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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
॥ श्री ॥
मणिसागर विनयसागर जयपुर द्वि० ज्ये. सु. ५ वा. गुरू संवत् १९९९ श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी आदि योग्य अनुवंदना वंदना सुखसाता बंचना ।
१- हमने यहां से ज्येष्ठ सुदि ४ को आपके नाम का रजिस्टर पत्र दिया था सो मिला होगा, बहुत रोज हुये उस रजिस्टर पत्र का अभी तक जवाब नहीं, तथा ट्रेक्ट भी आपने अभी तक भेजे नहीं, इस तरह ट्रेक्ट छपवाकर समाज में मिथ्या भ्रम फैलाना निन्दनीय लेख लिख कर लोगों के कर्म बंधन करवाना यह आपको उचित नहीं है ।
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२- - वादविवाद वाले चर्चा के लेख जिसके ऊपर छपाया जाय उसको पहिले भेजने का नियम है, जिस पर आपने मेरे ऊपर लेख छपवा कर मेरे को नहीं भेजा समाज में प्रचार किया यह आपकी बड़ी मायाचारी की कमजोरी साबित होती है, यदि आपने सत्यता की ताकत होती तो मेरे पास लेख भेजने में देरी नहीं करते, मैंने आपको कापरड़ाजी तीर्थ में खुलासा कह दिया था कि- आपका लेख आने पर मैं जीवानुशासन के पाठ का खुलासा लिख भेजूंगा यह बात आपने मंजूर की थी, जिस पर भी आपने मेरे को लेख नहीं भेजा, अधूरा लेख छपवा कर समाज में उत्सूत्र प्ररूपणा करके माया जाल फैलाया, अब आप अपना लेख भेजने में डरते हो इससे ही आप का लेख मिथ्या साबित है ।
३- तपगच्छ के साधुजी के पास से खरतरोत्पत्तिभाग १-२-३-४ एक श्रावक को मिली उसने पढ़ी मेरे को कहता था कि ज्ञानसुन्दरजी ने खरतरोत्पत्ति भाग १-२-३-४ में बहुत निन्दनीय हलके तुच्छ शब्द लिखे हैं खरतर गच्छ के पूर्वाचार्यों की बहुत निन्दा की है, बिना शिर पैर की बनावटी बातें लिखी है उसमें प्रथम करेमिभन्ते छ कल्याणक आदि बहुत बातों का उल्लेख किया है इस किताब के पढ़ने पर मालूम होता है कि ज्ञानसुन्दरजी के तीव्र कषाय का उदय है तथा खरतर गच्छ के साथ पूरा द्वेष भाव है, इस जमाने में निन्दनीय भाषा में लिखने वाले की जैन समाज कुछ भी कीमत नहीं करती, जिसको मध्यस्थ दृष्टि से सत्य बात निर्णय करना हो तो सभ्यता के साथ लेख लिखे, परन्तु जिसके अन्दर द्वेष भाव भरा हुआ होता है वो निन्दनीय गालियों से काम लेता है, यही दशा ज्ञानसुन्दरजी ने अपनी कीताव में करी है इत्यादि कई बातें कही है इस पर मेरा आप से यह कहना है कि अगर आपकी यही दशा होतो सब किताबें जल शरण कर दीजिये, अन्यथा अब मेरे को किताब भेजने में विलंब न कीजिये यही मेरा आग्रह है ।
४- मेरे को यह भी एक आपकी मायाचारी का प्रपञ्च मालूम होता है कि श्राप अपनी
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