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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
वाणी के सद्बोध के वचन सुनाती है इसमें अनेक जीवों का कल्याण है, ऐसे लाभ के काम को समझे पिना पक्षपात के वश होकर अभिनिवेशिक मिथ्यात्व के हठाग्रह से साध्वियों को व्याख्यान वांचने का निषेध करने वाले बडी भारी धर्म की अंतराय बांधते हैं।
- २४-श्रीहरिभद्र सूरिजी महाराज के बनाये हुए “संबोध प्रकरण" जो कि वि० सं० १९०२. एवं सन् १९१६ ई० में "जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा" अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसके पृष्ठ १५ में ऐसी गाथा है- "केवल थीणं पुरुओ वक्खाणं पुरिसअग्गओ अन्जा । कुवंति जत्थमेरा नडपेडगसंनिहा जाण ॥१॥" - इस गाथा में साफ लिख दिया है कि-साधु अकेली स्त्रियों की सभा में और साध्वी केवल पुरुषों की सभा में व्याख्यान बांचे तो उन साधु-साध्वियों की नट पेटक जैसी कुचेष्टा जानना चाहिये । इस गाथा में जब साधु को अकेली स्त्रियों की सभा में व्याख्यान बांचने का निषेध किया है तब स्त्री-पुरुष दोनों की सभा में व्याख्यान बांचने की स्पष्ट आशा सिद्ध
इसही तरह से साध्वियों को भी जब अकेले पुरुषों की सभा में व्याख्यान बांचने का निरोग किया तब स्त्री-पुरुष दोनों की सभामें व्याख्यान बांचने की आशा सिद्ध हो ही चुकी।
श्री सागरानन्द सूरिजी (अानन्द सागरजी) ने "सुबोधिका टीका" छपवाते समय उसके प्रथम पृष्ठ में पंक्ति १०-११ में "केवलथीणं पुरओ" ऊपर की गाथा के प्रथम चरण के ये आठ अक्षर छोड़ कर इस प्रकार पाठ दिया है-"बक्खाणं पुरिस पुरिओ अजा, कुव्वंति जत्थ मेरा नडपेडगसंनिहा जाण ।" ऐसी अधूरी गाथा छपवा कर साध्वियों के व्याख्यान बांचने मात्र का निषेध करने के लिए अर्थ का अनर्थ कर डाला है। यह कार्य प्रात्मार्थियों का नहीं हैं। क्योंकि पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रन्थों का मूल पाठ उड़ा कर अर्थ का अनर्थ कर डालना सभ्यता के खिलाफ है। सूत्र ग्रन्थों का एक भी अक्षर या बिन्दु वा मात्रा उड़ा देना या बदल देना अनन्त संसार का कारण माना जाता है। अपनी हठ की पुष्टि के लिए. ऐसा कार्य करना उचित नहीं है लत्यान्वेषियों को पर्युषणा पर्व जैसे धार्मिक पर्व के व्याख्यान में ऐसी उन्मार्ग की प्ररूपणा कदापि नहीं करनी चाहिये। ... २५-श्री हरिभद्रचूरिजी महाराज विरचित- प्रागमोदय समिति की तरफ से छपी हुई “दशवकालिक" सूत्र की नडी टीका के पृष्ठ २३७ में आठवें अध्ययन की तेपन की गाथा में धर्म कथा विधि संबंधी ऐसा पाठ है
"नारीणां, स्त्रीणां न कथयेत्कथां, शङ्कादिदोषप्रसङ्गात्, औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति ।"
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