित सभा में व्यख्यान बांच सकते है " हीरप्रश्नोसराणि" का पाठ उपर लिख चुके हैं।
२६-जो महाशय पुरुष प्रधान धर्म समझ कर साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेध करते हैं, उन्हों की भूल है । क्योंकि साध्वी व्याख्यान बांचकर धर्मोपदेश से अनेक भव्य जीवों का उद्धार करे, उसमें पुरुष प्रधान धर्म को कोई हानि नहीं हो सकती । बहुत वर्षों की दीक्षा ली हुई और पढी लिखी विदुषी साध्वी भी अभी के दीक्षा लिए हुए साधु को वंदना करती है उनका बहुमान और विनय व्यवहार करती है। यह वन्दना व्यवहारादि का विषय अलग है, और भव्य जीवों को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग में लाना अलग विषय है । अतः पुरुष प्रधान धर्म मान्य होने पर भी साध्वी द्वारा व्याख्यान बांचकर धर्म मार्ग में प्रवृति कराना उपकार करना किसी भी प्रकार से उसमें बाधा कारक नहीं है । इसलिए निष्प्रयोजन बहाना बतलाकर साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध करना उचित नहीं है। ____२७-आचाराङ्ग, दशवैकालिक, कल्पसूत्र, निशीथसूत्र, और बृहत्कल्पसूत्र आदि अनेक आगमों में "भिक्ख वा भिक्खुणि वा" अथवा "निगंथं वा निगंथिणं वा” इत्यादि पाठों में साधु के समान ही साध्वियों के लिए भी पंच महाव्रत लेकर सत्रह प्रकार का संयम पालन करते हुए तथा बारह प्रकार का तप सेवन करके यावत् सर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति का समान अधिकार बतलाया है, केवल पुरुष प्रधान धर्म होने से साधु का नाम प्रथम ग्रहण किया है पश्चात् साध्वी का नाम ग्रहण किया है ।
देखिये-आगमोदय समिति की तरफ से प्रकाशित बडी टीका सहित “दशवैकालिक" सूत्र चौथा अध्ययन के छपे हुए पृष्ठ १५१, १५२ में “से भिक्खू वा भिक्खुणि बा" इत्यादि पाठ की व्याख्या करते हुए श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने इस प्रकार लिखा है"स योऽसौ महाव्रतयुक्तो, भिक्षुषों भिक्षुकी वा प्रारम्भपरित्यागाद्धर्मकायपालमाय भिक्षणशीलो भिक्षुः, एवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोत्तमो धर्म
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.. साध्वी व्याख्यान निर्णयः
इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति," __ इस पाठ में महावत सहित साधु अथवा साध्वी आरम्भ के त्यागी अपने धर्म काय रूपी शरीर का मिक्षा वृत्ति से पालन करने वाले साधु होते हैं, वैसे ही साध्वी भी होती है। पुरुष प्रधान धर्म होने से प्रथम साधु का नाम ग्रहण करके जो विशेषण कर्तव्य साधु के लिए बतलाये गये हैं, वे ही विशेषण कर्तव्य साध्वी के लिये भी समझ लेने चाहिये। यहाँ पर टीकाकार ने खुलासा कथन कर दिया है कि-पुरुष प्रधान धर्म होने से प्रथम साधु का नाम लेकर पीछे साध्वी का नाम लिया है परन्तु संयम पालन का कर्तव्य सब समान रूप से इस सूत्र में कथन किया है। इसलिए पुरुष प्रधान धर्म कहने पर भी साधु की तरह साध्वी भी धर्मदेशना दे सकती है। साध्वी की धर्मदेशना से पुरुष प्रधान धर्म में कोई हानि नहीं
हो सकती।
इसी प्रकार “सूयगडांग" सूत्र चौथा अध्ययन आगमोदय समिति का प्रकाशित पृष्ठ १०५ पहिली पुठी की प्रथम पंक्ति में भी ऊपर मुजब ही इसी आशय का पाठ है।
२८-देखिये फिर भी इसी सूत्र के प्रथम अध्ययन में बारह प्रकार के तप के अधिकार में अभ्यन्तर तर्प की व्याख्या करते हुए स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा ऐसे पांच प्रकार के भेद बतलाए हैं, जिसमें धर्मकथा का लक्षण संबंधी छपी प्रति के पृष्ट ३२ में इस प्रकार पाठ है
"धम्मकहाणाम-जो अहिंसाइ लक्खणं सवण्णूपणीअं धम्म अणुयोगं वा करेई एसा धम्मकहा"
इसका भावार्थ ऐसा है कि-भव्य जीवों के आगे सर्वज्ञ भगवान् की कथन की हुई अहिंसादि लक्षण वाली धर्मकथा करना अथवा अहिंसादि लक्षण सर्वज्ञ भगवान् की कथन की हुई वाणी की व्याख्या करना यह धर्मकथा नामक स्वाध्याय का पांचवां मेद कहा जाता है।
भाव सहित बारह प्रकार के तप करने वाले साधु साध्वी आराधक होते हैं, ११ अंग आदि सूत्रों की स्वाध्याय साधु साध्वियों को हमेशा करने की आशा है । स्वाध्याय का पांचवां मेद धर्मकथा है, धर्मकथा साधु-साध्वी दोनों को करने की कही है, भव्य जीवों को सूत्रों का अर्थ सुनाना धर्मदेशना देना यही धर्मकथा कही जाती है, इस न्याय से साधुओं की तरह उपरोक्त शाल प्रमाणानुसार साध्वी भी श्रावक श्राविकाओं को धर्मकथा सुना सकती है, ये बात जिनाज्ञानुसार है। इसलिए साध्वियों को श्रावक-श्राविकाओं के
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
आगे धर्मकथा का निषेध करने वाले जिनामा का उत्थापन करने वाले ठहरते हैं। . ___२९-“दशवकालिक" सूत्र का पाँचवां अध्ययन, बडी टीका सहित छपे हुए पृष्ठ १८४ में दूसरे उद्देशे की आठवीं गाथा की टीका का पाठ इस प्रकार है
किं च "गोअर ग्ग"त्ति सूत्रं, गोचराग्रप्रविष्टस्तु भिक्षार्थं प्रविष्ट इत्यर्थः 'न निषीदेत् नोपविशेत् क्वचिद् गृहदेवकुलादौ संयमोपघातादिप्रसङ्गात् "कथां च" धर्मकथादिरूपां न प्रबध्नीयात् प्रबन्धेन न कुर्यात्, अनेनैकव्याकरणैक-ज्ञातानुज्ञामाह, अत एवाह-स्थित्वा कालपरिग्रहेण संयत इति, अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥८॥
इस पाठ का भावार्थ ऐसा है कि-गौचरी गए हुए साधु-साध्वी को गृहस्थों के घरों में देवकुलादि में बैठना नहीं कल्पता है, वहाँ पर लोगों का अति परिचय होने से संयम में बाधा पहुँचती है, और वहाँ पर लोगों को सुनाने के लिए व्यवस्थासर धर्मकथा धर्म देशना न करें। कदाचित् खास कारण हो तो एक प्रश्न का उत्तर या एक गाथा का अर्थ संक्षेप से कहदें, परन्तु बैठकर विस्तार से न कहें । जिस प्रकार “बृहत् कल्प" सूत्रका पाठ ऊपर में बतलाया जाचुका है उसमें साधु-साध्वियों को धर्मकथा करने का समान अधिकार है उसी ही अभिप्रायानुसार श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने भी ऊपर की टीका के पाठ में साधु-साध्वियों को धर्मदेशना का समान अधिकार ही बतलाया है।
दशवैकालिक सूत्र का पहिला अध्ययन, चौथा अध्ययन, पाँचवाँ अध्ययन और आठवाँ अध्ययन की टीका के चारों पाठों के अनुसार और “संबोधप्रकरण" की गाथा जो ऊपर में बतला चुके हैं, इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने उपरोक्त पांचो प्रमाणों के अनुसार, साधु-साध्वियों को धर्मदेशना (व्याख्यान बांचने) का समान अधिकार बतलाया है। दशवैकालिक सूत्रानुसार साधु-साध्वी दोनों को अपने संयम की आराधना करने की है संयम के साथ बारह प्रकार का तप भी सेवन किया जाता है। तप में स्वाध्याय कीजाती है और स्वाध्याय रूप तप में ही धर्मदेशना दी जाती हैं। ये अनादि सिद्ध नियम है। इस नियमानुसार साधुओं की तरह साध्विये भी धर्मदेशना देने की अधिकारिणी सिद्ध हैं। इसलिए साध्वियों को धर्मदेशना देने का कोई भी निषेध नहीं कर सकता। ... ३०-फिर भी देखिये साधु-साध्वियों को पांच समितियों का पालन करने की भगवान् की आशा है। उसमें दूसरी भाषा समिति अर्थात्-उपयोग पूर्वक अपनी आत्मा को और दूसरे प्राणियों को हितकारी मधुर वचन बोलने वाले साधु-साध्वी भगवान् की आशा
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
के आराधक होते हैं। यह बात शास्त्रानुसार सर्वमान्य प्रत्यक्ष सत्य है। इस ही के अनुसार साध्वी भी भव्यजीवों के आगे उनके हितकारी उपकार करने वाली शुद्ध भाषा समिति सहित सूत्रार्थ का व्याख्यान सुनावें तो वह साध्वी भगवान् की आज्ञा की आराधक ठहरती है। जिसपर भी जो महाशय साध्वी को धर्मोपदेश देने की मनाई करते हैं, वे लोग प्रत्यक्ष ही शास्त्रों की बातों का उत्थापन करने वाले ठहरते हैं।
३१-साध्वियों को केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में जाने वाली मानते हैं तब क्या साध्वी का व्याख्यान मोक्ष से भी अधिक महत्व का है ? कि-जिसका निषेध करते हैं। यहा निषेध करने वालों की बुद्धि पर हमें दया आती है कि वे साध्वियों को अनन्त ज्ञानी और मोक्ष प्राप्ति करने वाली मानकर भी उनको भव्यजीवों के आगे उपदेश देने का निषेध करते हैं । पुरुष प्रधान धर्म मानकर भी साध्वियों का व्याख्यान बांचने का अनादि सिद्ध अधिकार है । उसको निषेध करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।
३२-जैन शासन में पुरुष प्रधान धर्म होने से शास्त्रों में जगह जगह पर साधु के नाम से जो जो क्रिया की बातें बताई हैं उसके अनुसार साध्वियों के लिए भी यथायोग्य वेही क्रिया की बातें समझ लेनी चाहिये । जैसे-श्रमणसूत्र में “चउहिं विकहाहिं इत्थिकहाए, भत्तकहाए, देसकहाए, रायकहाए” इस पाठ में साधु के लिए स्त्रीकथा का निषेध किया है और येही पाठसाध्वियाँ भी बोलतीं हैं तब “इथि कहाए" के स्थान में पुरुषकथा न करने का अर्थ लिया जाता है, इसी प्रकार श्रावक के “वन्दित्ता" सूत्र में भी "चउत्थे अणुव्वयंमि निच्चं परदारगमणविरईओ" इस पाठ में श्रावक के चौथे अनुव्रत में हमेशा परस्त्री का त्याग बताया है, और येही पाठ श्राविकायें भी बोलती हैं, उनके लिए चौथे अनुव्रत में हमेशा पर पुरुष के त्याग करने का अर्थ समझ लिया जाता है, इसही प्रकार जहाँ जहाँ साधु श्रावक के लिए जो जो अधिकार आये हों वहाँ वहाँ साध्वी तथा श्राविका के लिए भी यथा योग्य समझ लिये जाते हैं, इस न्यायानुसार जिस शास्त्र में साधु के लिए धर्मदेशना देने का विधान आया हो उसके अनुलार ही साध्वी के लिए भी धर्मदेशना देने के लिए उन्हीं प्रमाणों को उसी अधिकार का समझ लेना चाहिए। ___३३-फिर भी देखिये-अन्य दर्शनीय लोगों ने जब कई तरह के नियम बनाकर वेद पढ़ने आदि के स्त्रियों के स्वाभाविक अधिकार छीन लिए थे और उन्हों को अपने नीचे दबा रक्खा था. कई बातों में सर्वथा परवश बना दिया था तब उस परवशता का नाश करके श्री महावीर भगवान् ने स्त्रियों को पंच महाव्रत-संयम लेना, अग्यारह अंग आदि मूल आगमों को पढ़ना, स्वाध्याय करना और अपना संयम पालन करते हुए यावत् मोक्ष पहुँच ने तक को पुरुषों के समान अधिकार बतलाया है। ऐसे उदार और न्याय संपन्न सर्वश
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
वीतराग के जैन शासन में साध्वी समाज को धर्मोपदेश देकर दूसरों के कल्याण करने का साधुओं के समान ही अधिकार है, जिस पर भीअभी कई अनसमझ लोगों को यह बात समझ में नहीं आई है, उन्होंको ऊपर में जो जो शास्त्रों के प्रमाण हमने बतलाये हैं, उन्हों पर दीर्घ दृष्टि से विचार करके अपनी भूल सुधारना और सत्य बात ग्रहण करना उचित है। ग्यारह अंग मूल सूत्रों का पढ़ना, उसका अर्थ सीखना, उस मुजब अपना आत्मकल्याण करना यह तो लाभ का हेतु कहना और उन्हीं सूत्रार्थ को दूसरे भव्यजीव-श्रावक आदि को सुना कर उन्होंको अपनी आत्मा के कल्याण का मार्ग बतलाना, इसमें अलाभ पाप दोष बतलाना यह कैसा भारी अन्याय है इसका विचार सजन पाठक अपने आपही कर लेवे ।।
३४-जो महाशय ऐसा कहते हैं कि "याकिनी महत्तरा" साध्वी ने हरिभद्र भट्ट को " चक्कीदग्गं" इत्यादि एक गाथा का अर्थ न बतलाया तो फिर साध्वी सभा में व्याख्यान करके सूत्रों का अर्थ कैसे बतला सकती है। ऐसी शंका भी अनुचित है। क्योंकि वह साध्वी अकेली थी और शाम का समय था। हरिभद्र भट्ट ने रास्ते चलते यह पूछा था, वह भी अकेला था और अन्य मतावलम्बी था और अपरिचित भी था उसके साथ अकेली साध्वी को शास्त्रीय वार्तालाप करना उचित नहीं था, अतः इस साध्वी ने हरिभद्र भट्ट को एक गाथा का अर्थ न बतलाया, परन्तु गुरु महाराज के पास में जाकर समझ लेने का कहा, किन्तु अभी साध्वी व्याख्यान बांचेगी वह तो समुदाय में बांचेगी, इसलिए अप्रासंगिक अकेले व अन्य मतवाले हरिभद्र भट्ट का दृष्टान्त बतलाकर हजारों श्रावकश्राविकाओं के धर्म श्रवण में अन्तराय डालना उचित नहीं है।
जिस जगह आचार्य, उपाध्याय और अपने गुरु आदि बड़े पुरुष विराजमान हों और वहां पर सामान्य साधु गौचरी आदि के लिए गया हो वहां उसे कोई श्रावक-श्राविकादि प्रश्न पूछे तो अपने बडे पुरुषों के पास जाकर समाधान करने के लिये कह देवे, किन्तु आप वहां अपनी पंडिताई बतलाने के लिए प्रश्न का उत्तर न देवे, इस प्रकार बडे पुरुषों की विनय भक्ति बहुमान की मर्यादा है इसी प्रकार से याकिनी साध्वी ने हरिभद्र भट्ट को एक गाथा का अर्थ न बतलाकर अपने आचार्य महाराज के पास जाकर समझने का कह दिया, यह उसकी अपने पूज्य पुरुषों के प्रति विनय भक्ति और बहुमान की मर्यादा व बुद्धिमत्ता थी। इस बातका भावार्थ न समझ कर साध्वियों को श्रावक-श्राविकाओं की सभामें व्याख्यान बांचने का निषेध समझ रक्खा है, यह उनकी बडी भूल है। __ हरिभद्रभट्ट ही दीक्षा लेकर श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज हुए हैं उन्होंने अपने बनाये " संबोध प्रकरण" में तथा "दशवैकालिक" सूत्र की बडी टीका में साधु के समान
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
साध्वियों को भी व्याख्यान बांचने का समान अधिकार बतलाया है, उन्होंके पांच प्रमाण ऊपर में बतला दिये गये हैं। इसलिए श्रीहरिभद्रसूरिजी का और याकिनी महत्तरा का नाम लेकर साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध करने वाले बड़ी भूल करते हैं। .... ३५-श्री जयतिलकसूरिजी महाराज का बनाया हुआ श्री “ महाबल मलयसुंदरी - चरित्र" जो कि जामनगर से प्रकाशित हुआ है। उसके पृष्ठ १९२-१९३ में ऐसा पाठ है
इतश्चामलचारित्रा साध्वी मलयसंदरी। एकादशांगतत्वज्ञा प्रतिबोधपरायणा ॥ ८४॥ तप्यमाना तपस्तीवं कर्म-मर्म द्विदोद्यता । । क्रमोत्पन्नावधिज्ञाना गुरुणिः श्रीमहत्तरा ॥ ८५।। सत्संदेह समांसीह जघाना प्रभेवसा । - वित्रस्तकुनयोलूका भव्यांभोज प्रयोधिका ।। ८६ ॥ महाबल मुनेत्विा निर्वाणं तनयं निजं । प्रबोधयितुमायाता पुरे तत्र महत्तरा ।। ८७॥ वसतावुचितायों मा स्थिता साध्वी समन्विता। राज्ञाशतयलेनैत्य महाभक्त्या च वंदिता ॥ ८८ ॥ आलापितो महाराजः प्रसन्नतनया तया। गिरा मधुरया, श्रोत श्रवणामृत तुल्यया ।। ८९॥ पिता तच नराधीश महासत्त्व शिरोमणिः । उपसर्गास्रियास्तस्या-प्रपेदे शिवसंपदं ॥९॥ सर्व पुत्र कलत्रादि त्यज्यते यस्य हेतवे।. .... सत्य च महादुःखं तपोलोचक्रियादिकं ॥९१॥ दुर्लभं यदि तत्प्राप्तं स्थानं शाश्वतमुत्तमं ।। त्यक्तों भवश्व पित्राते शोकोऽद्यपि ततःकथं ॥१२॥ महानिधानमाप्नोति यद्यभीष्टो जनो निजः । विजृम्भते महाशोको वदं किंवा महोत्सवः ॥ ९३ ॥
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
सुदुस्सहामि पीडापि न चिन्ल्या च पितुस्त्वया प्रहारात्र सहते किं जयश्री लंपटा भंटाः ॥ ९४ ॥ साधयन्तोऽथवा विद्यां नरा दुःखं सहति वै । सिद्धिरत्यद्भुतापेन बिना कष्ट न जायते ॥ ९५॥ तातपादानतानैव कर्तव्येति च नाऽधृतिः । जनकाराथनासक्तो यत्वं प्रागधुनापि च ॥ ९६ ॥ ताद्वमुंच पितुः शोकं परिभावय संमृति । परित्राणं न शोकेन किंचिद्भव ते देहिनां ॥ ९७ ॥ भवं दुःखालयं वृद्धि संगमं स्वप्न सन्निर्भ । लक्ष्मीं विद्युल्लतालाल जीवितं बुदबुदोपमं ॥ ९८ ॥ यदि युष्मादशीप्येव गुरुशिक्षाविचक्षणः । शोकं कुर्वन्ति तद्वै विवेक्रोऽपि क यास्यति ॥ ९९ ॥ एवं धर्मोपदेशैः स नरेन्द्रो बोधितस्तया । • संविभोगतशोकश्व लग्नोधर्मे विशेषतः ॥ १ ॥ नित्यं महत्तरापादान् वन्दतेस्म नरेश्वरः ।
उपदेशान शृणोतिस्म शासनोदय कारिणः ॥ २ ॥
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३६-इस उपर के पाठ का भावार्थ श्री कान्तिविजयजी का बनाया हुआ श्री महाबल मलयसुंदरीरास " जो कि श्रावक भीमसीह माणेक द्वारा प्रकाशित हुआ है। उसकी मुद्रित पुस्तक के पृष्ठ ३१३-३१४ में ऐसा पाठ है
|| ढाल ॥ सडतीसमी || हूँ दासी राम तुम्हारी ए देशी ॥ एहवे निर्मल चरित पवित्ता, सत्य शील संतोष विचित्ता ।
पाती व्रत एकचित्ता, साध्वी मलवा तप, जुता ॥ होराज ॥ १ ॥
महासती धुर सोहे, श्रुतधर्मे भवि पडिवोहे ॥ होराज || म० ॥
एकादश अंगनी जाण, पामी शुभ अवधिनाण
भावंती थिर पाण, संयम तत्र योग विहाण | दोराज ॥२॥
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
संदेह भविकना टाले, कुमतादिकना मदगाले। एक अवसर अवधे भाले, महाबल निर्वाण निहाले । होराज ॥ ३ ॥ निज नंदन प्रतिबोधवा, भवताप दुरंत हरेवा। आवी तिण पुरी ततखेवा, होवे साधु ने धर्मनी देवा ।। होराज ॥४॥ साधुयोग्य वसतीने ठामें, पशु पंडग रहित सुधामें। साध्वी ने ठाण अभिरामे, बिटी रही आई सुकामे ॥ होराज ॥५॥ शतबल भूपत अति भक्ते, वांदे श्रावकनी युक्त। समजावा साध्वी युगते, जिण धी पामे वली मुक्ते। होराज ॥६॥ राजेन्द्र पिता तुज शूरो, उपशम संवेगे पूरो । सत्य साहस शौच सनूरो, पाम्यो शिवसुख मह भूरो॥होराज ॥७॥ उपसर्यो कनकवतीये, न करयुं मन कलुष व्रतीये। भवसागर तरतां तीये, अवलंबन दीबूं मीये ॥होराज ॥८॥ धन पुत्र कलत्र गृहभार, जस कारण तजिये संसार। तप लोच क्रिया व्यवहार, साधीजे विविध प्रकार ॥ होराज ॥९॥ सेवे जे गिरि वन घांटा, सहिये वचन कटुकना कांटा। उपसर्ग उरगनी आंटा, खमीये तई धीरजना सांटा ।। होराज ॥१०॥ दुर्लभ ते पद तातें लांधू, नीगमीयूं भव भय बांधू । हवे का मन शोके वांबूं, करे काई वयुष ए आंधू । होराज ।। ११ ।। कृतकृत्य हुओ मुनिराय, तिणे हर्ष तणा ए उपाय । ते माटे अहो महाराय, काई शोक करे एणे ठाय ॥होराज ।। १२ ॥ पोतानो वाल्हो कोई, निधिपामे सहसा सोई। तिहा शोक के हर्षज होई, कहे हियडे विचारी जोई ॥होराज ॥१३॥' विश्वानर पीडा तातें, सांसही होशे एह यांतें । चिंता म करे तिलमाते, जय अरथि खिति सहे गाते । होराज ॥१४॥ साधकनर विद्यासाधे, पहेलु तिहा बुधव, सहे बोधो। निज कारज सिद्धिं आराधे, नव आयनः फलमुखलाधो ॥१५॥
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
पहेलुं दुःख सघले दीसे, पाछे सुख संभव हीसे । इम जाणीने विश्वा वी.से, मन नाखे शोक मां कीसे ॥ १६ ।। भेट्या नहि चरण पिताना, मत कर इंमपरि चिंताना । पहेली पर हवणा दाना, तुज भक्तिना गुण नहि छाना ॥१७॥ शोक मूकीने हवे भूप, संसारनो भावी सरूप । दृढ़धारी विवेक अनूप. तज दूरे सहु भवकूप ॥१८॥ दुखसागर ए संसार, संगम सुपना अनुकार । लखमी जिम बीज संचार, जीवि बुद-बुदे अणुहार ॥ १९ ॥ तुज सरिखा जे इम करिशे, शोकाकुले हिय९ भरशे । बापडलो किंहा संचरशे, धीरज धानक विण फिरशे ॥२०॥ इम धर्मतणो उपदेश, निसुणी प्रतिबुध्यो नरेश । छंडे सविशोक कलेशा, संवेग लयो सुविशेष ॥ २१ ॥ प्रणमे नित्य-नित्य भूपाल, महत्तरिका चरण त्रिकाल । सड़त्रीसभी ए कही ढाल, चोथे खंडे "कान्ति" रसाल ॥ २२ ॥
दोहा:- . पहत्तरिकाना मुखथकी सुणे धर्म उपदेश ।
करे महोन्नति धर्मनी, धर्म धुरीण नरेश ॥ देखिये ऊपर दिये हुए चरित्र के पाठ से विदित होता है कि-मलयसुंदरी साध्वी निर्मल चारित्र पालन करती हुई, ग्यारह अंगों की पढ़ने वाली तत्वक्षा, प्रतिबोध देने में परायण, बहुत कठिन तप करके कर्मक्षय करने में सावधान होने से अवधिशान पाया था। जिससे लोगों के संशय रूपी अंधकार को नाश करने में सूर्य समान प्रभाववाली हुई थी।
और अन्य मिथ्यात्वियों का मान उतारनेवाली तथा भव्य जीव रूपी कमलों को प्रतिबोध करनेवाली थी। उस साध्वी ने राजा को बहुत विस्तार से धर्मोपदेश देकर प्रतिबोध दिया था। इससे राजा हमेशा उस साध्वी के चरण कमलों को वन्दना करता था और जैन शासन की उन्नति करने वाला धर्मोपदेश हमेशा सुनता था। इसका विशेष विवरण रास बनानेवाले श्रीकान्तिविजयजी महाराज ने भाषाबद्ध रचना में खुलासारूप से लिख दिया है जिससे यहां पर फिर अधिकरूप से लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गई है।
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
३७-ऊपर चरित्र के पाठ में “तत्वज्ञा" "प्रतिबोध परायणा" "सत्सन्देहतमासीह जघान्यर्कप्रमेव सा" “वित्रस्त कुनयोलूका भव्याम्भोजप्रबोधिका" इत्यादि तथा रास के पाठ में श्रुतधर्मे पडिबोहे होराज ॥१॥ "सन्देह भविकना टाले" कुमतादिकना मद गाले। इत्यादि वाक्यों से चरित्रकारने एवं रास रचयिता ने मलयसुंदरी साध्वी को अन्य भव्यजीवों को भी धर्मदेशना देनेवाली ठहराई है।
३८-इस प्रकार प्रसंगवश प्रत्येक अवसर पर साध्वियों ने पुरुषों को और स्त्रियों को अनेकवार धर्मोपदेश दिया है। जिसका "शाताजी” “उतराध्ययन" “निरयावली" आदि अनेक सूत्र तथा चरित्र प्रकरण आदि में बहुत शास्त्रीय प्रमाण स्थान स्थान पर मिलते हैं। जिस पर भी ज्ञानसुंदरजी आदि कई महाशय कहा करते हैं कि-साध्वी के व्याख्यान बाँचने की कुप्रथा करीब पचास-साठ वर्षों से नवीन प्रचलित हुई है। किसी भी शास्त्र में साध्वी को व्याख्यान बाँचने की आज्ञा नहीं है साध्वी अगर व्याख्यान बाँचे तो तीर्थकर गणधर पूर्वाचार्य व शास्त्रों की मर्यादा भंग करने की अपराधिनी ठहरती है और उनका व्याख्यान सुननेवाले श्रावक भी दोषी ठहरते हैं। इत्यादि अनेक तरह की मिथ्या बातें बनाकर भोले जीवों को उन्मार्ग में डालते हैं। हम ऊपर वृहत्कल्प सिद्ध प्राभृत व नन्दीसूत्रटीका आदि के शास्त्रीय प्रमाण बतला चुके हैं। उन सब प्रमाणों से साध्वियों को व्याख्यान बाँचने की आज्ञा अनादिसिद्ध साबित है।
___३९--कई महाशय साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध करने के लिए "जीवानुशासन" ग्रन्थ का यह प्रमाण बतलाते हैं कि
मुद्ध जणछेत्तसुहषोहसंस्सविद्दवणदक्खसमणीओ ईईओ वियकाओ वि अडंतिधम्मं कहं तीओ।। १८१ ।।
व्याख्या-मुग्धजनाः स्वल्पबुद्धिलोकाः त एव क्षेत्राणि वीज वपनभूमयस्तेषु शुभयोधः प्रधानाशयः स एव सस्यं धान्यं तस्य विद्रवणं विनाश करणं तत्र दक्षा: पटव्यः प्राकृतत्वाचात्र विभक्तिलोपः श्रमण्यः आर्यिका ईतय इव तिड्डाद्या काश्चन न सर्वा अटन्ति ग्रामादिषु चरन्ति धर्म दानादिकं कथयन्त्यो ब्रुवाणा इति गाथार्थः । एतदपि निराकर्तुमाह
एगतेणं वि य तं न सुंदरं जेण ताणपि पडिसेही ।
सिद्धं तदेसणाए कप्पष्टिय एव गाहाए ॥ १८२ ।। व्याख्या-एकान्ते नैव · सर्वथा तद्धर्मकथनं न नैव सुन्दरंभव्यम्,
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
येनतासां साध्वीनां प्रतिषेधो निराकरणं सिद्धान्त देशनाया आगम कथनस्य । कथा प्रतिषेधः ? कल्पस्थितयैव गाथयेत्यर्थः कल्पगाथा मेवाह
कुसमय सुईण महणो विवोहओ भविय पुंडरीयाणं । __ धम्मो जिणपन्नतो पकप्पजइणा कहेयव्वो ॥ १८ ॥ व्याख्या-कुसमय श्रुतीनां कुसिद्धान्तमतीनां मथनो विनाशकः, विबोधको विकाशको भव्यपुण्डरीकाणां मुक्तियोग्यप्राणिशतं पेत्राणां धर्मों दानादिको जिनप्रज्ञप्तो मुनीन्द्रगदितः कल्पयतिना निशीथज्ञ साधुना कथयितव्यो न पुनः साध्व्येतिहृढयमिति गाथार्थः ननु यदि तासां सदीयते, ततोनिन्द्यंतद्धर्म कथनमित्याह
संपइ पुणो न दिजह पकप्पगंधस्स ताण सुत्तत्थो । ... जइया विय दिजंतो तइया विय एस पडिसेहो ॥१८४॥
व्याख्या-साम्प्रतमधुना पुन: नैव दीयते वितीर्यते प्रकल्प ग्रन्थस्य निशीथस्यतासां आर्यिकाणां सूत्रार्थः सूत्रेण पद्धत्या साहितोऽर्थोऽभिधेयः सूत्रार्थ उभयमिति हृदयम् यदापि वा दीयते वितीर्यतेस्म, तदापि च तस्मिन्नपिकाले एष व्याख्यान करण लक्षणः प्रतिषेधो निवारणमितिगाथार्थः अमुमेवा) दृष्टान्तपूर्वकं दर्शयन्नाह
हरिभद्दधम्म जणणीए किंच जाइणि पवत्तिणीए वि।
एगो वि गाहत्यो नो सिठ्ठो मुणिय तत्ताए ॥ १८ ॥ व्याख्या-सूचनात्सूत्रस्य हरिभद्रसूरिधर्मजनन्यापि धर्मदात्रीत्वेन प्रतिपन्नमात्रा किञ्चाभ्युचये याकिनी प्रवर्तिन्या एतन्नाममहत्तरया न केवलमन्याभिरित्यपि शब्दार्थः एकोऽपि च गाथार्थोऽभिधेय आस्तां प्रभूत इत्यपेरों नो नैव शिष्टः कथितो मुणिततत्वया ज्ञातपरमार्थया तथा च "चक्कीदुगं हरिपणगं" इत्यादि गाथायाः स्वार्थ पृष्टा हरिभद्र भट्टेन, न च तया कथितः, इतिसुप्रतीतोऽयमर्थः । इति गाथार्थः एवं ज्ञाते जीवोपदेशमाह
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
बहु मन्नसु मा चरियं अमुणियतत्ताण ताण ता जीव । जइ सं निवारियाओ ता बारसु महुरबक्केण ॥। १८६ |
व्याख्या - बहु मन्यस्व भव्यामिदमितिमंस्थाः, मा इति निषेधे, चरितं धर्मकथन लक्षणम्, अमुणित तत्त्वानाम् अविदित परमार्थानाम् तासां आर्यिकाणाम् तस्माज्जीव । आत्मन् ! यदि विकल्पार्थः, तिष्ठन्ति सं निवारिताः निषिद्धाः ततो वारय निषेधय, मधुर वाक्येन - कोमल वच सेति गाथार्थः ।
इसका भावार्थ ऐसा है कि अल्पबुद्धिवाले भोले जीव रूपी क्षेत्रों में शुभ बोध रूपी श्रेष्ठ धान्य को नाश करने वाली टिड्डादि ईति समान कई एक साध्वियाँ परन्तु यहाँ पर सर्व साध्वियों का ग्रहण नहीं करना, वे साध्वियें ग्रामादि में विचरती हैं और दानादि धर्म कथा कहती फिरती हैं ।
साध्वियों को धर्म देशना का कथन करना एकान्त से सर्वथा अच्छा नहीं है । आगमों का सुन्दर कथन करना अर्थात् शास्त्रों की देशना देना ( तासां ) अर्थात् उन चैत्य वासिनी साध्वियों के लिए निषेध किया है ।
कुशास्त्रों की मति को विनाश करनेवाला तथा मुक्तिजाने योग्य भव्य जीव रूप पुण्डरीकमलों को विकाश करनेवाला जिनेन्द्र कथित दानादि धर्म निशीथ सूत्रको जानने वाले साधु को ही कहना योग्य है, किन्तु साध्वियों को नहीं वर्तमान काल में उन साध्वियों को प्रकल्प ग्रन्थ का अर्थात् निशीथ सूत्र और उसका अर्थ नहीं दिया जाता, . पहले के काल में दिया जाता था तब भी उसका व्याख्यान करने का निषेध था, इसही विषय में दृष्टान्त कहते हैं हरिभद्रसूरिजी को उनकी माता याकिनी महत्तरासाध्वी ने चक्कीदुग्गं हरिपणगं" इत्यादि एक गाथा का अर्थ नहीं बताया तो फिर अधिक बताने की बात ही क्या है ।
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इसी प्रकार तत्व को नहीं जानने वाली जो साध्वियाँ धर्मकथा की देशना देती हैं उनको मधुर वाणी से निषेध करना यह जीवानुशासन के पाठ का सारांश है ।
अब यहाँ पर उपर के पाठ की समीक्षा करते हैं । जीवानुशासन में साध्वियों को ग्रामादि में विहार करना तथा दानादि का धर्मोपदेश देना ये दोनों बातें भव्यजीवों को नुकसान करनेवाली होने से इनका निषेध किया है। इसका भावार्थ समझे बिना सर्व साध्वियों को धर्मोपदेश देने का निषेध करने वालों की बड़ी भूल है, क्योंकि यह अधिकार उस समय की चैत्यवासिनी भ्रष्टाचारी साध्वियों के लिए ग्रन्थकार ने कहा है इस ग्रन्थ में
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
उस गाथा की टीका में खुलासा कथन कर दिया है, कि अभी उन साध्वियों को निशीथसूत्र अर्थ सहित नहीं पढाया जाता किन्तु पहले पढाया जाता था और उस समय गुजरात आदि देशों में प्रायः चैत्यवासिनी वेशधारिणी साध्वियाँ थी और उन्हीं का अधिकतर संयम धर्म गिरा हुआ था ऐसी दशा में उस समय की उन साध्वियों को निशीथसूत्र आदि पढने की मनाई की गई तथा ग्रामानुग्राम विहार करने की और धर्मदेशना देने की मनाई की गई जो उन्हों के कर्तव्यों के अनुसार उचित ही था। इस बात का भावार्थ समझे बिना शुद्ध संयमी साध्वियों को निशीथसूत्र पढ़ने की तथा ग्रामादि में विहार करने का और धर्मदेशना देने का निषेध करना सर्वथा अनुचित है।
४५–जो महाशय "एकान्ते नैव सर्वथा तद्धर्म कथनं न नैव सुन्दरं भव्यम्" इस वाक्य से शास्त्रों की देशना धर्म कथा करने का साध्वियों को सर्वथा एकान्त रूप से निषेध करते हैं यह भी अनुचित है "सिद्ध प्राभृत" "नन्दीसूत्र की टीका" और "सिद्धपंचाशिका वचूर्णि" आदि सर्व मान्य प्राचीन शास्त्रों में मल्लीस्वामी आदि स्त्री तीर्थकरी तथा अन्य सामान्य साध्वियों को धर्मोपदेश देने का खुलासा उल्लेख है, इसके पाठ भी ऊपर बता सुके हैं । इसलिये जीवानुशासन का उपरोक्त वाक्य सर्व साध्वियों के लिए ठहराने वाले अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से उन्मार्ग की प्ररूपणा करनेवाले बनते हैं।
४६–एक गाथा का अर्थ न बतलाने सम्बन्धी याकिनी महसरा साध्वी बाबत हरिभद्रसूरिजी का कथन बतलाकर सर्व साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेध करनेवाले मिथ्या हठाग्रही ठहराते हैं, इस विषय में अधिक खुलासा ऊपर में लिख चुके हैं। .
४७- जिस समय अपने मिथ्यापक्ष को स्थापन करने के लिए और दूसरों के सत्यपक्ष को निषेध करने के लिए जिस मनुष्य को हठाग्रह हो जाता है वह अपने हठाग्रह की धुन में पुर्वापर का विचार किये बिना अटसंट लिख मारता है । वही दशा इस स्थान पर साध्वी का व्याख्यान निषेध करनेवाले शानसुन्दरजी आदि महाशयों की हुई है । देखो-यहाँ पर तो जीवानुशासन का उपरोक्त प्रमाण बतलाकर “साध्वीनां प्रतिषेधोनिराकरणं सिद्धान्तदेशनाया श्रागम कथनस्य" इस वाक्य से साध्वियों को व्याख्यान षांचने का सर्वथा निषेध करते हैं और "क्या पुरुषों की परिषद में जैन साध्वी व्याख्यान दे सकती है" इस ट्रेक्ट के पृष्ठ ५ के १३ वी पंक्ति से २० पंक्ति तक इस प्रकार लिखा है :
“यदि साध्वियों द्वारा जन कल्याणही करवाना है तो आज स्त्री समाज का क्षेत्र कम नहीं है वे साध्वियाँ महिलाओं को उपदेश देकर उनका उद्धार करें और यह कार्य कोई साधारण भी नहीं है एक महिला समाज का सुधार हो जाय तो अखिल संसार का कल्याण हो सकता है। शातासूत्र में आर्या गोपालिका तथा निरियावलिका सूत्र में साध्वी सुवता
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साध्वी श्याख्यान निर्णयः
ने महिला समाज को उपदेश दिया था अतः साध्वी स्त्री समाज को उपदेश देकर उनका कल्याण करे उसमें सब संसार का भला है।"
इस लेख में निरियावलका सूत्र और शातासूत्र के प्रमाण से साध्वियों को श्राविकाओं के सम्मुख धर्मदेशना देने की आशा स्वीकार करते हैं, इस प्रमाण से जीवानुशासन ग्रन्थ के उपरोक्त प्रमाण से सर्वथा एकान्तरूप से साध्वियों को धर्मदेशना देने का निषेध मिथ्या ठहरता है, जिस प्रमाण को आप बडी शूरवीरता से पेश करते हैं, उसी बात को आप अपने लेख से अप्रमाणित साबित करते हैं, जब साध्वियों के लिए स्त्रियों की सभा में धर्मदेशना देना मंजूर करते हैं, तब धर्मदेशना का सर्वथा निषेध करना व्यर्थ ठहरता है । तथा स्त्रियों को धर्मदेशना सुनाना और पुरुषों को नहीं सुनाना या पुरुषों को नहीं सुनने देना ऐसा किसी भी शास्त्र का प्रमाण नहीं हैं, परन्तु-स्त्री पुरुष दोनों एक साथ मिलकर साध्वी की धर्मदेशना सुन सकते हैं । इस विषय में हम ऊपर अनेक प्रमाण बतला चुके हैं । इसलिए साध्वी को धर्मदेशना देने का निषेध करनेवाले बडी भूल करते हैं।
४८-जैन शासन में साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इस प्रकार चतुर्विध संघ की स्थापना तीर्थकर भगवान् करते हैं, संघ का मुख्य कर्तव्य तप-संयम स्वाध्याय द्वारा प्रात्मकल्याण करना, आत्मकल्याण के साथ २ दूसरे भव्य जीवों को धर्मोपदेश से धर्म प्रवृत्ति कराकर परोपकार करना । धर्मदेशना स्वाध्याय में समझी जाती है, स्वाध्याय करना चारों प्रकार के संघ का खास कर्तव्य है। इस बात का भावार्थ समझनेवाले और जो शास्त्र प्रमाण हम ऊपर में बतला आये हैं, उन्हों को समझनेवाले कोई भी सज्जन साध्वी को धर्मदेशना देने का निषेध नहीं कर सकते, जिसपर भी ज्ञानसुन्दरजी आदि जो महाशय साध्वी की देशना का निषेध करने के लिए बडा आग्रह कर रहे हैं, उन लोगोंका साध्वियोंके प्रति द्वेष मालूम होता है, क्योंकि खुद व्याकरण पढे नहीं, सूत्रों की टीका का व्याख्यान सभा में नहीं कर सकते
और कई अच्छी पढी लिखी साध्वियाँ सूत्रों की टीका का सभा में व्याख्यान बांचती हैं, उनका प्रभाव भी समाज में अच्छा पडता है, यह बात साध्वी समाज के द्वेषियों से सहन हो नहीं सकती इसलिए साध्वी समाज की निन्दा बुद्धि में उनको नीचा दिखाने के लिए और अपना मिथ्या घमण्ड रखने के लिए साध्वी के धर्मदेशना का निषेध करते हैं और भद्र जीवों को उन्मार्ग में डालने के लिए कई प्रकार की कुयुक्तियाँ करते हैं। उन कुयुक्तियों का समाधान यहाँ पर लिखते हैं।
४९-अगर कहा जाय कि-साध्वी अधिक पढेगी, व्याख्यान बांचेगी तो उसको अभिमान पाजावेगा और साधु का अनादर करेंगी, इसलिए साध्वी को अधिक पढना, व्याख्यान बांचना योग्य नहीं । ऐसा कहना भी अनुचित है। क्योंकि देखो-अगर साध्वी अधिक पढेगी, ज्ञान वृद्धि होगी तो उससे सद्विवेक श्रावेगा जिससे साधुओं की बहुमान पूर्वक
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
चैत्यवासियों की शास्त्र विरुद्ध बहुतसी बातों की आचरणाओं का निषेध किया है। उसके साथ साथ उन चैत्यवासिनी साध्वियों को ग्रामादि में विहार करना तथा उपदेश देना दोनों ही बातों का निषेध किया है, उसके साथ यह भी बतलाया है कि "अडंतिधम्मंकहंतिप्रो" तथा “आर्यिका ईतय इव तिड्डाद्याः काश्चन न सर्वा" यह वाक्य ऊपर के मूल पाठ में तथा टीका के पाठ में खुलासा लिखा हुआ है, इससे ग्रन्थकार ने यह विषय उन वेशधारिणीयों के लिए कहा है, परन्तु सर्व संयमी साध्वियों के लिए नहीं जिस पर भी ग्रन्थकार के अमिप्राय विरुद्ध होकर के यह विषय सर्व साध्वियों के लिए ठहरानेवाले मायाचार से अभिनिवेशिक मिथ्यात्व का सेवन करते हैं।
४०-और भी देखिये-जिस तरह किसी ग्राम-नगर या प्रान्त में भ्रष्टाचारी साधुसाध्वियों का समुदाय रहता हो और उनके लोक विरुद्ध धर्म विरुद्ध व्यवहार के देखने से जैन शासन की अवहिलना होती हो, तब उसका सुधार करने के लिए यदि कोई सुधारक कहे कि-साधु-साध्वियों का अहार-पानी देना, वन्दना करना, और उन्हों का व्याख्यान सुनना इत्यादि कार्य पाप वृद्धि का हेतु है, इसलिए ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा कहने वालों का आशय उन साधु-साध्वियों का भ्रष्टाचार रोकने का होता है, परन्तु वे वाक्य शुद्ध संयमी सर्व साध्वियों के लिए नहीं माने जा सकते । इसही तरह से जीवानुशासन ग्रन्थकर्ता ने भी चैत्यवासिनी साध्वियों का विहार और उपदेश दोनों निषेध किया है, जिस पर भी इस प्रमाण को आगे करके सर्व शुद्ध संयमी साध्वियों को विहार करने का तथा उपदेश देने का निषेध करनेवालों की बडी अज्ञानता है।
४१-फिर भी देखिये-ऊपर के प्रमाण से यदि सर्व साध्वियों को व्याख्यान वांचने का निषेध किया जावे तो यह बात जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के सर्वथा विरुद्ध ठहरती है, क्योंकि "उत्तराध्ययन, नन्दी, सूयगडांग, ज्ञाताजी, निरयावली" आदि आगमों की टीका तथा प्रकरण और चरित्रादि अनेक शास्त्रों के पाठ ऊपर में बतलाकर हम साध्वी को व्याख्यान बांचने का अधिकार साबित कर आये हैं, यह नियम अनादिकाल से है, इसही से तो साध्वियों से प्रतिबोध पाये हुए पुरुष चारित्र लेकर यावत् सिद्ध होते हैं, इसलिए जीवानुशासन के नाम से सर्व साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेध करनेवाले जिनाशा के विराधक बनकर उत्सूत्र प्ररूपक ठहरते हैं।
४२-अगर निशीथसूत्रकोजाननेवालेकोही व्याख्यान बांचनेका अधिकारी मानकर और साध्वियोंको व्याख्यान बांचनेका सर्वथा निषेध कियाजावेतोयह भी बहुत अनुचित है, क्योंकि देखो-जैनशासन स्याद्वाद अनेकान्त है, उसमें एकान्त हठही नहीं हो सकता, देखिये-गौचरी जाना, व्याख्यान देना, इत्यादि अनेक बातों को मुख्य वृत्तिसे गीतार्थों के लिए आशा है, परन्तु इससे इनबातोंका अन्य सर्व साधुओंके लिए निषेध नहीं बन सकता अभीये बातें सामान्य साधु
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
भी करते हैं, और जिस प्रकार साधुओं के लिए योगवहन करके सूत्र वांचनेका तथा उपधान वहन करके श्रावकोंको नवकार मंत्र आदि सूत्र पढनेका मुख्यवृत्तिसे कहा गया है तो भी अभी बहुत साधु योग वहन किये बिनाही सूत्र पढते हैं । और उपधा न किये बिना अनेक श्रावकश्राविकार्ये नवकार मंत्र पढ़ती हैं, और कल्पसूत्र भी रात्रि के समय वार्षिक प्रतिक्रमण किये बाद 'काउसग्ग' ध्यान में सर्व साधुओं को सुनने की मुख्य विधि थी, एक साधु सब को सुनाता था, परन्तु आजकल (अभी ) लाभ के कारण देशकाल के अनुसार प्रत्येक गाँव में सर्व संघ समक्ष " कल्पसूत्र " बांचा जाता है । इसी तरह से यद्यपि निशीथसूत्र को जानने वाले गीतार्थ साधु को व्याख्यान वांचने का मुख्यवृत्ति से कहा गया है परन्तु देशकाल के अनुसार लाभ के लिए इस समय सामान्य साधु-साध्वियों भी व्याख्यान बांच सकती हैं, इसमें कोई दोष नहीं है, इसलिए इसमें एकान्त हठ करना उचित नहीं है ।
३०
४३ - जो महाशय कहते हैं कि-जीवानुशासन की वृत्ति श्रीजिनदत्तसूरिजी ने संशोधन की है, उसमें साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध किया है, ये जिनदत्तसूरिजी खरतरगच्छवालों के दादाजी होते हैं, उनका वचन खरतरगच्छवालों को प्रमाण करना चाहिये, ऐसा कहनेवाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं, क्योंकि यह वृत्ति १९६२ में बनी है और खरतरगच्छ के दादाजी को १९६६ में " सूरिपद " मिला है। इसलिए ये दोनों जिनदत्तसूरिजी भिन्न भिन्न हैं और वृत्ति संशोधन करनेवाले जिनदत्तसूरि के लिए "सप्तगृह निवासी " ऐसा विशेषण टीकाकार ने लिखा है, इसलिए यह जिनदत्तसूरिजी दूसरे हैं और वे जिनदत्तसूरिजी दूसरे हैं, जिनदत्तसूरिजी नाम के अनेक श्राचार्य हुये हैं। इसलिए वृत्तिका पाठ देखे बिना या दूसरों के कहने मात्र से अंध परंपरा से दादाजी का नाम लेकर भोले जीवों को भ्रम में डालना उचित नहीं है और ग्रन्थकार वृत्तिकार ने तथा वृत्ति संशोधन करनेवालों ने शुद्ध संयमी साध्वी के व्याख्यान बांचने का निषेध किया ही नहीं है। इसका विशेष खुलासा ऊपर लिख चुके हैं ।
४४ - जो महाशय साध्वियों को निशीथसूत्र पढने का निषेध समझे बैठे हैं वे भी भूल करते हैं, साध्वियों को निशीथसूत्र पढने का निषेध किसी भी शास्त्र में देखने में नहीं आया, इसलिए साध्वियाँ निशीथसूत्र को पढ सकती हैं, किस किस कार्य करने से संयम धर्म में क्या क्या दोष लगते हैं, तथा प्रनादवश अज्ञानता से कोई दोष लग जावे उसका कितना कितना और क्या क्या प्रायश्चित आता है इत्यादि बातों की जानकारी “निशीथसूत्र " पढे बिना नहीं हो सकती, और उन दोनों का बचावपूर्वक शुद्ध संयम भी तभी पाला जा सकेगा, जव कि - " निशीथसूत्र " पढ लिया जावेगा । इसलिए बुद्धिमती ज्ञानी संयमी साध्वियों को गुरु से अपनी योग्यता अनुसार " निशीथसूत्र " अवश्य पढना चाहिये। इसी जीवानुशासन की १८४ नम्बर की गाथा जो ऊपर बतलाई गई है, उसका भावार्थ विचारकर समझने वाले कोई भी महाशय साध्वियों को निशीथसूत्र पढने का निषेध नहीं कर सकते। क्योंकि
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
३३
बिनय भक्ति करेगी । साध्वियों में विशेष पढाई न होने से अज्ञानता के कारण अभिमान होता है और उससे उचित विनय, विवेक बुद्धि भी नहीं होती, जिससे ही अनपढ साध्वियों में विशेष करके विनय भक्ति का व्यवहार कम दिखाई देता है अतः साध्वी समुदाय में विशेष पढाई करने की अधिक आवश्यकता है । शान वृद्धि होने पर सद्-विवेक आवेगा, जिससे अपना और दूसरों का उपकार अच्छी तरह से हो सकेगा । जिस समुदाय में साध्वियों में विशेष पढाई करने का प्रचार अधिक होता है । उस समुदाय का संप भी अच्छा रहता है, व्याख्यान आदि भी हजारों लोगोंके समुदाय में बांच सकती हैं धर्मोपदेश द्वारा अनेक जीवों को धर्म कार्यों में प्रवृति कराती हैं। जिस समुदाय में पढाई का प्रचार अधिक होगा उस समुदाय में विनय विवेक, लघुता आदि प्रत्येक गुणों की वृद्धि होगी, जिस समुदाय में पढाई का प्रचार अधिक नहीं होगा, उसं समुदाय की साध्वियाँ निन्दा विकथा प्रमाद आदि कर्म बन्धन के कार्यों में अपना और दूसरों का समय बरबाद करेंगी जिससे न तो अपना आत्मकल्याण होगा और न दूसरों की आत्मा का परोपकार भी हो सकेगा जो लोग साध्वियों को अधिक पढने का विरोध करके शान की अन्तराय करते हैं उन्होंको झानावर्णीय कर्मों का बंध होगा इसलिए साध्वियों को पढ़ने से रोकना उचित नहीं है।
५०-अगर कहा जाय कि साधियाँ व्याख्यान यांचने लग जावेंगी तो साधुओं की अवज्ञा होगी, यह म केवल भ्रम है, क्योंकि देखो-कभी कोई गुरू साधारण बुद्धिवाला होता है और उनका शिष्य अधिक बुद्धिवाला शास्त्रों का ज्ञाता-गीतार्थ बनता है, योग्यता प्राप्त होने से गुरू और संघ मिलकर उनको आचार्य बनाते हैं, वेही आचार्य हजारों लोगों को धर्मोप. देश द्वारा प्रतिबोध देते हैं, जिससे उनकी और उनके दीक्षागुरु की शोभा होती है परन्तु गुरु की अवज्ञा कमी नहीं हो सकती इसही तरह से यदि पढ़ी लिखी विदुषी साध्वी व्याख्यान बांचकर गाँव गाँव में लोगों को प्रतिबोध देकर धर्म की प्रभावना करेंगी तो उससे साधु की अवक्षा कमी नहीं होगी किन्तु यडी शोभा होगी ; लोग कहेंगे अमुक समुदाय में साध्वियें कैसी बुद्धिवाली अच्छी पढ़ी लिखी हैं और कैसा अच्छा व्याख्यान बांचती हैं, कैसा २ उपकार करती हैं, धन्य है उस समुदाय को कि जिसमें ऐसी २ साध्वियाँ भी मौजूद है इस प्रकार व्याख्यान यांचने में साधुओं की प्रवक्षा नहीं और न किसी प्रकार धर्म की हानि ही है ! किन्तु महान शोभा और लाभ का कार्य है। ___ इतनी बात अवश्य है कि जिस गाँव में शुद्ध आचारपाला साधु मौजूद हो वहाँ पर साध्वयों को व्याख्यान बांचना उचित नहीं, परन्तु बडे शहरों में विशाल जैन समुदाय में साधु साध्वियों के अनेक उपाश्रय हो वहाँ पर साधु होने पर भी यदि श्रोताओं की भावना होतो वहाँ पर साध्वियाँ व्याख्यान बांचे तो कोई हानि नहीं और गाँवों में भी अगर कोई साधु भ्रष्टाचारी होने पर साध्वी व्याख्यान यांचे तो बांच सकती हैं, इससे पुरुष प्रधान धर्म में कोई हानि नहीं हैं।
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
५१-अगर कोई कहे कि छः छेद और चौदह पूर्व पढने की सादो को मनाई है, तो फिर साध्वी व्याख्यान कैसे बांच सकती है । यह कहना भी अनुचित है क्योंकि-छ छेद
और चौदह पूर्व आदि पढने की तो सामान्य साधु को भी गनाई है, उनका पढना योग्यतानसार होता है पर व्याख्यान तो सामान्य साध भी बांच सकता है, उस प्रकार साध्वी भी व्याख्यान बांच सकती है। कहीं कही ऐसा भी देखा जाता है कि कोई बहुत विद्वान होने पर भी भप्रावशाली उपदेश नहीं दे सकते हैं और कई अल्प पढे हुए भी अच्छा प्रभावशाली' उपदेश दे सकते हैं. इसलिए पढने की बात बतलाकर उपदेश देने की मनाई करना उचित नहीं हैं, साध्वियाँ केवल ज्ञान प्राप्तकर असन्त जीवों का उद्धार करके मोक्ष में जाती हैं। उस बात को समझनेवाले कोई भी बुद्धिमान व्याख्यान बांचने की मनाई कभी नहीं कर सकते ।
५२-अगर कोई कहे कि-साध्वी को संस्कृत पढने की मनाई है, और सूत्रों की टीका संस्कृत में है। इसलिए संस्कृत पढे बिना टीका समझ में नहीं आसकती, तो फिर व्याख्यान कैसे बांच सकती है। यह कथन भी उचित नहीं, साध्वी को संस्कृत पढने की मनाई किसी भी शास्त्र में नहीं है, यह तो अनसमझ लोगों ने हठाग्रह के वश में प्रत्यक्ष मिथ्या बात का प्रपंच फैलाया है, अभी वर्तमान में तपगच्छ की ही साध्वियाँ, लघुशांति, वृहदशांति,भक्तामर, स्नातस्या और सकलाऽहत् आदि अनेक स्तोत्र स्तुति पढती हैं तथा अभी कुछ वर्ष पहिलें आगमों की बांचना के समय में साधुओं के साथ साथ ही साध्वियों को भी, खास आनन्दसागरजी (सागरानन्द सूरिजी) ने सूत्रों की टीका बंचाई है। और जब कि ग्यारह अंगो को पढने की साध्वियों को प्राक्षा है, तो फिर उसकी व्याख्या पढने का निषेध कैसे हो सकता है।? कभी नहीं ? ग्यारह अंगों की तरह उनकी व्याख्या रूप अर्थ भी पढने की साध्वी को भगवान की आशा है । अतएव सूत्रों की संस्कृत टीका तथा सूत्रों को साध्वी व्याख्यान में बांच सकती है।
___५३-कई महाशय-चौदहपूर्वो को संस्कृत भाषा में जानकर साध्वियों को पूर्व पढने की मनाई समझते हैं, यह भी उनकी भूल है, क्योंकि संस्कृत भाषा के स्तोत्र चरित्र और सूत्रों की टीका आदि साध्वियाँ पढती हैं, यह बात सर्व गच्छों में सब साधुओं को भी मान्य हैं इसलिए संस्कृत भाषा में पूर्व होने से साध्वियाँ, पूर्वो की पढाई नहीं कर सकतीं, यह बात नहीं है किन्तु पूर्षों में मंत्र तंत्र यंत्र और वनस्पति आदि की अपूर्व शक्ति और अनेक प्रभाव शाली दिव्य वस्तुओं का संग्रह तथा अन्य भी अनेक गम्भीर विषयों का प्रतिपादन होने से सामान्य साधु साध्वियों को पढने की मनाई हो सकती है। और प्रतिक्रमण में " नमोऽस्तु वर्द्धमानाय" नहीं पढती जिसका कारण भी संस्कृत भाषा का नहीं किन्तु उसका उच्चारण "बाल वृद्ध मंदबुद्धिवाली स्त्रियाँ (साध्वियाँ) स्पष्ट रूप से नहीं कर सकतीं और "संसार दावा" सब के सुख से उच्चारणहोसके इसलिए "संसार दावा" बोलती है। और भी देखिये
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
३५
छछेद ग्रन्थ प्राकृत भाषामें होने परभी उनमें उत्सर्ग अपवाद विधिवाद और चरितानुवाद मादि अनेक गम्भीर विषयों का संग्रह होने से और कई बातों का भावार्थ, गुरु गम्य होने से सामान्य बुद्धिवाले साधु साध्वियों को पढने की मनाई की गई है। परन्तु निशीथ सत्र श्रादि छेद-सूब महत्तरा को (बडी साध्वी को) पढने की आशा भी है, इसलिए संस्कृतभाषा साध्वियाँ मा पढ सकती ऐसा कहना अनुचित है, और "संसार दावा" सम संस्थत प्राकृत है इसलिए केवल प्राकृत काहना अज्ञानता है, चौदह पूर्व और छेद प्राश पढने का बहाना लेकर धर्मोपदेश का निषेध करना उचित नहीं है .
___५४-अगर कहा जाय कि साध्वी श्राफक श्राविकाओं की सभा में व्याख्यान बांधेगी, तब श्रावकों के सामने देखानागा , सामने देखने से ब्रह्मचर्य की बाट का भंग होगा और मोहभाव उत्पन्न होकर भविष्य रह्मचर्य की हानि होने की संभावना होगी इसलिए साध्वी को सभा में व्याख्यान बांचना योग्य नहीं। ऐसा कहनेवाले जैन सिद्धान्तों की स्याहाद-अनेकान्त शैली को समझनेवाले नहीं मालुम होते हैं। क्योंकि मोहभाव से साध्वी को पुरुषों के सामने देखने की मनाई है। परन्तु उपकार बुद्धि से संसार की, शरीर की, कुटुम्ब की, धनसम्पदा की और आयष्य आदि की अनित्यता अशारदा बतलाते हए. धर्मोपदेश देते सम सामान्यतया करुणा बुद्धि से यदि पृरुषों के सामने देखा भी जावे लो कोई दोष नहीं आसकता। देखिये-दशवैकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन की ८१वीं गाथा में लिखा है जिस तरह सूर्य के ऊपर दृष्टि पडने पर तत्काल पीछी खींच लेते हैं उसही तरह से साधु की यदि स्त्री के ऊपर दृष्टि पड जावे तो शीघ्र पीछी खींच लेनी चाहिए, जिसपर भी साधु को स्त्रियों के व्रत पश्चक्खाण आदि करवाते समय स्त्री के सामने देखना पडता है। तो भी मोहभाव न होने से किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो सकता, परन्तु रागभाव से सापो देखने का निषेध है। फिर भी देखिये-अभी पढी लिखी चिदुपी साध्वी के पास में कुछ श्रावक मिलकर किती प्रकार का प्रश्न पूछने के लिए या धर्म की चर्चा करने के लिए जाते हैं और साध्वियाँ मी उन्हें अपनी बुद्धि के अनुसार समाधान भी करती हैं-धर्मोपदेश देती हैं। इसही तरह से साध्वियों के पास में श्रावक श्राविकायें व्याख्यान सुनने को जासकते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है।
५५-दूसरी बात यह है कि, कर्मग्रन्थ में पुरुष वेद का उदय घास की अग्नि के समान तथा स्त्री वेद का उदय छानों की अग्नि (भोभर) के समान और नपुंसक वेद का उदय नगर दाह की अग्नि के समान कहा है, अब यहाँ पर विचार करने का अवसर है कि शास्त्र के अनुः सार वेद के उदय मूजब विकार भाव पैदा होने में स्त्रियों से भी पुरुषों में धैर्यता कम सावित होती है, इससे जब साधु व्याख्यान बांचता हो उस समय स्त्रियाँ वस्त्र आभूषणादि श्रंगार सजकर जेवर का झनकार करती हुई और विनय भाव का लटका करती हुई व्याख्यान में आती हैं उसको देखते ही साधु का भी चित्त चलायमान हो आवेगा, तब तो आपके कथना.
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
नुसार साधु को भी व्याख्यान नहीं यांचना चाहिये । परन्तु ऐसी मिथ्यात्व को बढानेवाली, मिथ्या भ्रम जनक कल्पना सर्थश भगवान की प्राशा पालन करनेवालों के मन से कभी नहीं उठ सकती पर करुणा बुद्धि से संसार दावानल में जलते हुए और रोग, शोक वियोग आदि दुखों से आर्तध्यान करते हुए प्राणियों को उद्धार करने की भावना से शान्त रस मय वैराग्य उत्पन्न करनेवाला सर्वश भाषित धर्मोपदेश का व्याख्यान चलता हो, उस समय चाहे साधु हो या साध्वी हो अपने पुत्र पुत्री के तुल्य भावक श्राविकायें भगवान की वाणी सुनने को सामने बैठे हों उन्हों के सामने सामन्यतया उदासीनभाव से देखने में आवे तो उस समय विकारभाव का प्रसंग नहीं है। ऐसे अवसर पर विकारभाव नहीं हो सकता है, इसलिए विकारभाष होने का बहाना लेकर साध्वीमात्र को ही व्याख्यान यांचने का ही निषेध करने रूप भ्रम फैलानेवाले बड़े अज्ञानी ठहरते हैं।
५६-फिर भी देखिये- अगर सभा में सामान्यतया सामने देखने से ही विकारभाव पैदा होता हो तब तो खास भगवान के सामने समवसरण में ही गौतमस्वामी आदि साधु साध्वियों को दिखाने के लिए ही इन्द्रादि देव वैराग्यमय अनेक तरह का नाटक करते हैं यहाँ पर दिव्य मनोहर अनेक स्त्री पुरुषों के रूप साधु साध्वियों के देखने में आते हैं, तो मी सबको विकारभाव होने का कभी नहीं कह सकते । इसी तरह से साध्वी मी व्याख्यान समय सामान्यतया पुरुषों के सामने निर्विकारभाव से देख लेवें तो उसमें विकारभाव उत्पन्न होने का सब को कभी नहीं कह सकते हैं।
५७-अगर कहा जाय कि-अमुक गाँव में एक अमुक साध्वी व्याख्यान बांचती थी, एक भाषक के साथ उसका अति परिचय होगया वह श्रावक भी उस साध्वी के पास बारपार अकेला जाने लगा आपस में मोहभाव से बिगाड होकर धर्म की बहुत हानि हुई इसलिए साध्वी को व्याख्यान बांचला उचित नहीं है, ऐसा कहकर सब साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेष करना बड़ी भूल है। साध्वी ने श्रावक के साथ वाले परिचय किया जिससे इस प्रकार नुकसान हुआ । परन्तु समुदाय में व्याख्यान बांच से किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो सकता देखिये-किसी साधु के पास में कोई भाविका वन्दना करने को आती हो और साधु उस भाविका के घर में श्रहार पानी अादे के लिए बारम्बार जाता हो ऐसी दशा में कमी प्रति परिचय होकर मोदभाव से ब्रह्मचर्य की हानि हो जाय अथवा सर्वथा धर्मभ्रष्ठ होजावे, तो उसके कर्म की गति परन्तु उस एक का दृष्टान्त बतलाकर सब श्राविकाओं को गुरु महाराज के पास में वन्दना करने को आने का और सब साधुओं को श्राविकाओं के परों में पाहार पानी आदि के लिए जाने का निषेध कभी नहीं हो सकता इसलिए अकेली साध्वी का इष्टान्स बतलाकर के समुदाय में सब साध्वियों के व्याख्यान बांचने का निषेध करना सर्वथा अनुचित है
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
५८-फिर भी देखिये-जिसके मन में जैसा भाव भरा रहता है वह हर बहाने हरेक प्रसंग पर उसकी चेष्टा करके अपने मनोगत भाव को प्रकाशित कर देता है, उसको बुद्धिमान मर्मज्ञ लोग उसकी चेष्टा से उसके मनोगत भावना को समझ लेते हैं । इसही तरह साध्वी व्याख्यान बांचेगी तो लोगों के सामने देखने पर विकार भाव पैदा होगा। ऐसा बारंबार कहनेवालों को ही विकारी भाववाले समझने चाहिये। क्योंकि जिसने अपनी आत्मा के कल्याण के लिए संसारी माया छोडकर पंच महाव्रत लिये हैं तथा दूसरों का उद्धार करने की जिसके मन में हमेशा वैराग्य भावना लगी रहती है वह साध्वी व्याख्यान समय सामान्यतया निर्विकार भाव से उपकार बुद्धि से हित शिक्षा देती हुई पुरुषों के सामने देख भी ले तो भी किसी प्रकार का विकार भाव पैदा नहीं हो सकता है, परन्तु जिसके मन में विकार भाव भरा रहता है वह सब में अपने जैसा विकार भाव देखता है, उसके कर्म की गति उनके कहने लिखने या बारम्बार बकवाद करने पर भी कुछ नहीं हो सकता है, परन्तु ऐसा करके साध्वी समाज पर मिथ्या आरोप लगाने से दुर्लभ बोधि-अनंत संसार वृद्धि के कर्म अवश्य ही बांधेगे । क्योंकि सिद्धप्राभृत, नन्दी सूत्र की टीका आदि अनेक शास्त्रों के प्रमाण हम ऊपर बता चुके हैं, उन्हों में ज्ञानी पूर्वाचार्यों ने श्रावक श्राविकाओं के सामने साध्वियों को धर्मोपदेश देने की आज्ञा दी है, इसलिए ऐसी कुयुक्तियाँ करनेवाले अज्ञानी ठहरते हैं, किसी एक व्यक्तिगत का दृष्टान्त सब के ऊपर लागू नहीं हो सकता है।
५६-अगर कहा जाय कि-किसी साध्वी को केवल ज्ञान प्राप्त हो जाय तो उसको छदमस्थ साधु वन्दना नहीं करते हैं, तो फिर साध्वी व्याख्यान कैसे बांच सकती है ? ऐसा कहकर जो महाशय साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेध करते हैं उनका बड़ा ही अनुचित हठाग्रह है क्योंकि-वंदना करना अलग विषय है और व्याख्यान बांचना अलग विषय है, देखिये-जैन शास्त्रों में मुणों की पूजा है परन्तु व्यक्ति की नहीं । “मुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते, न च जाति न च वयः” इस प्रकार सब जगह गुणों की पूजा होती है। इसलिए अगर साध्वी को केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त हो जावे तो वह सब के भाव से वन्दनीय पूजनीय अवश्य है । और उनसे अपना संदेह भी पूछ सकते हैं परन्तु सिर्फ अज्ञानी लोगों के (व्यवहार विरुद्ध) संशय का कारण न होने के लिए द्रव्य से पंचांग नमाकर वन्दना करने का व्यवहार साधु का नहीं है, परन्तु केवल ज्ञानी साध्वी या अन्य छमस्थ साध्वी देशना देती हो तो उसको विद्याधर देवता और श्रावक श्राविका आदि सुनकर लाभ उठा सकते हैं । इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है इसलिए साधु के द्रव्य से व्यवहारिक वन्दना करने की बात बतलाकर धर्मदेशना देने का निषेध करना सर्वथा अनुचित है। फिर भी देखिये-यहाँ पर आपको प्रत्यक्ष प्रमाण बतलाता हूं कि-जिस तरह अपन लोग “नमो लोए सव्व साहणं,, कहकर पंच महा ब्रतधारी दर्शन ज्ञान चारित्र से मुक्ति का साधन करनेवाले सब साधुओं को हमेशा
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
ही अनेकवार वन्दना करते हैं। इसमें पंच महाव्रतधारी अपने से दीक्षा में छोटे सब साधुओं को भाव से वन्दना होती है। पंच महाव्रतधारी सब साधु वन्दनीय पूज्यनीय अवश्य ही हैं, परन्तु अपने से दीक्षा में छोटे हों उन्होंको व्यवहार से पंचाङ्ग नमाकर द्रव्य वन्दना करने का व्यवहार नहीं है । इसही तरह से महाव्रतधारी संयमी छद्मस्थ साध्वी हो या केवल ज्ञानी साध्वी हो गुणों की दृष्टि से वंदनीय पूज्यनीय अवश्य ही है। इसलिए साधुओं के वन्दना की व्यवहारिक बात को आगे करके श्रावक श्राविकाओं की सभा में साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध करना भूल है ।
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६० -- अगर कहा जाय कि - साध्वी को आहारक लब्धि नहीं होती तो फिर साध्वी व्याख्यान कैसे बच सकती है। ऐसा कहनेवालों को साध्वियों के व्याख्यान बांचने के ऊपर बड़ा ही द्वेष मालूम होता है। क्योंकि साध्वी अगर विराधक होकर अनेक प्रकार के दुष्ट कर्म करे तो भी आयुः पूर्ण करके सातवीं नरक में नहीं जा सकती और शुद्ध संयम पालन करती हुई उत्कृष्ट शुद्ध अध्यवशाय से गुणठाणों में चढकर शुक्ल ध्यान से घनघाती कर्म क्षय करके केवल ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति में जासकती हैं। इसलिए आहारक लब्धि न हो तो भी व्याख्यान बांचकर परोपकार करने में किसी प्रकार की बाधा नहीं सकती । ऐसी २ कुयुक्तियें करने पर भी साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध नहीं हो सकता । परन्तु जिन मनुष्यों को अपने स्वार्थवश दूसरों से द्वेष हो जाता है तब सत्याअसत्य का विचार किये बिना ही दूसरों के अवगुण कहने लग जाते हैं। इसही प्रकार कई साधु लोगों के और उन साधु लोगों के दृष्टि रागी पक्षपाती श्रावकों के भी साध्वियों के व्याख्यान पर अन्तर का पूर्ण द्वेष होगया है, जिससे संयमी साध्वी के ज्ञान गुणोंकों और उनके व्याख्यान आदि से होनेवाले शासनहित, परोपकार, जीवदया, व्रत पश्ञ्चक्खाण, सम्यक्त्व प्राप्ति आदि अनेक धर्मकार्यों के लाभ को न देखते हुए केवल व्याख्यान बांचने का निषेध करने की ही दुर्बुद्धि हुई है। इसलिए आहारक लब्धि आदि बिना प्रसङ्ग की बातें बतलाकर विषयांतर करके भोलेजीवोंको भ्रम में डालते हैं ।
६१-अगर कहा जाय कि "बृहत्कल्प" सूत्र में लिखा है कि- जिस मकान में साध्वी ठहरी हो यदि उस मकान का दरवाजा खुला हो तो उसके आगे एक पडदा दरवाजे के फाटक पर बांध देना चाहिए, जिससे दूसरे पुरुषों की दृष्टि साध्वी पर न पड सके। जब साध्वियों के लिए इस प्रकार का नियम है तो फिर साध्वियाँ श्रावक श्राविकाओं के समुदाय में व्याख्यान कैसे बांच सकती हैं ? इस प्रकार शंका करनेवाले जैन शास्त्रों के अति गंभीर भावार्थ को नहीं जानने वाले मालूम होते हैं क्योंकि देखिये - साध्वियाँ आहार करती हो अथवा पडिलेहन आदि करती हो उस समय किसी प्रकार का कुछ अंग खुला हो ऐसी दशा में अन्य पुरुष की दृष्टि पडना अनुचित है । अथवा अन्य मतवालों की दृष्टि बचाने के लिए और अपने स्वाध्याय ध्यान आदि धार्मिक कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न होने के हेतु खुले दरवाजे
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
के ऊपर कपडा बांधने की आशा है। किन्तु जब साध्वियाँ व्याख्यान बांचती है तब तो उपयोग पूर्वक अपना शरीर वस्त्र से ढके रहती हैं, और सुननेवाले भी अनेक मनुष्य होते हैं। इसलिए खुले दरवाजे पर कपडा बांधने की बात बतलाकर व्याख्यान बांचने का निषेध करना सर्वथा अनुचित है। अपने ठहरने के स्थानों में तो चाहे जैसे फटे पुराने मैले तथा छोटे वस्त्र पहनकर भी साध्वियाँ बैठ सकती हैं । किन्तु आहार-पानी, विहार, व्याख्यान, मन्दिर और स्थंडिल आदि के लिए पूरा वस्त्र ओढकर शरीर को सर्वाङ्ग ढककर ही बाहर जाना पड़ता है इससे किसी प्रकार की बेअदबी नहीं हो सकती । इसलिए उपयोग पूर्वक व्याख्यान वांचने में किसी भी प्रकार का दोष नहीं आ सकता है।
६२-अगर कहा जाय कि-किसी कारणवश साधु या श्रावक को साध्वियों के उपाश्रय में जाने का कार्य हो तो बाहर दरवाजे से ही खुंखार आदि आवाज देकर के उपाश्रय में जाना कल्पता है । जब साध्धियों के उपाश्रय में जाने के लिए पुरुषों की ऐसी मर्यादा है तो फिर साध्वियों के उपाश्रय में जाकर श्रावक कैसे व्याख्यान सुन सकते हैं,? यह कथन भी उचित नहीं, साध्वियों के उपाश्रय में पुरुषों को खुंखार आवाज करने की इसलिए मर्यादा है कि साध्वियाँ अपने कार्य में खुले अंग आदि हों तो खुंखार या आवाज सुनकर वस्त्र ओढ लें, अपना अंग खुला हुआ ढकले, अपनी मर्यादा पूर्वक सावधान होकर बैठें जिससे किसी प्रकार की अमर्यादा या लजा भंग न होने पावें, परन्तु व्याख्यान सुनने के लिये तो नियत समय पर श्रावक श्राविका अनेक जन साथ में आते हैं, जिससे साध्वियाँ पहिले से ही सावधान रहती हैं इसलिए श्रावकों को व्याख्यान सुनने के लिए साध्वियों के उपाश्रय में आने में कोई हानि नहीं है।
६३-यदि कहा जाय कि साध्वियाँ कल्पसूत्र का योग वहन नहीं करती इसलिए पर्युषणा के व्याख्यान में साध्वियों को कल्पसूत्र का व्याख्यान नहीं बांचना चाहिये। ऐसा कह कर साध्वियों को पर्युषणा में कल्पसूत्र बांचने का निषेध करनेवालों के ही गच्छ में, समुदाय में, आचार्य, उपाध्याय आदि सैंकड़ों साधु योग किये बिनाही कल्पसूत्र बांचते हैं, उन्हों को तो मनाई करते नहीं तथा खुद आप भी योग किये बिना ही प्रत्येक वर्ष में कल्पसूत्र बांचते हैं । और साध्वियों के लिये योग बहन करने का बहाना लेकर बांचने का निषेध करना यह कितना बड़ा भारी अन्याय है, जो महाशय अपने निजका और आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक आदि मुनियों को पर्युषण पर्व में कल्पसूत्र बांचने का निषेधकर सकते नहीं और कई जगह पर पंचाश्रव सेवन करनेवाले यति श्री पूज्यों को भी कल्पसूत्र बांचने का निषेधकर सकते नहीं, तथा अपने गच्छ के श्रावक श्राविकाओं को यति श्री पूज्यों के व्याख्यान में कल्पसूत्र सुनने का निषेध करते नहीं, और अन्तरद्वेष के मारे साध्वियों को कल्पसूत्र बांचने का उनका निषेध करते हैं यह कभी न्याय नहीं कहा जा सकता।
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
६४-फिर भी देखिये-श्री महानिशीथसूत्र आदि अनेक शास्त्रों में उपधान वहन किये बिना श्रावक-श्राविकों को नवकार मंत्र पढना गुणना नहीं कल्पता ऐसी विधि प्रतिपादित है, परन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुसार अभी विना उपधान वहन किये लाखों श्रावक-श्राविकाओं को नवकार मंत्र साधु साध्वी सिखाया करते हैं, यह बात प्रसिद्ध ही है। इसही प्रकार कल्पसूत्र भी पहिले तो पर्युषणा की रात्रि में संवत्सरी प्रतिक्रमण किये बाद सर्व साधु काउस्सग ध्यान में सुनते और एक साधू सब को सुनाता था यह विधि थी। परन्तु आज प्रत्येक गाँवों में नगरों में प्रति वर्ष सय के सामने कल्पसूत्र बांचने की प्रवृति शुरू है। जिस नगर में साधुओं का चौमासा हो प्राचार्य उपाध्याय श्रादि पदवीधर मौजूद हों तो भी बड़े बड़े शहरों में बहुत जगह यति श्री पूज आदि से भी कल्पसूत्र बंचाते हैं। ऐसी दशा में महाव्रतधारी पढ़ी लिखी विदुषी साध्वी पर्युषणा के व्याख्यान में कल्पसूत्र बांचकर सुनावे तो इसमें कोई हानि नहीं । जिस पर भी जो महाशय श्रावक-श्राविकों के सामने साध्वी को व्याख्यान बांचने का और पर्युषणों में कल्पसूत्र बांचने का निषेध करते हैं वह महाशय मिथ्या हठाग्रह करते हैं।
६५-अगर कहा जाय कि जिस तरह से साधुओं को जब केवलज्ञान होता है तो देवता आकर उत्सव करते हैं और स्वर्ण कमल रचते हैं उस पर बैठकर केवलज्ञानी देशना देते हैं । इसही तरह से साध्वी को भी केवलज्ञान होवे तब साधुओं की तरह केवलज्ञान का महोत्सव करने का तथा स्वर्ण कमल की रचना करने का और उस स्वर्ण कमल पर केवलज्ञानी साध्वी बैठकर धर्म देशना देने का किसी भी शास्त्र में देखने में नहीं आता। तो फिर अभी साध्वियाँ व्याख्यान कैसे बांच सकती हैं ? यह कथन भी अनुचित है। क्योंकि देखियेजिस प्रकार पुरुष के दीक्षा लेने के समय महोत्सव होता है, उसही तरह स्त्री के भी दीक्षा लेने के समय में महोत्सव होता है, यह बात “भगवती" "ज्ञाताजी,” “अन्तगड दशा" आदि अनेक शास्त्रों के प्रमाणानुसार जैन समाज में प्रसिद्ध है, जब दीक्षा लेने के समय पुरुष और स्त्री दोनों के लिए अपने २ पुन्यानुसार महोत्सव होने का अधिकार है चन्दनवाला आदि के दीक्षा समय महोत्सव होने का कल्पसूत्र की टीकाओं आदि शास्त्रों में उल्लेख आता है तब दीक्षा लिए बाद उत्कृष्ट तप संयम की आराधना करके क्षपक श्रेणी चढकर शुक्ल ध्यान से घनघाती कर्मों का क्षय करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन की प्राप्ति कर लेवें ऐसी महान् शुद्ध निर्मल पात्मा के लिए केवलज्ञान का महोत्सव तथा धर्म देशना देने का निषेध करना कोई भी बुद्धिमान नहीं मान सकता और साधु हो अथवा साध्वी हो उनके लिये किसी बात का महोत्सव होना, देवता या मनुष्यों का आना, वंदन-पूजन-मान-सत्कार का होना ये बातें अपनी २ पुण्य प्रकृति के अनुसार होती हैं । और किसी २ मुनियों के प्राणांत उपसर्ग के समय भी कोई देवता या मनुष्य नहीं आते, और प्राणान्त होने पर आयु पूर्ण करके देवलोक
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः .
में चले जाते हैं अथवा कोई केवलज्ञान पाकर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । इसलिए साधुओं की तरह साध्वियों के केवलज्ञान महोत्सव होने का या देशना देने का निषेध किसी प्रकार नहीं हो सकता। जिस साध्वी के छद्मस्थ अवस्था में अथवा केवली अवस्था में जितने २ देशना देने के लिए परोपकारी भाषावर्गणा के पुद्गलों का जितना २ बंध पडा होगा उनको भोगने के लिए (क्षय करने के लिए ) देशना देकर परोपकार अवश्य कर सकती हैं । यह कर्म
के अनुसार अनादि सिद्ध नियम है, इसको कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता। ६६-फिर भी देखिये-गृहस्थ लोग हर समय, छः काय के जीवों की विराधना करते हुए १७, १८, पापस्थानों का सेवन करके कुटुम्ब, शरीर आदि की मोह माया से, क्रोधादि कषायों से अनेक प्रकार के कर्म बंधन करते रहते हैं। ऐसी दशा में साध्वीगण ग्राम नगर आदि में विहार करती हुई श्रावक-श्राविकाओं के समुदाय में जब तक व्याख्यान बांचती रहेगी, तब तक भव्य जीवों के पूर्वोक्त कर्म बंधनों के कारणों से छुटकारा रहेगा, और भगवान् की वाणी सुनकर वे लोग परमानन्द प्राप्त करेंगे, शुभ ध्यान से अनेक भवों के अशुभ कर्मों का नाश होगा तथा साध्वीगण की देशना से सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, दान; शील, तप, भाव, आदि शुभ कार्यों से अनेक प्रकार का लाभ प्राप्त होगा और कई भव्य जीव वैराग्य प्राप्तकर गृहस्थाश्रम छोडकर संयम लेकर अपना आत्म कल्याण करेंगे, इसीलिये सिद्ध प्राभत आदि में साध्वी के उपदेश मे परुषों का सिद्ध होना लिखा है। इस प्रकार साध्वीगण के व्याख्यान से अनन्त लाभ हुए हैं, होते हैं, और आगे भी होते रहेंगे, ऐसे सब जीवों के अभयदान के हेतु आदि अनेक लाभों का विचार किये विना अनी तुच्छ बुद्धि अज्ञानतावश साध्वीगण का व्याख्यान निषेध करके उपरोक्त पाप प्रवृति का कारण और धर्म कार्यों की अन्तराय करते हैं यह सर्वथा अनुचित है।
६७-कई महाशय कहते हैं कि भगवान महावीर स्वामी के सामने दीक्षा दी हुई, ३६००० साध्वियां थी, उनमें १४०० साध्वियों को तो केवलशाम होगया था। ओर अन्य साध्वियां भी ११ अंग आदि आगम पढी हुई थी' परन्तु उनमें से किसी ने भी श्रावक श्राविकाओं के सामने देशना दी हो व्याख्यान बांचकर किसी को प्रतिबोध दिया हो, ऐसा किसी भी शास्त्र में लिखा हुवा देखने में नहीं आता, तो फिर अभी की साध्विये व्याख्यान कैसे बांच सकती हैं। यह कथन भी अनसमझवालों का ही है, क्योंकि देखिये-भगवान के सामने ३६००० साध्विये मौजूद थी, और लाखों श्रावक व्रतधारी मौजूद थे परन्तु किसी साध्वी को किसी भी श्रावक ने दान दिया हो या वस्त्र पात्र कम्बलादि वहोराये हों ऐसा किसी भी शास्त्र में व्यक्तिगत नाम लेकर लिखा हुवा देखने में नहीं आने पर अगर कोई कुतर्क करेगा कि-किसी श्रावक ने किसी साध्वी को दान नहीं दिया, ऐसा कहनेवाले को अज्ञानी समझा जाता है, क्योंकि साध्वियों को आहार आदि देना, वस्त्र पात्र कम्बलादि वहोराना श्रावकों का खास कर्तव्य है। अगर भगवान के सामने किसी साध्वी को किसी धावक ने आहारादि
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
दान देने का किसी व्यक्तिगत नाम का उल्लेख किसी शास्त्र में न होने पर भी दान देने का माना जाता है इसी प्रकार पढी लिखी छद्मस्थ साध्वी हो या केवलज्ञानी साध्वी हो उनके परोपकार के लिये भाषावर्गणा के पुद्गल बंधे हुवे होंगे तो वह साध्वी श्रावक श्राविकाओं भव्य जीवों के सामने अवश्य ही देशना देकर परोपकार कर सकती है। क्योंकि खास केवलशानी तीर्थकर भगवान् के ही जब तक भाषावर्गणा के पुद्गलों का बंध रहता है तब तक ही देशना देकर परोपकार कर सकते हैं, और भाषावर्गणा के पुद्गलों का क्षय होने पर देशाना बंधकर देते हैं अथवा अनशन कर लेते हैं । इसी तरह से छमस्थ साध्वी हो या केवली साध्वी हो अथवा साधु हो वा कोई भी संसारी प्राणी हो जब तक जिसके भाषावर्गणा के पुद्गलों का बंध रहेगा तब तक ही वह बोल सकता है, और निकटवाले हर कोई प्राणी सुन सकते हैं, इस बात को भगवान् की वाणी पर श्रद्धा रखनेवाला कोई भी जैनी निषेध नहीं कर सकता, इसी तरह से संयमी पढ़ी लिखी साध्वी अपने भाषावर्गणा के पुद्गलों को क्षय करने के लिये धर्मदेशना दे सकती है और कोई भी भव्यजीव उनकी देशना सुनकर लाभ उठा सकते हैं। अब मेरा यही कहना है कि भगवान् के शासन में किसी भी साध्वी ने व्याख्यान नहीं बांचा ! ऐसा कहने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं इस विषय में अनेक शास्त्रों के प्रमाण ऊपर वतला चुके हैं। जब कि-साध्वियों को बारह १२ प्रकार का तपाधिकार में ५ प्रकार के स्वाध्याय करने का ग्यारह ११ अङ्ग पढने का तथा आत्म कल्याण के साथ भव्य जीवों का परोपकार करने का पूर्णतया (सब तरह से) अधिकार है उसमें देशना देने का भी अधिकार आजाता है, और श्रावस्यकादि अनेक शास्त्रों में
चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपरणत्तो धम्मो मंगलं चत्तारिलोगुत्तमा, अरिहंतालोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपएणत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे शरणं पवज्जामि,
साहु सरणं पवज्जामि, केवलिपरणतं धम्म सरणं पवज्जामि ॥ ये तीन गाथानों के कथनानुसार धर्म का ही आधार भव्य जीवों को है, केवली प्रणीत धर्म मंगल रूप है, उत्तम है, और शरण अंगीकार करने योग्य हैं, अब विचार करना चाहिये कि- केवली शब्द में साधु साध्वी का समावेश होता है, और हरेक तीर्थकर के शासन में साधुओं से प्रायः दुगुनि साध्वियां केवलशानी होती है । इसलिये जिस केवली साध्वी को मंगल रूप, उत्तम और उसका प्ररूपित धर्म शरण करने योग्य माना जाय जिससे भव्य जीवों का संसार से उत्तीर्ण होना मानते हैं, इस वास्ते उनकी देशना भी सुनने योग्य है यह बात अनादि सिद्ध है । इति शुभम् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
श्री मणिसागरसूरिजी म० आज्ञा से
मुनि-विनयसागर
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
परिशिष्ट नं. १ जो जो साधुओं ने अपने आश्रित साध्वियों को व्याख्यान बांचना निषेध करके ज्ञान वृद्धि की अंतराय की, उनकी साध्वियों की कैसी दुर्दशा हुई उसका दिग्दर्शन कराने वाला १ लेख जैन पत्र पु० ३७ अंक ४० का १६॥ १०॥ ३८ का विक्रम् १६६४ पासो वदि ८ रविवार को भावनगर से प्रकाशित हुआ वह लेख नीचे उर्द्धत किया जाता हैसाध्वी संस्था आजे समाज माटे कोयड़ा रूपे केम बनी ?
[ लेखिका-साध्वी खान्तिश्रीजी ] अाजे केटलाये समय थया पुरुष वर्गे "स्त्री" नी शक्ति, बल अने बुद्धि केवी रीते दबावी दीधी छ ? केटली हदे तेने नीचे उतारी पाड़ी छे? तेमो जो उल्लेख करवा मां आवे तो मोटुं एक पुस्तक थाय; परन्तु अत्यारे ए विवेचनं नहीं करता साध्वी संस्था तरफ लक्ष खेचाय छ। आजे साध्वियो मां अज्ञान, कुसंप, झगड़ा अने कुथलीअो केम वधी ? तेनुं जरा निरीक्षण करीए । __पहेला तो घरनी अंदर स्त्रियो नै कोई पण प्रकारनी केलवणी अपाती नथी । तेना मां उच्च संस्कार रेड़ाता नथी । तेथी घरनी अंदर केम वर्तवु ? ते तेनी समझ मां होतुं नथी। केलवणी नहीं पामेली स्त्रिो माता पुत्री, सासू बहू, देराणी जेठाणी अने नणंद भोजाई आपस आपस मां लड़Q काम माटे हुशा तुशी करवी एक बीजा पर हुकुमो चलाववा-श्रावो वर्ताव चाली रह्यो होय छे।
वली पुरुषों नी बीक थी कोई दिवस सारूं पुस्तक वाचवू के सद्गुरू नो संग करवो श्रेतो एने होय ज नहीं। एने तो घरनी चार दीवालों बच्चे रात दिवस पुराई रहेवानु । जगतनी अंदर सुं सु चाली रह्यं छे ? दुनिया कई दिशाए गमन करी रही छे ? एने भानज न होय, केम के घरना काम माथी ए ऊंची ज न आवे । श्रावी रीते तेनी बुद्धि अने शक्ति बेड़फाइ जाय छे अने पोतार्नु पराक्रम फोरवी शकती नथी। . . कम भाग्ये ए बिचारी विधवा बने अने बे बरस खुणो पालवानुं होय। पछी विधवा बनेली ते कहंक धर्म नो आश्रय ले छे। एटले के घरना काम थी परवारी देरासरे दशन करवा, गुरू महाराज ना दर्शन करवा अने प्रतिक्रमण करवा विगेरे क्रिया मा जोडाय । त्यां एने साध्वीजीओ ना संग थाय अने समझाववा मां आवे के बेन ! तारा एक पेट माटे शा सारू पाखा घरनों धंधों कुटे छे ? हवे तारे घरमा शुं रह्य छे नाहक एटला कर्म शा माटे बांधवा जोपए ? 'चाल तूं मारी चेली था, तने काम नहीं करवू पड़े अने त्हारा आत्मा नो उद्धार कर , प्रा उपदेश र अज्ञान बाईना हृदय मां वसी जाय । एना मन मा एम थाय छे के हवे मारे काम नहीं कर पड़े ने आ घर मांथी छुटीश।
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
1
आम अमुक अपवाद ने बाद करता दुःख गर्भित के मोह वैराग्य थायः ए ए मार्गे जवां तैयार थाय । घर ना मायलो समझे ठीक थयुं । रोटला आपवा मट्या कारण आजे विधवा घर मां फरती होय ए सोने मन काली नागणी भासे छे विधवा ऊपर सितमो गुजराय छे से अत्यारे लखवा इच्छती नथी । श्रपणे साध्वी जीवन ज विचारवानुं छे । ए बाई लाल कपड़ा दूर करी धोला वेश मां आवी जाय छे, अर्थात् परम पवित्र भागवती दीक्षा ने ग्रहण करे छे ।
૪
पछी तो आपणे जोइए छीए के सर्व काम नो बोझो शिष्याओ ऊपर ज मूकाय छे अने वडीलो तरफ थी हुकमो नी हार माला तो चालू ज होय । जेम गृहस्थाश्रम मां सासू, सासू पशु भजवे तेम दीक्षा मां गुरू, गुरूपणुं भजवे छे । आ शुं तेमनी ओछी भूल कहेवाय ? अलवत, गुरू नो विनय करवो, तेमनी आज्ञा मां खड़ा पगे ऊभा रहेवुं, परन्तु ते विषे तेमनी कदर होवी जोइए पण आजे ए बधुं विसराइ गयुं छे । पोते तो चार पांच बाइओना घेरा मां बेसी घरो घरी पंचात कूठे अने विकथाओ मां उतरी पोता ना समय ने बरबाद करे छे । शिष्याओ ने भणाववानी पण जरूरत नहीं भेटले अभ्यास मां पण पछात । पंच प्रतिक्रमण कर्या ने चार आठ चोढालिया, थोड़ा क स्तवन सज्झायो कर्या पटले बेड़ा पार । पण हां, क्या थी वधे ? गुरुजीश्रो भणेली होय त्यारे ने ?
अज्ञानमय जीवन प्रथम थी ज हतूं नै पाछल थी पण तेम थवा म्युं । कलह, ईर्षा - अदेखाइ, चरसा चरसी विगेरे दूषणो जीवन मां जड़ घाली रहेल पहेले थी ज हता । तेने दूर करवा, जीवन सुन्दर बनाववा, त्यागी बनावनार त्यागीओ तरफ थी जराये सूचना के समझाववा मां आयु नहीं । समयनी कठिनता, आत्मा केम उज्वल बने ? जीवन सु यशश्वी
म थाय ? तेनुं एने भानज न करावयुं । कारण एने तो घरना काममा थी मुक्त करवी हती अने चेलीनी लालसा हती ते काम तो नहींयां पण कर पड़े छे ! कहो, हवे एना मां थी अज्ञान, कलह अने ईर्षा आदि दोषो कई रीतिए दूर थाय ?
लुंज नहीं पण पू० मुनिराजो नी उपाधि कंद साध्वी संस्था माटे ओछी नथी । तेओ प्रथम थी ज ' स्त्रीवर्ग ' ने दासी तरीके गणना मां देवाइ गरला दोवा थी अने शास्त्र मां थी एकाद दाखलो ( जेवो के सौ वर्ष नी दीक्षित साध्वी आज ना दीक्षित साधु ने वांदे) आगल धरी, साध्वी संस्था ने तुच्छगणी पोतानी ताबेदारी मां रहेषा हकुमत चलाववा हिम्मत करे छे ।
गुरु नो विनय करवाना बाना थी साध्वीजीओ पासे श्री, गृहस्थो नी जेम मुनिराजो पोताना कपड़ा धोवा, श्रोघा वणवा पाठा भरवा, कामलीओ नी कोरो चीतरची, कपड़ा सीबवा भने पात्र रंगवाना कार्यो करावे छे । जाणे नोकरड़ीओ राखी होय तेम एक पछी एक काम ते तरफ थी तैयार ज होय ।
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साध्वी व्याख्यान निर्णय:
४५
मोना स्वार्थी हृदय नी अजाण बिचारी सरल साध्विश्र रखेने गुरुनो अविनय थई जाय, गुरु नाराज थइजाय श्रेम बीती मने के कमने एओ श्री ना कार्यों करे छे । एवा कार्यों सावि ना पासे थी करावया पशुं साधुओ ने घटित छे ? आगलना साधु साध्विश्र पासे धी सुं प कार्यो करावता हता ?
आगल बंधी ए तारक गणाता गुरुनो, साध्विश्रो प्रत्ये आशा छोड़े छे के - साध्विश्रो श्री सूत्र न पंचाय, व्याख्यान न अपाय । श्रावी रीत नी अटकायत श्री साध्विजीश्रो संस्कृत मागधी अभ्यास करतां अटकी जाय छे । कारण ज्यारे सूत्रो न वांचवा होय ने व्याख्यान न आपवुं होय तो एवं उच्च ज्ञान मेलवी शुं करे ? आम निरुत्साह बनी अभ्यास मां ज्ञान मां आगल वधी शकती नथी । वल्के संयम नुं रहस्य समझवुं दूर रही जाय छे। में घणी साध्वीजीओ ना मुख श्री सांभल्युं छे के - अमोने व्याख्यान अने सूत्रो बांचवानी गुरु तरफ
ज्ञा नथी जेथी व्याख्यान सांभलवा गुरुनी साथै ज चौमासा करीए छीए । ज्यारे पूछवा मां आवे के दर रोज व्याख्यान मां जता त्यारे दुखी हृदये जवाब आपी कहे के काम न होय तो जहए | आधी सांभलनार ने आश्चर्य थया बिना नहीं रहे। शुं मुनीराजो पोताना कार्यों कराववा साध्विन ने साथे चोमासुं कराता हशे ? श्रावा कारणों ने लई क्रमे परिचय वधतो जाय छे अने छेवटे अति परिचय ना योगे जैन शासन ने लजवनारी गंदी बातो बहार आत्रेछे ।
हजु पण पूज्य मुनि महाराजो समझे अने साध्विओ उपर थी पोताना कार्यो नो बोजो उतारे तेमज व्याख्यान भने सूत्र बांधवानी छूट आपे, अभ्यास वधारवा खाश भलामण करे तो आज नुं वातावरण ( अज्ञान, कुसंप, कलह कुथल विगेरे ) फरीजतां वार लागशे नहीं। पछी समाज जोई शकशे के साध्वी संस्था केटलं कार्य करी शके छे अने समाज ने केवी उपयोगी थाय छे आगलनी महासती शिरोमणि साध्वीजीश्रो ज्ञान में वधेली होवा थी चरित्र धी भ्रष्ट यता मोटा ऋषिश्रो ने पण सद्बोध थी मार्ग ऊपर लावी शक्या छे एवा अनेक दाखलाओ मौजूद छे । ते आजे कोई ना थी अजारायुं नथी ।
ते शक्ति आज पण नाश पामी नथी। जो तेने पुरती सगवड़ो करी देवा मां आवे तो निस्तेज बनेली शक्ति सतेज बने मां कांई आश्चर्य नथी ।
आज श्रावको पण साधुत्रो ना भरमान्या थी जेम के पुरुष पद प्रधान छे में स्त्री नीची वे तेथी साध्वियो प्रत्ये बहूज श्रोछी लागणी धरावे छे । तेमना व्याख्यान श्रवण थी पण श्रावको अभड़ाई जाय छे। ख पूछो तो तो साध्वी जी प्रत्ये भाग्येज कोई पूज्य भाव धरावता हशे । साधुओ ने भणाववा माठे सौ सौ रुपया ना पगारदार पंडितो त्यारे साध्विभो माटे पांचनो ए नहीं । प्राशुं ओछी संकुचित दृष्टि कद्देवाय ।
हजू प श्रावको चेते अने साध्वियो ने बहुमान नी दृष्टि थी जुए । साध्वीजीश्रो मा चौमाला अलग करावे अने तेमने अभ्यास माटे पुरती करे। जो साध्वी संस्था सुधरशे तो जरूर स्त्री
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः ।
वर्ग सुधरवानो संभव रहे । तेनी प्रजा पण बा होश बनशे जो आम थाय तो खरेखर भविष्य मां जैन समाज सारी पायरीए आवी शकशे अवी आशा राखवी अस्थाने नथीज।
महासती पूज्य साध्वी जी महार जो, हवे आपणे समजवू घटे छे के गृहस्थाश्रम त्यागी साध्वी जीवन प्रात्म कल्याणार्थ ग्रहण कर्यु छे तो खाली जगनी जंजाल, आपस मां कुसम्प वधारी जीवन ने बरबाद करवू योग्य नथी, घर करी बैठेल प्रमाद ने तिलांजली आपी आत्म सन्मुख दृष्टि राखी, पोतार्नु अने परनु जीवन उज्वल बनावqए आपणी फरज छे ।जो आपणे आपणा पग ऊपर रही शु तो जे समाज ने आजे भारे पड़ता गणाइये छीर ते भार समाज उपर थी ओछो करी शकीशुं । अ पणा जगेर वर्त्तवानी समाजनी करड़ी दृष्टि थइ छे ते आपणा शुद्ध परिवर्तन थी मीठी दृष्टि थता वार नहीं लागे। आलेख द्वेष बुद्धि थी नथी लख्यो छतां कोई ने अघटित लागे तो क्षमा या छ।
. परिशिष्ट नं. २ हमने जयपुर से ज्ञानसुन्दरजी के साथ पत्र व्यवहार किया पहले पत्र का जवाब तो शानसुन्दरजी ने दिया, दूसरे-तीसरे पत्र का जवाब नहीं दे सके-पत्रों की नकल नीचे लिखे मुजिब है।
ज्ञानसुन्दरजी में कमजोरी व अन्याय
ज्ञान सुन्दरजी को सूचना । ___ जब मैं फलौदी से विहार करता हुवा कापरड़ाजी तीर्थ में आपसे मिला था तब मैंने आपसे कहा था कि-खरतर गच्छ के विरुद्ध हमारे साधु साध्विगे विरुद्ध ट्रेक्ट और लेख जितने छपवाते हैं वो दूसरों को भेजते हैं परन्तु हमको तथा हमारे गच्छ के साधु और श्रावकों को नहीं भेजते है यह उचित नहीं है सब ट्रेक्ट मेरे को दो मैं उनका उचित जवाब दूंगा, उस पर आपने बतलाया कि-अभी मेरे पास नहीं है चौमासा में सा ट्रेक्ट अवश्य मेज दूंगा
और साध्वी व्याख्यान संबंधी चर्चा का लेख भी भेज देने का मंजूर किया था वो आज तक नहीं भेजा, और अजमेर की दादाबाड़ी वाले लेख का समाधान करने बाबत आपने मेरे को कहा था तब उस पर मैंने आपले वायदा किया थाकि-मैं अजमेर जाकर देख कर लिखवाने वाले की तथा उसकी प्रेरणा से करने वालों की सलाह लेकर आपको खुलासा लिखूगा, इन तीन बातों का मेरे और आपके बीच में वायदा हुवा था उसके अनुसार मैंने जयपुर से आपको, फलौदी पत्र लिखा था, जिसकी नकल इस प्रकार है
मणिसागर विनयसागर जयपुर ।
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
४७
श्रीमान् शानसुन्दरजी म० आदि योग्य अनुवंदना वंदना सुखसाता बंचना, और हम अजमेर तीन दिन ठहर कर जयपुर आगये थे, यहां पर आये बाद तबियत की गड़बड़ी रही इस वास्ते पत्र में विलंब हुआ, हमने अजमेर में आपके कहे अनुसार श्रावकों से वार्तालाप किया और जोधपुर से भी सलाह मंगाई सब का सार यह है कि-जमाना शान्ति और संप का है, दोनों तरफ से विरोध न बढ़ना चाहिये, इसलिये न्याय की और हित की दृष्टि से वे लोग भी इस लेख को सुधारले । और आपने जो जो इस गच्छ के समुदाय के विरुद्ध लेख निकाले हैं उनको आप भी वापिस ले लें, ऐसी बहुत लोगों की इच्छा है इसी में ही समाज का भला है। और साध्वी व्याख्यान बावत आपका और मेरा व्यक्तिगत विवाद है, इसलिये आपने कापरड़ाजी में लेख भेजने का मंजूर किया था, उस मुजब आप लेख भेज देना, उस पर मैं भी मेरा लेख भेज दूगा, और १२ ट्रेक्ट भेजने का कहा था सो सब की २-२ कापी भेज देना । दः विनयसागर।।
१- अब आपसे मेरा यही कहना है कि-साध्वी व्याख्यान का विषय आपके और मेरे बीच में व्यक्तिगत है जब आपने मेरे उपर लेख छपवाया वो उसी समय आपको मेरे पास भेज देना था यही न्याय की बात है, परन्तु जिस पर भी मैंने भंगवाया तो भी
आपने आज तक नहीं भेजा। जिसके उपर लेख छपवानाउसको न भेजना, यह आप अपनी कमजोरी साबित करता है, इसलिये यह जाहिर सूचना करता हूकि-बिना विलंब वो लेख भेज दें, उसका प्रत्युत्तर देने को तैयार हूं।
२-आपने अपने नाम से या आपके अनुयायी भक्तों के नाम से खरतर गच्छ के विरुद्ध जितने ट्रेक्ट आपके द्वारा निकाले गये हैं वो सब भेजने में देरी न करें. मैं आपको कापरड़ाजी में साफ कर चुका हूं कि-जो जो व्यक्तिगत निन्दनीय घ्रणित और आक्षेप वाले आपके लेखों का जवाब मैं नहीं दूंगा। और आपके उपर वैसे आक्षेप भी न करूंगा सिर्फ शास्त्रीय प्रमाणानुसार युक्ति पूर्वक उत्तर दूंगा ट्रेक्ट भेजें।
३-इस पत्र के पहुंचने पर पन्द्रह दिन के अन्दर आप लेख व ट्रेक्ट भेजने में बिलंब न करें उपर लेख विज्ञापन के रूप में व जाहिर पत्रों में छपवाने का विचार किया था, पर आपकी मित्रता के कारण न छपवा के पहले आपको भेजा है। ___ ४-विशेष सूचना यह भी आपको कह देना उचित समझता हूं कि-आगे से किसी अन्य व्यक्ति के नाम से कोई भी लेख इस विषय का प्रकाशित न करावें, ऐसान करने पर सभ्य समाज में क्लेश फैलाने से आपकी मायाचारी व कमजोरी साबित होती है, यह मैंने हित बुद्धि से आपको इतनी सूचना की है। शुभम् २६-४-४२
प्र. पं० मुनि मणिसागर
व कलम विनयसागर
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क
लावी व्याख्यान निर्णयः
तीर्थ श्री कापरड़ाजी
ताः ६।५४२
श्रीमान उपाध्यायजी श्री मणिसागर जी महाराज- मु० जयपुर
सादर वंदना पश्चात् विदित हो कि आपका पत्र तारीख २६-४-४२ का लिखा हुआ ता. ५-५-४२ को रजिस्टर द्वारा मिला। पत्र पढ़ने से सब हाल मालूम हुआ। पर यह समझ में नहीं आया कि एक ओर तो आपने मित्रता पूर्वक पत्र लिखा है और दूसरी ओर पन्द्रह दिनों की धमकी दी है। खैर मैंने आपके पत्र का जवाब मित्रता के नाते दिया न कि धमकी के डर से । श्रागे ट्रेक्ट भेजने के विषय में आपने लिखा कि हम और हमारे साधु या श्रावकों को नहीं देते हो इत्यादि । पर ऐसी बात नहीं है ट्रेक्ट निकला तो सबसे पहले फलौदी एवं अजमेर वालों को ही भेजा था। कि जिन्हों के कारण लिखा गया था बाद बीकानेर जोधपुरादि अन्य स्थानों में भेजा गया था। यदि आपको न मिला हो तो बात दूसरी है। खैर आज मैं मेरा लिखा ट्रेक्ट डाक द्वारा भेज रहा हूं। शेष के लिये कोशिश करूंगा ।
आगे साध्वी के व्याख्यान के विषय में आपने भी वायदा कापरङाजी में किया था कि मैं मेरे शेष लेख आपको भेज दूंगा। वो आज पर्यन्त नहीं मिले हैं। यदि आप अपने लेख मेज दिखायें तो मैं उन लेखों का उत्तर लिख कर मेरे लेख में शामिल कर आप को भिजवाने का प्रयत्न करूंगा ।
अजमेर की दादावाड़ी के विषय में मैंने श्रापको कापरड़ाजी में कहा था कि लेख देखने के बाद मैंने करीबन दस मास तक समाधान की कौशिश की। पर उसमें सफलता नहीं मिली। इतनाही क्यों पर फलौदी से आपके साधुओं द्वारा ऐसा जवाब मिला कि - जिससे लाचार हो मुझे ट्रेक्ट लिखना पड़ा जो आज की डाक से आपको भेजवाया जा रहा है ।
बाद कापरड़ाजी में आपका मिलाप एवं वार्तालाप हुआ। तथा जब मैं फलौदी गया तो एक सज्जन ने विश्वास दिलाया कि मैं समाधान की कोशिश करूँगा बस इस विश्वास पर फिलहाल लिखा पढ़ी बंद करदी है ।
आगे आपने यह भी लिखा है कि लेख विज्ञापन के रूप में व जाहिर पत्रों छुपाने का विचार किया था। पर आपकी मित्रता के कारण न छपवा कर आपको मेजा है । यह आपकी महेरबानी है । मैं भी शान्ति का इच्छुक हूं । फिर भी विज्ञापन आदि छपा नेवाला तथा उसका जवाब देने वाले स्वतंत्र हैं
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भवदीयज्ञानसुन्दर
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
॥ श्री॥ मणिमागर विनयसागर-जयपुर
ज्येष्ठ सु०४ संवत् १९९९ श्रीमान्-शानसुन्दरजी आदि योग्य अनुवंदना वंदना सुखसाता के साथ विदित हो कि-आपका पत्र मिला समाचार जाने, आपने आज तक खरतरोत्पत्ति भाग १-२-३-४ आदि १५-२० ट्रेक्ट निकाले सुने जाते हैं उन्हीं ट्रेक्टों को मैंने आपसे कापरडाजी तीर्थ में मांगे थे, आपने उन सब ट्रेक्टों को भेजना मंजूर किया था मगर अफसोस है कि-आपने अभी तक उन सब ट्रेक्टों को नहीं मेजे और अब भी भेजने में टाल टूल करते हैं इससे आपकी कमजोरी साबित होती है और आपका यह सर्वथा अन्याय है।
१-अगर आप सत्य लिखते होतो खरतरोत्पत्ति भाग १-२-३-४ आदि अन्य देक्ट जोधपुर बीकानेर फलौदी में कौनर से खरतर गच्छ के साधु तथा श्रावकों को भेजे उन्हों का नाम बताओ, अन्यथा आप अपना मिथ्या लेख वापिस लो।
२-अजमेर की दादाबाड़ी के लेख के सम्बन्ध में मैंने आपको फलौदी पत्र दिया था तथा पहले पत्र के साथ नकल भी भेज चुका हूं, उस न्याय के मार्ग को आप अंगीकार करते नहीं हैं यह भी उचित नहीं है।
३-साध्वी व्याख्यान बाबत मेरा लेख “जैन ध्वज" में प्रकाशित हो चुका है। उसका जवाब आपने करीबन बारह महीने पहिले छपा दिया ता भी अभी तक आपने मेरे पास नहीं मेजा आपकी कितनी भारी कमजोरी है, जब मैं कापरडाजी तीर्थ में मेरे और आपके यह बात तय हो चुकी थी, आपने मंजूर किया कि-जो लेख मेरा छपने को गया है. उसको नहीं छपवाऊंगा, प्रेस में से दो प्रूफ मंगा कर एक आपको दूंगा, उस पर मैंने भी आपसे वायदा किया था कि मैं भी मेरा लेख किताब रूप में न छपा कर सब पूरा लेख आपके पास मेज दूंगा। और अपने आपस में पत्र व्यवहार से समाधान किये बाद किताब छपवाई जायगी इस नियम को आप भंग कर के आपने पहले किताब छपवादी अब भी आप मेरे पास भेज. दीजिये, उस पर मैं भी मेरा लेख मेजने को तैयार हूं।
४-अब आपसे मेरा आग्रह पूर्वक यही कहना है कि यदि आपको न्याय मार्ग प्रिय हो सत्य अंगीकार करना चाहो तो “वितंडावाद" "शुष्क विवाद' कीबातों में व्यर्थ समय न गमा कर न्याय मार्ग से धर्मवाद करने की इच्छा हो और समाज में सत्य प्रचार की भावना होतो अपने वायदे के अनुसार साध्वी व्याख्यान का ट्रेक्ट तथा खरतरोत्पत्ति भाग १-२.३-४ तथा अन्य सब ट्रेक्ट जल्दी से भेजदो, मैं मेरे वायदे के अनुसार लेख मेजने को तैयार हूं। ५-कापरड़ाजी में जो ट्रेक्ट आपने दियाथा, वहही व्यर्थ बुकपोस्ट से मेजा दूसरा मेजते।
शुभम्
मुनि मणिसागर विनयसागर
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
॥ श्री ॥
मणिसागर विनयसागर जयपुर द्वि० ज्ये. सु. ५ वा. गुरू संवत् १९९९ श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी आदि योग्य अनुवंदना वंदना सुखसाता बंचना ।
१- हमने यहां से ज्येष्ठ सुदि ४ को आपके नाम का रजिस्टर पत्र दिया था सो मिला होगा, बहुत रोज हुये उस रजिस्टर पत्र का अभी तक जवाब नहीं, तथा ट्रेक्ट भी आपने अभी तक भेजे नहीं, इस तरह ट्रेक्ट छपवाकर समाज में मिथ्या भ्रम फैलाना निन्दनीय लेख लिख कर लोगों के कर्म बंधन करवाना यह आपको उचित नहीं है ।
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२- - वादविवाद वाले चर्चा के लेख जिसके ऊपर छपाया जाय उसको पहिले भेजने का नियम है, जिस पर आपने मेरे ऊपर लेख छपवा कर मेरे को नहीं भेजा समाज में प्रचार किया यह आपकी बड़ी मायाचारी की कमजोरी साबित होती है, यदि आपने सत्यता की ताकत होती तो मेरे पास लेख भेजने में देरी नहीं करते, मैंने आपको कापरड़ाजी तीर्थ में खुलासा कह दिया था कि- आपका लेख आने पर मैं जीवानुशासन के पाठ का खुलासा लिख भेजूंगा यह बात आपने मंजूर की थी, जिस पर भी आपने मेरे को लेख नहीं भेजा, अधूरा लेख छपवा कर समाज में उत्सूत्र प्ररूपणा करके माया जाल फैलाया, अब आप अपना लेख भेजने में डरते हो इससे ही आप का लेख मिथ्या साबित है ।
३- तपगच्छ के साधुजी के पास से खरतरोत्पत्तिभाग १-२-३-४ एक श्रावक को मिली उसने पढ़ी मेरे को कहता था कि ज्ञानसुन्दरजी ने खरतरोत्पत्ति भाग १-२-३-४ में बहुत निन्दनीय हलके तुच्छ शब्द लिखे हैं खरतर गच्छ के पूर्वाचार्यों की बहुत निन्दा की है, बिना शिर पैर की बनावटी बातें लिखी है उसमें प्रथम करेमिभन्ते छ कल्याणक आदि बहुत बातों का उल्लेख किया है इस किताब के पढ़ने पर मालूम होता है कि ज्ञानसुन्दरजी के तीव्र कषाय का उदय है तथा खरतर गच्छ के साथ पूरा द्वेष भाव है, इस जमाने में निन्दनीय भाषा में लिखने वाले की जैन समाज कुछ भी कीमत नहीं करती, जिसको मध्यस्थ दृष्टि से सत्य बात निर्णय करना हो तो सभ्यता के साथ लेख लिखे, परन्तु जिसके अन्दर द्वेष भाव भरा हुआ होता है वो निन्दनीय गालियों से काम लेता है, यही दशा ज्ञानसुन्दरजी ने अपनी कीताव में करी है इत्यादि कई बातें कही है इस पर मेरा आप से यह कहना है कि अगर आपकी यही दशा होतो सब किताबें जल शरण कर दीजिये, अन्यथा अब मेरे को किताब भेजने में विलंब न कीजिये यही मेरा आग्रह है ।
४- मेरे को यह भी एक आपकी मायाचारी का प्रपञ्च मालूम होता है कि श्राप अपनी
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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
मनमानी खरतर गच्छ की निन्दा की वातें लिख कर ट्रेक्ट छपवा देते हैं उनको दूसरी जगह अपने परिचय वालों में तथा अपने भक्तों में प्रचार करते हैं और खरतर गच्छ के साधुसाध्वी तथा आगेवान श्रावकों के पास न पहुंचने पावे इसकी भी खूब सावधानी रखते हैं और फिर आप मिथ्या घमंड की बातें बनाते हैं कि-खरतर गच्छ वाले जवाब नहीं देते हैं यह कूट नीति की मायाचारी है ऐसी जालसादी से आप अपनी आत्मा को भारी क्यों करते हैं । आपका खास कर्तव्य है कि-खरतर गच्छ के मुख्य २ साधु-साध्वी तथा प्रागेवान श्रावकों के पास कमसे कम २५ जगह सब ट्रेक्ट भेज देना चाहिये।
इस जवाबी रजिस्टर पत्र का उत्तर १५ या २० दिन के अन्दर नहीं आया तो हम छपवाना शुरू करेंगे।
२२.६-४२।
शुभम्
विनयसागर ____ सज्जन ! पाठकगण ! ऊपर के पत्र व्यवहार से आप समझ गये होंगे कि-शानसुन्दर जी में धर्म न्याय का शासनहित का कितना विवेक है।
श्री जिनमणिसागरसूरिजी म.
की आज्ञा से
मुनि-विनयसागर
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