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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
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छछेद ग्रन्थ प्राकृत भाषामें होने परभी उनमें उत्सर्ग अपवाद विधिवाद और चरितानुवाद मादि अनेक गम्भीर विषयों का संग्रह होने से और कई बातों का भावार्थ, गुरु गम्य होने से सामान्य बुद्धिवाले साधु साध्वियों को पढने की मनाई की गई है। परन्तु निशीथ सत्र श्रादि छेद-सूब महत्तरा को (बडी साध्वी को) पढने की आशा भी है, इसलिए संस्कृतभाषा साध्वियाँ मा पढ सकती ऐसा कहना अनुचित है, और "संसार दावा" सम संस्थत प्राकृत है इसलिए केवल प्राकृत काहना अज्ञानता है, चौदह पूर्व और छेद प्राश पढने का बहाना लेकर धर्मोपदेश का निषेध करना उचित नहीं है .
___५४-अगर कहा जाय कि साध्वी श्राफक श्राविकाओं की सभा में व्याख्यान बांधेगी, तब श्रावकों के सामने देखानागा , सामने देखने से ब्रह्मचर्य की बाट का भंग होगा और मोहभाव उत्पन्न होकर भविष्य रह्मचर्य की हानि होने की संभावना होगी इसलिए साध्वी को सभा में व्याख्यान बांचना योग्य नहीं। ऐसा कहनेवाले जैन सिद्धान्तों की स्याहाद-अनेकान्त शैली को समझनेवाले नहीं मालुम होते हैं। क्योंकि मोहभाव से साध्वी को पुरुषों के सामने देखने की मनाई है। परन्तु उपकार बुद्धि से संसार की, शरीर की, कुटुम्ब की, धनसम्पदा की और आयष्य आदि की अनित्यता अशारदा बतलाते हए. धर्मोपदेश देते सम सामान्यतया करुणा बुद्धि से यदि पृरुषों के सामने देखा भी जावे लो कोई दोष नहीं आसकता। देखिये-दशवैकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन की ८१वीं गाथा में लिखा है जिस तरह सूर्य के ऊपर दृष्टि पडने पर तत्काल पीछी खींच लेते हैं उसही तरह से साधु की यदि स्त्री के ऊपर दृष्टि पड जावे तो शीघ्र पीछी खींच लेनी चाहिए, जिसपर भी साधु को स्त्रियों के व्रत पश्चक्खाण आदि करवाते समय स्त्री के सामने देखना पडता है। तो भी मोहभाव न होने से किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो सकता, परन्तु रागभाव से सापो देखने का निषेध है। फिर भी देखिये-अभी पढी लिखी चिदुपी साध्वी के पास में कुछ श्रावक मिलकर किती प्रकार का प्रश्न पूछने के लिए या धर्म की चर्चा करने के लिए जाते हैं और साध्वियाँ मी उन्हें अपनी बुद्धि के अनुसार समाधान भी करती हैं-धर्मोपदेश देती हैं। इसही तरह से साध्वियों के पास में श्रावक श्राविकायें व्याख्यान सुनने को जासकते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है।
५५-दूसरी बात यह है कि, कर्मग्रन्थ में पुरुष वेद का उदय घास की अग्नि के समान तथा स्त्री वेद का उदय छानों की अग्नि (भोभर) के समान और नपुंसक वेद का उदय नगर दाह की अग्नि के समान कहा है, अब यहाँ पर विचार करने का अवसर है कि शास्त्र के अनुः सार वेद के उदय मूजब विकार भाव पैदा होने में स्त्रियों से भी पुरुषों में धैर्यता कम सावित होती है, इससे जब साधु व्याख्यान बांचता हो उस समय स्त्रियाँ वस्त्र आभूषणादि श्रंगार सजकर जेवर का झनकार करती हुई और विनय भाव का लटका करती हुई व्याख्यान में आती हैं उसको देखते ही साधु का भी चित्त चलायमान हो आवेगा, तब तो आपके कथना.
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