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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
३७-ऊपर चरित्र के पाठ में “तत्वज्ञा" "प्रतिबोध परायणा" "सत्सन्देहतमासीह जघान्यर्कप्रमेव सा" “वित्रस्त कुनयोलूका भव्याम्भोजप्रबोधिका" इत्यादि तथा रास के पाठ में श्रुतधर्मे पडिबोहे होराज ॥१॥ "सन्देह भविकना टाले" कुमतादिकना मद गाले। इत्यादि वाक्यों से चरित्रकारने एवं रास रचयिता ने मलयसुंदरी साध्वी को अन्य भव्यजीवों को भी धर्मदेशना देनेवाली ठहराई है।
३८-इस प्रकार प्रसंगवश प्रत्येक अवसर पर साध्वियों ने पुरुषों को और स्त्रियों को अनेकवार धर्मोपदेश दिया है। जिसका "शाताजी” “उतराध्ययन" “निरयावली" आदि अनेक सूत्र तथा चरित्र प्रकरण आदि में बहुत शास्त्रीय प्रमाण स्थान स्थान पर मिलते हैं। जिस पर भी ज्ञानसुंदरजी आदि कई महाशय कहा करते हैं कि-साध्वी के व्याख्यान बाँचने की कुप्रथा करीब पचास-साठ वर्षों से नवीन प्रचलित हुई है। किसी भी शास्त्र में साध्वी को व्याख्यान बाँचने की आज्ञा नहीं है साध्वी अगर व्याख्यान बाँचे तो तीर्थकर गणधर पूर्वाचार्य व शास्त्रों की मर्यादा भंग करने की अपराधिनी ठहरती है और उनका व्याख्यान सुननेवाले श्रावक भी दोषी ठहरते हैं। इत्यादि अनेक तरह की मिथ्या बातें बनाकर भोले जीवों को उन्मार्ग में डालते हैं। हम ऊपर वृहत्कल्प सिद्ध प्राभृत व नन्दीसूत्रटीका आदि के शास्त्रीय प्रमाण बतला चुके हैं। उन सब प्रमाणों से साध्वियों को व्याख्यान बाँचने की आज्ञा अनादिसिद्ध साबित है।
___३९--कई महाशय साध्वी को व्याख्यान बांचने का निषेध करने के लिए "जीवानुशासन" ग्रन्थ का यह प्रमाण बतलाते हैं कि
मुद्ध जणछेत्तसुहषोहसंस्सविद्दवणदक्खसमणीओ ईईओ वियकाओ वि अडंतिधम्मं कहं तीओ।। १८१ ।।
व्याख्या-मुग्धजनाः स्वल्पबुद्धिलोकाः त एव क्षेत्राणि वीज वपनभूमयस्तेषु शुभयोधः प्रधानाशयः स एव सस्यं धान्यं तस्य विद्रवणं विनाश करणं तत्र दक्षा: पटव्यः प्राकृतत्वाचात्र विभक्तिलोपः श्रमण्यः आर्यिका ईतय इव तिड्डाद्या काश्चन न सर्वा अटन्ति ग्रामादिषु चरन्ति धर्म दानादिकं कथयन्त्यो ब्रुवाणा इति गाथार्थः । एतदपि निराकर्तुमाह
एगतेणं वि य तं न सुंदरं जेण ताणपि पडिसेही ।
सिद्धं तदेसणाए कप्पष्टिय एव गाहाए ॥ १८२ ।। व्याख्या-एकान्ते नैव · सर्वथा तद्धर्मकथनं न नैव सुन्दरंभव्यम्,
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