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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ सम्बंध
नहीं पा सकता । क्योंकि जिन - वचनरूपी समुद्र अपार है । इस महान् गम्भीर अपार श्रुत - समुद्रका जो कोई संग्रह करना चाहता है, तो कहना चाहिये कि वह व्यक्ति अपने शिरसे पर्वतको विदीर्ण करना चाहता है, दोनों भुजाओंसे पृथ्वीको उठाकर फेंकना चाहता है, अपनी दोनों बाहुओंके ही बलसे समुद्रको तरना चाहता है, और केवल कुशके अग्रभागसे ही उसकासमुद्रका माप करना चाहता है, पैरोंसे चलकर आकाशमें उपस्थित चन्द्रमाको भी लाँघना चाहता है, अपने एक हाथ से मेरुपर्वतको हिलाना चाहता है, गतिके द्वारा वायुको भी जीतना चाहता है, अंतिम समुद्र-स्वयंभूरमणका पान करना चाहता है, और केवल खद्योत - जुगनूकी प्रभाओंको इकट्ठा करके अथवा उसके ही समान प्रभाओंसे सूर्यके तेजको अभिभूत - आच्छादित करना चाहता है । अर्थात् इन असंभव कार्योंके करनेकी इच्छा उसी व्यक्तिकी हो सकती है, जिसकी कि बुद्धि मोहके उदयसे विपर्यस्त हो गई है । उसी प्रकार अत्यंत महान् ग्रंथ अर्थरूप जिन - वचन का संग्रह होना असंभव है, फिर भी यदि कोई इसका संग्रह करना चाहता है, तो कहना पड़ेगा कि उसकी बुद्धि मोह- - मिथ्यात्वके उदयसे विकृत हो गई है ।
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संपूर्ण जिनवचन के संग्रहकी असंभवताका आगमप्रमाणके द्वारा हेतुपूर्वक समर्थन करते हैंएकमपि तु जिनवचनाद्यस्मान्निर्वाहकं पदं भवति ।
श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रपद सिद्धाः ॥ २७ ॥
अर्थ - आगमके अन्दर ऐसा सुननेमें आता है, कि केवल सामायिक पदोंका उच्चारण करके ही अनंत जीव सिद्ध पर्यायको प्राप्त हो गये हैं । अतएव यह बात सिद्ध होती है, कि जिनवचनका एक भी पद संसार - समुद्रसे जविको पार उतारनेवाला है ।
भावार्थ- - जब सामायिक - पाठके पदोंमें ही इतनी शक्ति है, कि उसका पाठमात्र करनेसे ही सम्यग्दृष्टि साधुओंने संसारका नाश कर निर्वाणपद प्राप्त कर लिया, और उस अनंतशक्तिका कोई पार नहीं पा सकता, तो सम्पूर्ण जिनवचनका कोई संग्रह किस प्रकार कर सकता है ।
इस प्रकार जिनवचनकी अनंतशक्ति और महत्ता को बताकर फलितार्थको प्रकट करते हैं ।
१ –“ दुर्गम ग्रंथभाष्यपारस्य " इसके दो पदच्छेद हो सकते हैं, एक तो दुर्गम ग्रंथभाषी - अपारस्य, और दूसरा जैसेका तैसा - दुर्गमग्रंथ भाष्यपारस्य । पहले पदच्छेदके अनुसार ऊपर अर्थ लिखा गया है। दूसरे पक्षमें इस वाक्य के साथ अर्हद्वचनैकदेशस्यका सम्बन्ध करना चाहिये, और इस अवस्थामें ऐसा अर्थ करना चाहिये, कि यह दुर्गम ग्रंथ भाष्य-तत्त्वार्थाधिगम जिन-वचनरूपी समुद्रके पार तटके समान है । क्योंकि यह अद्वचनके एकदेशरूप है । इसी प्रकार महतः " और " अति महाविषयस्य " इन दोनों विशेषण का भी अर्थ इस पक्ष में इस पदके साथ घटित हो सकता है ।
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