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.. साध्वी व्याख्यान निर्णयः
इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति," __ इस पाठ में महावत सहित साधु अथवा साध्वी आरम्भ के त्यागी अपने धर्म काय रूपी शरीर का मिक्षा वृत्ति से पालन करने वाले साधु होते हैं, वैसे ही साध्वी भी होती है। पुरुष प्रधान धर्म होने से प्रथम साधु का नाम ग्रहण करके जो विशेषण कर्तव्य साधु के लिए बतलाये गये हैं, वे ही विशेषण कर्तव्य साध्वी के लिये भी समझ लेने चाहिये। यहाँ पर टीकाकार ने खुलासा कथन कर दिया है कि-पुरुष प्रधान धर्म होने से प्रथम साधु का नाम लेकर पीछे साध्वी का नाम लिया है परन्तु संयम पालन का कर्तव्य सब समान रूप से इस सूत्र में कथन किया है। इसलिए पुरुष प्रधान धर्म कहने पर भी साधु की तरह साध्वी भी धर्मदेशना दे सकती है। साध्वी की धर्मदेशना से पुरुष प्रधान धर्म में कोई हानि नहीं
हो सकती।
इसी प्रकार “सूयगडांग" सूत्र चौथा अध्ययन आगमोदय समिति का प्रकाशित पृष्ठ १०५ पहिली पुठी की प्रथम पंक्ति में भी ऊपर मुजब ही इसी आशय का पाठ है।
२८-देखिये फिर भी इसी सूत्र के प्रथम अध्ययन में बारह प्रकार के तप के अधिकार में अभ्यन्तर तर्प की व्याख्या करते हुए स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा ऐसे पांच प्रकार के भेद बतलाए हैं, जिसमें धर्मकथा का लक्षण संबंधी छपी प्रति के पृष्ट ३२ में इस प्रकार पाठ है
"धम्मकहाणाम-जो अहिंसाइ लक्खणं सवण्णूपणीअं धम्म अणुयोगं वा करेई एसा धम्मकहा"
इसका भावार्थ ऐसा है कि-भव्य जीवों के आगे सर्वज्ञ भगवान् की कथन की हुई अहिंसादि लक्षण वाली धर्मकथा करना अथवा अहिंसादि लक्षण सर्वज्ञ भगवान् की कथन की हुई वाणी की व्याख्या करना यह धर्मकथा नामक स्वाध्याय का पांचवां मेद कहा जाता है।
भाव सहित बारह प्रकार के तप करने वाले साधु साध्वी आराधक होते हैं, ११ अंग आदि सूत्रों की स्वाध्याय साधु साध्वियों को हमेशा करने की आशा है । स्वाध्याय का पांचवां मेद धर्मकथा है, धर्मकथा साधु-साध्वी दोनों को करने की कही है, भव्य जीवों को सूत्रों का अर्थ सुनाना धर्मदेशना देना यही धर्मकथा कही जाती है, इस न्याय से साधुओं की तरह उपरोक्त शाल प्रमाणानुसार साध्वी भी श्रावक श्राविकाओं को धर्मकथा सुना सकती है, ये बात जिनाज्ञानुसार है। इसलिए साध्वियों को श्रावक-श्राविकाओं के
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