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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
पहेलुं दुःख सघले दीसे, पाछे सुख संभव हीसे । इम जाणीने विश्वा वी.से, मन नाखे शोक मां कीसे ॥ १६ ।। भेट्या नहि चरण पिताना, मत कर इंमपरि चिंताना । पहेली पर हवणा दाना, तुज भक्तिना गुण नहि छाना ॥१७॥ शोक मूकीने हवे भूप, संसारनो भावी सरूप । दृढ़धारी विवेक अनूप. तज दूरे सहु भवकूप ॥१८॥ दुखसागर ए संसार, संगम सुपना अनुकार । लखमी जिम बीज संचार, जीवि बुद-बुदे अणुहार ॥ १९ ॥ तुज सरिखा जे इम करिशे, शोकाकुले हिय९ भरशे । बापडलो किंहा संचरशे, धीरज धानक विण फिरशे ॥२०॥ इम धर्मतणो उपदेश, निसुणी प्रतिबुध्यो नरेश । छंडे सविशोक कलेशा, संवेग लयो सुविशेष ॥ २१ ॥ प्रणमे नित्य-नित्य भूपाल, महत्तरिका चरण त्रिकाल । सड़त्रीसभी ए कही ढाल, चोथे खंडे "कान्ति" रसाल ॥ २२ ॥
दोहा:- . पहत्तरिकाना मुखथकी सुणे धर्म उपदेश ।
करे महोन्नति धर्मनी, धर्म धुरीण नरेश ॥ देखिये ऊपर दिये हुए चरित्र के पाठ से विदित होता है कि-मलयसुंदरी साध्वी निर्मल चारित्र पालन करती हुई, ग्यारह अंगों की पढ़ने वाली तत्वक्षा, प्रतिबोध देने में परायण, बहुत कठिन तप करके कर्मक्षय करने में सावधान होने से अवधिशान पाया था। जिससे लोगों के संशय रूपी अंधकार को नाश करने में सूर्य समान प्रभाववाली हुई थी।
और अन्य मिथ्यात्वियों का मान उतारनेवाली तथा भव्य जीव रूपी कमलों को प्रतिबोध करनेवाली थी। उस साध्वी ने राजा को बहुत विस्तार से धर्मोपदेश देकर प्रतिबोध दिया था। इससे राजा हमेशा उस साध्वी के चरण कमलों को वन्दना करता था और जैन शासन की उन्नति करने वाला धर्मोपदेश हमेशा सुनता था। इसका विशेष विवरण रास बनानेवाले श्रीकान्तिविजयजी महाराज ने भाषाबद्ध रचना में खुलासारूप से लिख दिया है जिससे यहां पर फिर अधिकरूप से लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गई है।
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