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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
बहु मन्नसु मा चरियं अमुणियतत्ताण ताण ता जीव । जइ सं निवारियाओ ता बारसु महुरबक्केण ॥। १८६ |
व्याख्या - बहु मन्यस्व भव्यामिदमितिमंस्थाः, मा इति निषेधे, चरितं धर्मकथन लक्षणम्, अमुणित तत्त्वानाम् अविदित परमार्थानाम् तासां आर्यिकाणाम् तस्माज्जीव । आत्मन् ! यदि विकल्पार्थः, तिष्ठन्ति सं निवारिताः निषिद्धाः ततो वारय निषेधय, मधुर वाक्येन - कोमल वच सेति गाथार्थः ।
इसका भावार्थ ऐसा है कि अल्पबुद्धिवाले भोले जीव रूपी क्षेत्रों में शुभ बोध रूपी श्रेष्ठ धान्य को नाश करने वाली टिड्डादि ईति समान कई एक साध्वियाँ परन्तु यहाँ पर सर्व साध्वियों का ग्रहण नहीं करना, वे साध्वियें ग्रामादि में विचरती हैं और दानादि धर्म कथा कहती फिरती हैं ।
साध्वियों को धर्म देशना का कथन करना एकान्त से सर्वथा अच्छा नहीं है । आगमों का सुन्दर कथन करना अर्थात् शास्त्रों की देशना देना ( तासां ) अर्थात् उन चैत्य वासिनी साध्वियों के लिए निषेध किया है ।
कुशास्त्रों की मति को विनाश करनेवाला तथा मुक्तिजाने योग्य भव्य जीव रूप पुण्डरीकमलों को विकाश करनेवाला जिनेन्द्र कथित दानादि धर्म निशीथ सूत्रको जानने वाले साधु को ही कहना योग्य है, किन्तु साध्वियों को नहीं वर्तमान काल में उन साध्वियों को प्रकल्प ग्रन्थ का अर्थात् निशीथ सूत्र और उसका अर्थ नहीं दिया जाता, . पहले के काल में दिया जाता था तब भी उसका व्याख्यान करने का निषेध था, इसही विषय में दृष्टान्त कहते हैं हरिभद्रसूरिजी को उनकी माता याकिनी महत्तरासाध्वी ने चक्कीदुग्गं हरिपणगं" इत्यादि एक गाथा का अर्थ नहीं बताया तो फिर अधिक बताने की बात ही क्या है ।
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इसी प्रकार तत्व को नहीं जानने वाली जो साध्वियाँ धर्मकथा की देशना देती हैं उनको मधुर वाणी से निषेध करना यह जीवानुशासन के पाठ का सारांश है ।
अब यहाँ पर उपर के पाठ की समीक्षा करते हैं । जीवानुशासन में साध्वियों को ग्रामादि में विहार करना तथा दानादि का धर्मोपदेश देना ये दोनों बातें भव्यजीवों को नुकसान करनेवाली होने से इनका निषेध किया है। इसका भावार्थ समझे बिना सर्व साध्वियों को धर्मोपदेश देने का निषेध करने वालों की बड़ी भूल है, क्योंकि यह अधिकार उस समय की चैत्यवासिनी भ्रष्टाचारी साध्वियों के लिए ग्रन्थकार ने कहा है इस ग्रन्थ में
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