Book Title: Sadhvi Vyakhyan Nirnay
Author(s): Manisagarsuri
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalay

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Page 17
________________ साध्वी व्याख्यान निर्णयः ४-महावतों के शुद्ध पालन करने से देवलोक अथवा मुक्ति की प्राप्ति होती है इत्यादि वर्णन करना प्रवेदन कहलाता है। इसमें आख्यान १, विभावन २, कीर्तन ३, प्रवेदन ४ इन चारों का भावार्थ एकसा ही है। ५-इस प्रकार ऊपर के दोनों पाठों में साधु साध्वियों को गृहस्थों के घरों में विस्तार से धर्मोपदेश देने की आज्ञा दी नहीं अपितु निषेध है । परन्तु कारणवश संक्षेप में धर्मोपदेश देने की आशा भी दी है। इससे अपने ठहरने के उपाश्रय, धर्मशाला आदि में विस्तार से धर्मोपदेश देने की आज्ञा हो ही चुकी है। ___इस सूत्र पाठ में धर्मोपदेश देने के लिये साधु और साध्वी दोनों को समान रूप से अधिकारी बतलाया है। इसलिये साधुओं की तरह साध्वी भी धर्मोदेश कर सकती हैं । जिस प्रकार गृहस्थों के घरो में स्त्री-पुरुष दोनों साथ में धर्मदेशना सुन सकते हैं। उसही प्रकार उपाश्रय, धर्मशाला आदि में भी दोनो एक साथ बैठ कर धर्मोपदेश सुन सकते हैं।स में कोई प्रकार का दोष नहीं प्रासकता। ६-ऊपर के दोनों पाठों का विवेचन घेवरमुनिजी (ज्ञानसुन्दरजी) अपने बनाये शीघ्रबोध नामक पुस्तक भाग १९ वाँ रत्नप्रभाकरज्ञानपुष्पमाला फलोदी से प्रकाशित (बारह-सूत्रों का भाषान्तर) में बृहत्कल्प सूत्र का सार लिखकर छपे हुये पृष्ठ ३० में इस प्रकार लिखा है। __"(२२) साधु साध्वियों को गृहस्थ के घर में जाकर चार पांच गाथ (गाथा) विस्तार सहित कहना नहीं कल्पे । अगर कारण हो तो संक्षेप से एक गाथा, एक प्रश्न का उत्तर, एक वागरणा (संक्षेपार्थ) कहेना, सोभी ऊभा रहके कहेना परन्तु गृहस्थों के घर पर बैठ के नहीं कहना । कारण मुनीधर्म है सो निःस्पृही है। अगर एक के घर पै धर्म सुनाया जाये तो दूसरे के वहां जाना पड़ेगा, नहीं जावे तो राग द्वेषकी वृद्धि होगी। वास्ते अपने स्थान पर आये हुवे को यथा समय धर्म देशना देनी ही कल्पै"। (२३) “एवं पांच महाव्रत पञ्चीस भावना संयुक्त विस्तार से नहीं कहना अगर कारण हो तो पूर्ववत एक गाथा वा एक वागरण कहना सोभी खड़े खड़े।' ऊपर के लेख में साधु साध्वियों को गृहस्थों के घरों में विस्तार के साथ धर्मोपदेश देना नहीं कल्पता है, परन्तु कारण वश संक्षेप में उपदेश देना कल्पता है और अपने स्थान पर उपाश्रय में आये हुये भव्य जीवों को धर्म उपदेश देना कल्पता है, इसमें साधु साध्वियों को धर्मदेशना देने का समान अधिकार ज्ञानसुन्दरजी खुद लिखते हैं। जिस पर भी अब साध्वियों को धर्म देशना देने का निषेध करते हैं यह उनका प्रत्यक्ष मिथ्या हठाग्रह है। ७-जयपुर के जैन श्वेतांबर संघ की जैन धर्मशाला के ज्ञान भण्डार में सम्वत् १६१९ आसोज वदी ७ दिने लिखी हुई एवं तपगच्छीय श्री देवेंद्रसूरिजी महाराज विरचित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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