Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 02 Sootrakrut Churni Aagam 2
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ आगम (०२) भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६३६६६८|| दीप अनुक्रम [७०५७३७]] श्रीवत्रक एकान्त दन्यथा, जहा कि ?, दीसंति० ॥६६६।। (सूत्र), णिहुअप्पणो स्वशास्त्रोक्तन विधानेन निभृतः जात्मा येषां ते भवंति निभृतातागचूणिः निरर्थकमानः युगतरपदिविणो परिपूतपाणियपायिणो मोडणो णगणिणो विवित्तिका, तेसिपि णो ध्यायिन इत्येवमादि न निभृत, मिक्खा॥४१२॥ वादि मेचवित्तिणो साधुजीविणोति ण कस्सह उबग्गथेण जीवंति, के, ककहागकसयावञिणो, एवं वने ते मिच्छा पडिवअंतिनि, एवं दिदि न धारेज, परेण पुढेण एवं भणेजा-एते वरागा वालतपस्सिणो सब मिच्छा करेंति, लोकविरुद्धं च, तं भणंतस्स ते लोए गाढरुट्ठीभूता पन्छा लोगो मा भणिहितित्ति एते मदीये सस्थिया गुणद्वेषिणः, अविदुः रुस्तंति ण य उवसमंति, तेऽपि य जाव गेवेजा ताव उबवअंति तो कहं एगतेणं एवं बुचति-सबमेतं णिरत्थगं फिलिस्संति, नो णिचपुट्ठो वा भणिति-अणामाढमिच्छा दिट्ठीस, एतेवि किंचिदधेलोगफलिगं णिव्यत्तेन्ति, अयमण्यो अन्नउस्थियगिहत्थाणं दाणं प्रत्यव्यवहारः-दक्खिणाए पडिलं भो (A5॥६६७।। (सत्र), दान देंति देयते वा दक्षिणां, दक्षिणां प्रति लंभो, दक्षिणायाः प्रतिभा, अथवा दक्षिणाया लेमे प्रति दक्षिणाल भस्तया या लंभितः स प्रतिलम्भः प्रतिमानयत सम्मानितो वा भवति, एवं प्रतिकारप्रत्यपकाराप्रतिपूजादिष्वायोज्यं, स किं पाने वाऽपाने वा प्रतिलाभिते , ततो पडिलाभो अस्थि णत्थि प्रच्छिजति भणति-एकान्ते नास्ति तस्थ दोसा, जारिसंवा विनीयं । तारिसेणेव फलेण होतब्बं, तेण अधम्मियस्स कस्सइ इट्टदाणं दिण्णं तेणवि मा णाम हटेण फलेण होतव्यं, पावे या अंतं पंतं दिणं तेणावि णाम अंतफलेण होतव्यं, एवमनेकान्तः, पत्ते तु इट्टमणि वा सड़ाए अणुपरोधी दिजमाणं महफलं भवति, अपचे तु इट्ठमणिटुं वा दत्तं वधाय, तहाथि ण वारिजति अंतराईयदोसोत्तिकाऊग, तथाऽणुज्ञायते न देहित्ति मजारपोसगादिद्रुतेण मा अधिगरणं भविस्सति, तेण असंजतगिहत्थाणं अन्नउत्थियाण देहित्ति, किंच-इत्थ पुण पावं पुण्णं ण वियागरेजा, मेधावी जइ ॥४१२॥ [427]

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486