Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 13
________________ (2) जैसा कि ऊपर बताया गया है रसात्मक काव्यगुणोपेत विशिष्ट शब्दसंचयरूप, पर छन्दों के बन्धन से रहित रचना गद्यकाव्य के नाम से अभिहित है । साधारण गद्य को इसमें सम्मिलित नहीं किया जा सकता । गद्य होते हुए भी जिसके पढ़ने और सुनने में पद्य का-सा प्रानन्द या रस मिले वही गद्यकाव्य है। ___ भारतीय साहित्य में गद्यकाव्य का विकास पद्यकाव्य के साथ-साथ ही हुया प्रतीत होता है, अतः उसकी प्राचीनता पद्य की अपेक्षा कम नहीं है। वेदों में कहीं-कहीं वाक्य बड़े ही सुन्दर और पद्य का-सा आनन्द देने वाले मिलते हैं । जैनागमों और महाभारत के समय में तो गद्य को व्यवस्थित रूप मिल चुका विदित होता है। भास और कालिदास प्रादि के नाटकों में गद्यकाव्य की सुन्दर झलक पायी जाती है। प्राकृत भाषा के कई प्राचीन जैन-ग्रन्थों में कहीं-कहीं गद्य लेखन में शब्दयोजना की सुन्दर छटा देखते बनती है। ईस्वी पूर्व दूसरी से छठी शताब्दी तक के शिला-लेखों के गद्य में भी काव्य का-सा मानन्द मिलता है, जिसे गद्यकाव्य का पूर्वरूप कहा जा सकता है। गद्यकाव्य की संज्ञा दी जा सके ऐसे प्रन्थों में दण्डी कवि का दशकुमारचरित सर्वप्रथम है, जिसका समय ईसा की छठी शताब्दी के लगभग का है। इस चरित की भाषा सरल एवं ललित है । इसके पीछे सुबन्धु की वासवदत्ता की कथा पाती है । कवि के कथनानुसार इसके प्रति अक्षर में श्लेष है । तत्परवर्ती गद्यकाव्य बाणभट्ट की कादम्बरी और हर्षचरित्र हैं । कादम्बरी विश्व-साहित्य में उल्लेखनीय गद्यकाव्य है । इसकी कथा छोटी-सी, पर वर्णन के विस्तार से वह बहुत विस्तृत हो गयी है अर्थात उसमें कथा गौण और वर्णन प्रधान है । ऐसा ही अन्य गद्यकाव्य, जिसे इसी के टक्कर का कह सकते हैं, जैन कवि धनपाल की तिलक मंजरी की कथा है। धनपाल महाराजा भोज के सभा-पंडित थे। पुरातत्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने इस तिलकमंजरी के सम्बन्ध में लिखा है- “समस्त संस्कृत साहित्य के अनन्त अन्थ-संग्रह में बाण की कादम्बरी के सिवाय इस कथा की तुलना में खड़ा हो सके, ऐसा कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। बारण पुरोगामी है, उसकी कादम्बरी की प्रेरणा से ही तिलकमंजरी. रची गयी है, पर यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि धनपाल की प्रतिभा बाण से चढ़ती हुई न हो तो उतरती हुई भी नहीं है: अतः पुरोगामी ज्येष्ठ बन्धु होने पर भी गुण-धर्म की अपेक्षा दोनों गद्य के महाकवि समान आसन पर बैठाने के योग्य हैं । धनपाल का जीवन भी बाण के जैसा ही गौरवशाली रहा है । इस कथन में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है।" तिलकमंजरी के बाद गद्यकाव्य के रूप में दिगम्बरजन कवि वादीभसिंह का गद्यचिन्तामणि ग्रन्थ उल्लेखनीय है । इसके बाद के लगभग चार सौ वर्षों में कोई उल्लेखनीय गद्यकाव्य नहीं है। वैसे फुटकर वर्णन गद्यकाव्य की झलक अवश्य दिखा जाते हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी में बामन भट्ट ने 'वेम भूपाल चरित' नामक गद्यकाव्य बनाया । इसका पद-विन्यास, माधुर्य, सरसालंकार-योजना, विप्रलंभ शृगार बाग के सदृश माने गये हैं । भाषा सरल और मधुर है । कवि ने अपने लिए 'गद्यकवि सार्वभौम' विशेषण प्रयुक्त किया है। भारतीय गद्यकाव्य की परम्परा का दिग्दर्शन कराने के लिए ऊपर कुछ संस्कृत गद्यकाव्यों का उल्लेख करना प्रावश्यक समझा गया । अब मूल विषय पर प्रकाश डाला जाता है । हिन्दी भाषा में गद्यकाव्य को परम्परा प्राचीन नहीं दिखाई देती। वैसे हिन्दी की गद्य-रचना ही सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पूर्व की नहीं मिलती ! गोरखनाथ की कुछ रचनाए गद्य में लिखी बतायी जाती हैं । इन रचनामों की भाषा को तेरहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य की माना गया, पर उसके लिए कोई सबल आधार नहीं प्रतीत होता, इन रचनात्रों का गोरखनाथ की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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