Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 02 Sootrakrut Churni Aagam 2
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad

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Page 385
________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१७-४३] दीप अनुक्रम [६४८ ६७४] भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [१६६-१६८ ], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णि ॥३७॥ पावणे अङ्के सेसे अण, जम्हा य एवं प्रतिपद्यन्ते तम्हा उसितफलिहा जाय पवेसा, जम्हा एवं तम्हा चाउदसमीसु, तम्हा पारण समणे णिग्गंधे, तेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूणि चासाणि प्राप्नुवंति पाउणति, पाउणता प्राप्य, इदाणि अंतिमं संलेक्षणः वृच्चति-अबाहंसि अत्यर्थं बाधा आबाधा जरा रोगो वा, साधुसमीवे वा आलोइयपडिकंता साधुलिंगं घेतु संथारसमणा दब्भसंचारगता सव्वासंभविष्यमुक्का बहूणि भत्ताणि० कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देतेसु देवमहड्डिएस उबवत्तारो, ते णं तस्थ मडिया हारवि० गतिकल्लाणा जाव बावीसं सागरोवमाई, आगमेसिभद्दा एगगन्भवसघीया चरितं प्राप्य सिध्यन्ति, उक्कोसेण वा अभवग्गणाणि गतुं सिज्झति, एसड्डाणे कल्लाणे परपरएणं सुहृविवागोत्तिकाऊणं आयरिए केवले, तत्र तचस्म मीसगस्स धम्मपक्खस्स आहिते ।। एवं भणिता अधम्मपक्खा, तप्पडिपक्खा य धम्मपक्खा, उभयसंजोगेण य मीसपक्खा, तेसिं सव्वैसिं इदाणि संखेवेणं पडिममणेणं कीरति जे ते अधम्मपक्वस्मिता धम्मपक्खस्सिता मीसगपक्खसिया य सव्वेऽवि वाला पंडिता बालपंडिताय भवंति के तेत्ति १, सुत्तेण चैव वक्खाणं, अविरतिं पहुंच वाले विरतिं पहुंच पंडिते य, विरताविरतिं पहुच बालपंडितेय, तत्थ जा सा सच्यतो अविरती एम द्वाणे आरंभट्टाणे, आरभो असंजमो अविरती या एगड्डा, तत्थ जा सा विरती एम हाणे अणारभट्ठाणे संयमस्थानमित्यर्थः, तत्थ जा सा अविरतविरती एस द्वाणे आरमाणारंभट्ठाणे, जेण परिमियं अवति तेण आरंभडाणे, णिच्छय सुतिकाउं तित्थगरोयदेमो य, तेऽणारिए केवले एवं ताव मो बहुविध अधम्मपक्खो यतिसु ाणेसु अविरतीए संखेवितुं समोआरितो यथा 'जीर्णेऽभोजनमात्रेयः' एवमेष संक्षेपः, पुनरपि संक्षिप्यमाणः दोसु द्वाणेसु समोतरंति यदपदिइयते एवं समगम्ममाणा (सूत्रं ४१), सम्यग्गमना गत्यर्था धातवो ज्ञानार्था इतिकृत्वा सम्यगनुगम्यमानाः सम्यगनु [385] श्रमणोपासका ॥३७०।

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