Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 02 Sootrakrut Churni Aagam 2
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad
View full book text ________________
आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
स
दीप
प्रत श्रीसूत्रक- ताई पंचसताई, तेहिंतो पञ्चभिण्णाए य पंचवि सयाई पाइताई, सो जाति तित्थगरमूलं, सोरायगिहं णगर पविसंतओ, गोसालेणधर्मकथासूत्रांक | ताङ्गचूर्णिः समं वातो, युद्धेन समं वादो, घिआतिएहि परिवाएहि तावसेदि, सव्वे पडिहंतुं सामिपादमूलं जाति, तस्स पच्चंतस्स हत्थी वारि- निर्दोषता ॥६६९॥४१७|| INछदओ. सो हत्थी अगं पेच्छिऊण एवं चिंतेति-अगस्स तेयपभावेण मुंचामि, तस्स य तेयपभावेण बंधणाणि छिण्णाणि, हत्थी।
हो, अद्दओ भणति-ण दुकरं वारणपासमोयणं०, गतो णामणिफण्णो, सुत्तालावगणिफण्यो सुत्तमुचारेतब्ध-पुराकडं ७२३||
अद्द! इमं ॥६६९॥ वृत्तं, ततस्तमाकं राजपुत्रं प्रत्येकचुद्धं भगवत्पादमूलं गच्छमाणं गोसाल आह-'पुरेकडं अद! इमं सुणेहि' | सर्वैरपि तीर्थकरैः कृतं पुरेकर्ड, आर्द्रक इति आर्द्रकखामन्त्रणं हे आर्द्रक राजपुत्र, इमं यद्वक्ष्यामस्तच्छृणु 'एगंतयारी समणे पुरासी'
सोऽयं बर्द्धमानः यत्सकाशं भवान् गच्छति पूर्वमेकान्त चारी आसीत् , तदेकान्तं द्रव्ये भावे च, द्रम्पैकान्तमारामोद्यानसुण्णघअनुक्रम
मरादीणि एतेसु एगंतेसु चरति एगंतचारी पुरा आसित्ति, एस मए सद्धि लाभालाभसुहृदुक्खाई अणुभवितयां, तत्थ भावणाठाण[७३८
मोणासणादीहिं उग्गेहिं तवचरणेहि णिभत्थितो समाणो दुकर एरिसा चारि जावजीवाए धारेयवत्तिकाउं मामवहाय बह्यो ७९२]
| भिक्खुणो मद्विधा प्राणादमात्राहार्यां मुंडेति, पिंडिते य मुंडेता य २ तेहिं यहूहि परंसतेभ्यः इहि साम्प्रतं आइक्खइ पुव्यावरण्ई, अदो व णं भिक्खुचरियादिकायकिलेसे णियत्तचित्तो पृथक् पृथक् पौनःपुण्येन जो जहा उपवसति तस्स तहा परिकहेंतो अपरि
ततो गामणगराई आहिंडति, वित्थरेणंति अनेकैः पर्यायैर्वसु किल एप, सर्व इति लोकोत्पत्तिः, यतो पत्तियंत पवत्तयंतो, एवं HOT पूआगारवपरियारहेडं कधेति हिंडति गामाणुमाम, इत्य सात्कारणात्-साजीविया पट्टविया ।। ६७० ।। वृत्त, इथरथा हि
एगाणियं विइरंतं ण कोइ पूएइ, ण वा अभिगच्छति, अथिरधम्मा अथिरो, कधमस्थिर इति चेत्यदा सो एगंतचारी भूत्वा स- ४१७॥
[432]
Loading... Page Navigation 1 ... 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486