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साध्वी व्याख्यान निर्णयः
हुआ है, उसके पृष्ठ ३३ में तेरहवां प्रश्न इस प्रकार है:
प्रश्नः-साध्वीश्राद्धानामग्रे व्याख्यानं न करोतीत्यक्षराणि कुत्र ग्रन्थे सन्तीति ॥ १३ ॥
उत्तरम्:--अत्र दशवैकालिकवृत्तिप्रमुखग्रन्थमध्ये यतिः केवरश्राद्धीसभाऽग्रे व्याख्यानं न करोति, रागहेतुत्वादित्युक्तमस्ति । एतदनुसारेण साध्व्यपि केवलश्राद्धसभाऽग्रे व्याख्यानं न करोति रागहेतुत्वादिति ज्ञायते ।
देखिये-ऊपर के पाठ में श्रीहीरविजयसूरिजी महाराज को पंडित बेलर्षिगणि ने प्रश्न पूछा कि साध्वी श्रावकों की सभा में व्याख्यान न बाँचे ऐसा पाठ कौन शास्त्र में है ? इसके उत्तर में सूरिजी महाराज श्रावकों की सभा में साध्वी व्याख्यान न वाँचे, ऐसा निषेधात्मक प्रमाण किसी भी ग्रन्थ का न बतला सके और व्याख्यान के निषेध की कोई युक्ति भी न बतलाई तथा साध्वी के व्याख्यान बाँचने में कोई दोष भी न बतलाया । इस तरह किसी भी प्रकार से युक्ति और शास्त्र प्रमाण से साध्वी के व्याख्यान बाँचने का निषेध नहीं किया। इससे “अनिषिद्धं अनुमतं" के न्यायानुसार जिस विषय की चर्चा चले उस बात का निषेध न करने पर वह बात मान्य होजाती है। इस प्रकार जब उक्त सूरिजी महाराज से प्रश्न पूछा गया तब सूरिजी महाराज ने साध्वी व्याख्यान का निषेध नहीं किया । इससे साबित होता है कि सूरिजी महाराज को साध्वी के व्याख्यान बाँचने का सिद्धान्त मान्य था।
___ अब यहां विचार करना चाहिये कि- जो महाशय उन महाराज को अपने गच्छ के प्रभावक गीतार्थ पूज्यनीय पुरुष मानते हैं, और उनकी मानी हुई बात को निषेध करते हैं, यह कैसा न्याय है। जब ऐसे प्रसिद्ध पुरुष ने भी साध्वी के व्याख्यान का किसी भी ग्रन्थ के प्रमाणानुसार निषेध नहीं किया तब आधुनिक महाशय बिना किसी शास्त्र का प्रमाण बतलाये हुए सिर्फ अपनी अपनी मति से निषेध करते हैं सो कभी मान्य नहीं होसकता।
और भी देखिये-उपर के पाठ में साधु को राग का हेतु होने से अकेली स्त्रियों की सभा में दशवैकालिक वृत्ति के प्रमाण से व्याख्यान बांचने का निषेध किया, इसी तरह राग का हेतु होने से साध्वी को भी अकेले पुरुषों की सभा में व्याख्यान बांचने का निषेध किया। इससे श्रावक-श्राविकाओं की सम्मिलित सभा में साधु एवं साध्वी को व्याख्यान बांचने की आज्ञा हो ही चुकी । फिर भी जो महाशय साध्वी को श्रावक-श्राविकाओं की सभा में व्याख्यान बांचने का निषेध करते हैं, उन्हें अपनी भूल को सुधारना चाहिए।
१५-श्री हीरविजयसूरिजी के संतानीय श्री विजयविमलगणीजी की बनाई हुई "गच्छाचार पयन्ना की" बडी टीका में जो कि- दयाविमलजी ग्रन्थमाला की तरफ से अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है उसके पृष्ठ १३८-१३९ पर ऐसा पाठ हैः-गाथाः --
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