Book Title: Sadhvi Vyakhyan Nirnay
Author(s): Manisagarsuri
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalay

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Page 12
________________ (१२) ध्यान दे तो निस्सन्देह जैन धर्म बहुत जल्दी प्लेटफार्म पर आ सकता है, पर साध्वियों को जैन मुनि क्या समझते हैं यह तो प्रस्तुतः ग्रन्थ का परिशिष्ट ही बतायेगा। आज के समय में ऐसे क्षुद्र वितंडावाद में समय व्यतीत न कर कुछ ठोस कार्य करने की आवश्यकता है। ___ पूज्य गुरु महाराज श्री उपाध्याय १००८ श्री सुखसागरजी महाराज के साथ मध्य प्रांत बरार खान देश में विचरण करने को अवसर मिला है। वहां पर ऐसे नगरों की कमी नहीं जहां पर विशाल जैनों का निवास होते हये भी उन्होंने जैन मुनि के दर्शन नहीं किये हैं। भारत में ऐसे अनेक नगर और प्रान्तों में भी मिल सकते हैं । इतना विशाल मुनि समुदाय के रहते हुए यदि वे लोग जैन धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर रहे हैं तो यह दोष मनियों का ही है। ऐसे स्थानों में साध्वीऐं चली जाय तो उनको प्रतिबोधनार्थ व्याख्यानादि की आवश्यकता रहती है , वहां पर यदि ऐसा न करें तो जैन धर्म की प्रभावना कैसे होगी और वे लोग जैन धर्म को कैसे जानेगें। आज जैन समाज में २५०० से भी अधिक साध्वी समुदाय है जिसमें कई उच्च श्रेणि की विदुषी व्यख्यान दातृ भी अवश्य हैं । यदि इनके लिये और भी शिक्षा का समुचित प्रबंध किया जाय तो निस्सन्देह वे जैन धर्म के प्रचार के लिये बहुत कुछ कर सकती हैं और एक बड़े अभाव की पूर्ति भी कर सकती हैं। सामाजिक सुधार में महिलाओं के सहयोग की आवश्यकता है, और यह कार्य साध्वीऐं सफलता पूर्वक कर सकती हैं। आज के परिवर्तन शील युग में साध्वी की शक्ति को दबाना अनुचित होगा। इसमें जैन धर्म का ही नुकसान है। जैन साहित्य में कई ग्रन्थ ऐसे हैं जो साध्विओं की प्रेणणा से निर्माण किये गये हैं। प्राचीन समय में सावित्रओं की शिक्षा का जो प्रबन्ध था, आज कुछ भी नहीं है । श्राज तक यह प्रश्न बना हुआ था ही कि साध्वी जाहिर सभा में व्याख्यान बांचे या नहीं ? पर आचार्य महाराज ने इस प्रश्न को जैन साहित्य के मूल भूत आगम और प्रकीर्णक साहित्य ग्रन्थों की साक्षी से बहुत अच्छी प्रकार न्याय दिया है यद्यपि लेखन शैली की अपेक्षा से समर्थन शैलि अत्यन्त उपयुक्त है। प्रान्ते में जैन समाज के कर्णधार मुनियों से प्रार्थना करूंगा कि कि वे इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें और अपना मतभेद यदि हो तो ( यद्यपि ऐसे पवित्र कार्य के लिये होना तो नहीं चाहिये ) सभ्य भाषा में व्यक्त करें साथ ही साथ ऐसे प्रश्नों को छोड़ कर जैन धर्मोनति के लिये साध्वियों को उचित शिक्षा दें। यह ग्रन्थ अपने ढंग से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, स्पष्ट कहा जाय तो प्राचार्य महाराज ने एक बड़े अभाव की पूर्ति कीहै जिसकी जैन समाज प्रतीक्षा करता था। लेखकमुनि-कांतिसागर ताः २६-१०.१८४५- रायपुर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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