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साध्वी व्याख्यान निर्णयः |
इस पाठ का भावार्थ ऐसा है कि साधु को त्रियों की सभा में धर्मकथा नहीं करनी चाहिये, केवल स्त्रियों की सभा में धर्मकथा करने पर लोगों को शङ्का का स्थान होता है और ब्रह्मचर्य हानि आदि अनेक दोषों का प्रसङ्ग प्राप्त होता है, इसलिये साधु स्त्रियों की सभा में धर्मकथा न कहे परन्तु पुरुषों की परिषदा साथ में हो तो धर्मकथा कह सकता है. यहां पर धर्मकथा कहने से धर्मदेशना समझना चाहिये, इसी पाठ का आशय लेकर "हीर प्रश्नोत्तराणि" में श्री हीरविजयसूरिजी महाराज ने खुलासा कर दिया है किसाधु अकेली स्त्रियों की परिषदा में व्याख्यान नहीं बांचे, इसी तरह साध्वी भी केवल पुरुषों की परिषदा में व्याख्यान नहीं बांचे, इसका आशय यही निकला कि-साधु हो अथवा साध्वी स्त्री, पुरुष दोनों की सम्मिलित सभा में व्यख्यान बांच सकते है " हीरप्रश्नोसराणि" का पाठ उपर लिख चुके हैं।
२६-जो महाशय पुरुष प्रधान धर्म समझ कर साध्वियों को व्याख्यान बांचने का निषेध करते हैं, उन्हों की भूल है । क्योंकि साध्वी व्याख्यान बांचकर धर्मोपदेश से अनेक भव्य जीवों का उद्धार करे, उसमें पुरुष प्रधान धर्म को कोई हानि नहीं हो सकती । बहुत वर्षों की दीक्षा ली हुई और पढी लिखी विदुषी साध्वी भी अभी के दीक्षा लिए हुए साधु को वंदना करती है उनका बहुमान और विनय व्यवहार करती है। यह वन्दना व्यवहारादि का विषय अलग है, और भव्य जीवों को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग में लाना अलग विषय है । अतः पुरुष प्रधान धर्म मान्य होने पर भी साध्वी द्वारा व्याख्यान बांचकर धर्म मार्ग में प्रवृति कराना उपकार करना किसी भी प्रकार से उसमें बाधा कारक नहीं है । इसलिए निष्प्रयोजन बहाना बतलाकर साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध करना उचित नहीं है। ____२७-आचाराङ्ग, दशवैकालिक, कल्पसूत्र, निशीथसूत्र, और बृहत्कल्पसूत्र आदि अनेक आगमों में "भिक्ख वा भिक्खुणि वा" अथवा "निगंथं वा निगंथिणं वा” इत्यादि पाठों में साधु के समान ही साध्वियों के लिए भी पंच महाव्रत लेकर सत्रह प्रकार का संयम पालन करते हुए तथा बारह प्रकार का तप सेवन करके यावत् सर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति का समान अधिकार बतलाया है, केवल पुरुष प्रधान धर्म होने से साधु का नाम प्रथम ग्रहण किया है पश्चात् साध्वी का नाम ग्रहण किया है ।
देखिये-आगमोदय समिति की तरफ से प्रकाशित बडी टीका सहित “दशवैकालिक" सूत्र चौथा अध्ययन के छपे हुए पृष्ठ १५१, १५२ में “से भिक्खू वा भिक्खुणि बा" इत्यादि पाठ की व्याख्या करते हुए श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने इस प्रकार लिखा है"स योऽसौ महाव्रतयुक्तो, भिक्षुषों भिक्षुकी वा प्रारम्भपरित्यागाद्धर्मकायपालमाय भिक्षणशीलो भिक्षुः, एवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोत्तमो धर्म
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