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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
दान देने का किसी व्यक्तिगत नाम का उल्लेख किसी शास्त्र में न होने पर भी दान देने का माना जाता है इसी प्रकार पढी लिखी छद्मस्थ साध्वी हो या केवलज्ञानी साध्वी हो उनके परोपकार के लिये भाषावर्गणा के पुद्गल बंधे हुवे होंगे तो वह साध्वी श्रावक श्राविकाओं भव्य जीवों के सामने अवश्य ही देशना देकर परोपकार कर सकती है। क्योंकि खास केवलशानी तीर्थकर भगवान् के ही जब तक भाषावर्गणा के पुद्गलों का बंध रहता है तब तक ही देशना देकर परोपकार कर सकते हैं, और भाषावर्गणा के पुद्गलों का क्षय होने पर देशाना बंधकर देते हैं अथवा अनशन कर लेते हैं । इसी तरह से छमस्थ साध्वी हो या केवली साध्वी हो अथवा साधु हो वा कोई भी संसारी प्राणी हो जब तक जिसके भाषावर्गणा के पुद्गलों का बंध रहेगा तब तक ही वह बोल सकता है, और निकटवाले हर कोई प्राणी सुन सकते हैं, इस बात को भगवान् की वाणी पर श्रद्धा रखनेवाला कोई भी जैनी निषेध नहीं कर सकता, इसी तरह से संयमी पढ़ी लिखी साध्वी अपने भाषावर्गणा के पुद्गलों को क्षय करने के लिये धर्मदेशना दे सकती है और कोई भी भव्यजीव उनकी देशना सुनकर लाभ उठा सकते हैं। अब मेरा यही कहना है कि भगवान् के शासन में किसी भी साध्वी ने व्याख्यान नहीं बांचा ! ऐसा कहने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं इस विषय में अनेक शास्त्रों के प्रमाण ऊपर वतला चुके हैं। जब कि-साध्वियों को बारह १२ प्रकार का तपाधिकार में ५ प्रकार के स्वाध्याय करने का ग्यारह ११ अङ्ग पढने का तथा आत्म कल्याण के साथ भव्य जीवों का परोपकार करने का पूर्णतया (सब तरह से) अधिकार है उसमें देशना देने का भी अधिकार आजाता है, और श्रावस्यकादि अनेक शास्त्रों में
चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपरणत्तो धम्मो मंगलं चत्तारिलोगुत्तमा, अरिहंतालोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपएणत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे शरणं पवज्जामि,
साहु सरणं पवज्जामि, केवलिपरणतं धम्म सरणं पवज्जामि ॥ ये तीन गाथानों के कथनानुसार धर्म का ही आधार भव्य जीवों को है, केवली प्रणीत धर्म मंगल रूप है, उत्तम है, और शरण अंगीकार करने योग्य हैं, अब विचार करना चाहिये कि- केवली शब्द में साधु साध्वी का समावेश होता है, और हरेक तीर्थकर के शासन में साधुओं से प्रायः दुगुनि साध्वियां केवलशानी होती है । इसलिये जिस केवली साध्वी को मंगल रूप, उत्तम और उसका प्ररूपित धर्म शरण करने योग्य माना जाय जिससे भव्य जीवों का संसार से उत्तीर्ण होना मानते हैं, इस वास्ते उनकी देशना भी सुनने योग्य है यह बात अनादि सिद्ध है । इति शुभम् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
श्री मणिसागरसूरिजी म० आज्ञा से
मुनि-विनयसागर
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