Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 02 Sootrakrut Churni Aagam 2
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वनस्पतिः
प्रत
श्रीरामक- चतुर्थोऽत्र शेपेषु दंडकः, अग्निकायिकानां चतुर्थो, आवाकादिपु मूपकाः, इदाणि सो चेत्र विसेसो मूलादिणा दसविधेण विसेसेण सूत्रांक | नाचूर्णिा
नाराण विसेसिञ्जइ, शरीरवत् , यथा शरीरमविशिष्टं तदेव पाण्यादिभिर्विशेपैषिशिष्यते, वनवद्वा ग्रामगृहवता विषयवद्वा, एवं रुक्खेत्ति अवि[४४-६३] ॥२८॥ शिष्टो उपफमो वचो सो पुण विसेसिजइ मलत्ताए, मलं नाम मुलिया, जेहिं मूलिया पइडियाओ, भूम्यन्तर्गत एव स कन्दः खन्धदीप
सस्योपरि खन्धो तया छल्ली सब्दरुक्खसरीराणि सालेसुपि होइ खंधाओ, सालो अहुरा इत्यर्थः, प्रथाले हितो पवाला पत्ता पत्तरेसु
फलाणि कलेहितो बीजाणि ॥ अहावरं पुक्ग्यायं इहेगतिया० (सूत्रं ), रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु अब्भारुहत्ताए, रुहं जन्मनि, अनुक्रम
अहियं आरुतिति अज्झायारुहा, रुक्खस्स उपरिं, अत्र रुस्खो पगतो, लतावल्लिरुक्खगति, सो पुण पिप्पलो वा अण्णो वा कोयि [६७५
रुक्खो, अण्णस्म उवर जातो, एवं तणओमहिहरिएसु चत्वारि आलावगा माणितव्या, कुहणेसु इको चेब, सम्वेसिं कायाणं पुढ६९९]
विमलाहारोत्तिकाऊणं तेण पुचि पुढविसंभवा वुचंति, एवं ताव एते वणस्सइकाईया, लोगोपि संपडिबजति जीति जेण सुहपण्णवणिजत्तिकाऊण पढमं भणिता, सेमा एगिदिया पुढविकाईयादयो चत्तारि दुमद्दहणिजत्तिफाऊण पच्छा बुचंति, वणस्सइकाइयागंतर तु तसकाओ, सो पुण णेरईओ तिरिक्खजोणिओ मणुओ देवेत्ति, तत्थ नेरइया एगंतेण अप्पचक्खत्तिकाऊण ण भणंति, ते पुनरनुमानग्राह्या, तेण ण भण्णंति, तेसि आहारोवधिः आनुमानिक इतिकृत्वा नापदिश्यते, म तु एगंतासुभो ओजसा न प्रक्षेपाहारः, । देवा अपि साम्प्रतं प्रायेणानुमानिका एव, तेसुचि एगंततो आहारो ओजसा, मणभक्खणेण य, सो पुण आभोगणियत्तितो अणाभोगणिव्यत्तितो य, जहा पणत्तीए अगाभोगेण अणुसमतिगो, आभोगेणं जह० चउत्थं उक्कोस. तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं अत्थतो चेव चुञ्चति, इह सुने वणमत्किाइयाणंतरं मणुस्मा, सतिरिक्खजोणिएत्ति मचित्तरत्तिकाउं पढमं बुनांत । अहावरं णाणा-
॥३८४||
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