Book Title: Sadhvi Vyakhyan Nirnay
Author(s): Manisagarsuri
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ साध्वी व्याख्यान निर्णयः उक्तः, उपदेशान्ते चोक्तं-असारा राज्यश्रीः । दुःखं विषयसुखं । पापका र्यान्नियमान्नरकगतिः । - इस पाठ का भावार्थ यह है कि-नमिराजा युद्ध करने के लिये गया था। जब मिथिला नगरी में ठहरी हुई सुव्रता साध्वी ने लोगों के मुख से यह बात सुनी । तब विचार किया कि मान के वश युद्ध में अनेक प्राणियों का नाश होगा। इसलिए मैं उसके पास जाकर उन लोगों को उपदेश देकर युद्ध की हिंसा के पाप से बचाऊँ और उपशांत भाव प्राप्त कराऊँ ऐसा विचार कर साध्वी ने अपनी बड़ी गुरुणी की आज्ञा लेकर अन्य साध्वियों के साथ में सुदर्शनपुर में नमिराजा की फौज में गई, नमिराजा ने साध्वी को वंदना की, तथा बैठने के लिये आसन दिया, नमिराजा भूमि पर सामने बैठ गया। तब साध्वी ने अर्हन्त भगवान् के धर्म का उपदेश दिया और उपदेश के अन्त में फिर कहा कि- इस संसार में राज्य लक्ष्मी असार है, विषयसुख दुःखरूप हैं । पाप कर्म करने से नियम पूर्वक नरक गति में जीव जाता है, इत्यादि उपदेश देकर युद्ध बंद कराया और अनेक जीवों की रक्षा की। . १८-महोपाध्याय श्रीभावविजयजी गणित उत्तराध्ययन सूत्र की, वृत्ति में भी छपे हुए पृष्ट २१८ में ऐसा पाठ है " तच्च श्रुत्वा जनश्रुत्या, सुवदीया व्यचिन्तयत् ।। इमौ जनक्षयं कृत्वा, मास्म यो हामोगतिम् ॥ १९९॥ तदेनौ बोधयामीति, ध्यात्वाऽऽहनन । साध्वीभिः संयुता सागात्समीपे नमिभूभुजः ।। २००॥ तां प्रणम्यासनं दत्वा, नमिर्भुवि निविष्ठवान् । आर्यापि धर्ममाख्याय, तमेवमवदत्सुधीः ॥ २०१॥ राजन्नसारा राज्यश्री भॊगाश्चायतिदारुणाः । गतिः पापकृतां च स्यान्नरके दुःखसंकुले ॥२०२ ॥ . इस पाठ में भी यही बात बतलाई गई है कि-अन्य साध्यिों के साथ में सुव्रता साध्वी नमिराजा के पास में गई । राजा ने वंदना की और साध्वी को बैठने के लिये आसन दिया, आप भूमि पर सामने बैठ गया, साध्वी ने भी धर्म का व्याख्यान किया और युद्ध न करने के लिये राजा को उपदेश दिया। - १९-श्री कमलसंयमोपाध्याय विरचित "सर्वार्थसिद्धि" टीका-सूत्रवृत्ति सहित छपे हुए पृष्ट १९४ पर ऐसा पाठ है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64