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साध्वी व्याख्यान निर्णयः अतिप्रसक्तः खल्वेषोऽर्थः यदनन्तरसूत्रे रोगिप्रभृतीनामन्तरगृहे स्थानादीनामनुज्ञा कृता । एवं हि तत्र स्थानादिपदानि कुर्वन् । कश्चिद् धर्मकथामपि कुर्वीत, ततश्चातिप्रसङ्गो भवति । अतोऽन्योऽपि भैक्षगतो मा गायोपदेशादिकं कार्षीदितीदं सूत्रमारभ्यते ॥ ४५६६ ॥
अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्गन्थीनां वा अन्तरगृहे यावत् चतुर्गाथं वा पञ्चगाथं वा आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वां । एतदेवापवदन्नाह-"नऽन्नथ" इत्यादि "न कल्पते” इति योऽयं निषेधः स एकज्ञाताद्वा एकव्याकरणाद्वा एकगाथाया वा एकश्लोकाद्वा अन्यत्र मन्तव्यः सूत्रे च पंचम्याः स्थाने तृतीयानिर्देशः प्राकृतत्वात् । तदपि च एकज्ञातादि व्याख्यानं स्थित्वा कर्त्तव्यम् । नैव 'अस्थित्वा' भिक्षां पर्यटतोपविष्टेन वा इति सूत्रार्थः॥
ऊपर के पाठ का भावार्थ इस प्रकार है-विहार करके आये हुए साधु-साध्वी दूसरे उपाश्रय के अभाव में अथवा रोगादि कारण से किसी अन्तरगृह में, यानी-गृहस्थों के घरों के बीच में ठहरे हों अथवा गोचरी आदि के निमित्त गये हों। तब उन से कोई गृहस्थ धर्म का स्वरूप पूछे तथा अन्य किसी कारण वश वहां पर उन्हें धर्म कथा कहनी पडे वा धर्मोपदेश देना पडे तो साधुओं को अथवा साध्वियों को यावत् चार पांच गाथाओं का अर्थ करके आख्यान करना, विभावन करना, कीर्तन करना और प्रवेदन करना नहीं कल्पता है। किन्तु छोटासा एक दृष्टान्त देकर, एक प्रश्न का उत्तर देकर एक गाथा का वा एक श्लोक का अर्थ कह कर संक्षेप में धर्मोपदेश कहना कल्पता है। वह भी खडे खडे कहना कल्पता है।
जिस पर मी गृहस्थों के घरों में बैठ कर विस्तार से धर्मोपदेश देने वाले को अनेक दोषों का प्रसंग बताया है । इस विषय में लघु भाष्य का गाथाओं का विवरण करते हुये टीकाकार महाराज ने बहुत खुलासा लिखा है। छपा हुआ बृहत्कल्प सूत्र भाग चौथा पृष्ठ १२३४ से १२३९ तक ५ ठकगण देख सकते हैं।
५-और भी छपे हुये पृष्ठ १२३९ में इस विषय का दूसरा पाठ इस प्रकार है।
नो कप्पति मिग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि इमाई पंच महव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किहित्तए वा
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