Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 31
________________ ( २० ) फिर विविध रसबतियों के नाम हैं। इससे प्राचीन खाद्य-पदार्थों के नामों की विस्तृत विगत मिल जाती है । २. विरहिणी - किसी एक विरहगी हुई विरहावस्था, प्रहार ऊपरि करइ अनास्था | सर्व सिगार, मानि अंगार । तिहाइ अबला ( अंतर्गत) फुला कीधा वेगला । चंद्र तप पान, यया विखवान । विरहानल प्रज्वलइ अंगु, सखिजनस् विरंगू | एह कोई यू विग्र वित्त, न बुलाई गीत्त । न कुणहीसू' हँसइ, सदा नीससइ, बोलावि बीजइ, दिहाड़ दिहाड़ देह खीजइ । प्रादि २ । ३. वर्षा - प्रासाद संसादु मेघ प्राध्या, कुणइए नइ मनि उछरंगि न भाव्या । कालंबिणी वली, जगत्रइ नइ मनि रली। उत्तर वाय वाज्या, प्रकाश मेघ गाया | कूड़ा बहूक्या, केवड़ा महक्या । कुद उलस्या, करसरि हरखया । प्रांथ महमया, मयूर गहगह्या । बप्पिहा वासई, बिरहणी उसासई | बूढा मेह, उलस्था स्नेह । नदी महा पूरि बहिया लागी, देस बिदेसनी वाट भागी । जल भरिया निवारण, पृथ्वी प्रवर्ती मेहनी प्राण । आादि । ४. हेमंत ऋतु प्रति वसंतु, प्रावियो रितु हेमंतु । जिहां सीयमा भर, सेवई निर्वात घर । तुलाइए पुढीइ, भली तुलाइ उढीइ । प्रति ही मोटी, प्रलंब दोटी । प्रोढ़ि बेस, सोयाल हुई हसइ । शरद ऋतु उन्हाला नउ भाई अनिलेइ वैश्वानर नइ अंगु कोई न जारणीइ । किहाई इंतउ, दिसि सप्रकास शरद ऋतु पहुतउ । फुल्या कास, प्रगस्ति ऊगउ । श्रादि । ५. वसत ऋतु विरहणी हसंतु, पुहतउ वसंतु । फूलइ वरणराइ, नगर माहि न फिराइ । मेल्हइ वंराग, खेल फाग । श्रति सूविसाल प्रांबानी डाल । तिहा वाधहि हिंडोळा, रमइ नर भोळा । यादि । ग्रीष्म ऋतु महा पित्रु नउ माळउ, श्राव्यो उन्हाळउ । लूय वाजइ, कान पापड़ि दाइ । झाप्रा वल, हेमाचलना शिखर गळई । निवाणे खुटइ नीर, पहिरइ श्राछा चीर । एवड़ऊ ताप गाउ, भावइ करबउ टाढउ । बाइ बाजइ प्रबल, उडइ धूलिना पटल । सीयालाई हुन्ति मोटी रात्र ते नान्ही थई रात्रि । सूर्य आपण पइ ताप, जगत्र संताप | जे जीव थल चरई, तेहि जलासय अनुसरह । ७. कलिकाल वर्णन - इ अवसर पिणी काळि, समझ समझ मनंत गुरिण हाणि । रस निरस्वाव, लोक स्तोक मरयाद। प्रविवेकु वासु, धर्मवंत नासु । प्रतुच्छ मच्छर, करकस स्वर, तुच्छ धर्म रगु, गुरुजन प्रसंसा भंगु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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