Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 34
________________ मागेवारणी सींगड़िया तणी श्रेणी, पछेवाणी फारक तणी पवति । सतो हस्ती घट सीत्कार करती, पाखरियानी श्रेणी हैखारव मेल्हती। पंच शब्द सणा निर्घोष जमला उच्छलइ, रण तूरी वाजई। निसाए थाय गाजई । बिहु गमे भाट पढाइ । बिहुं गमे सुभट तणा सिंघनाद हवा लागा. सिल्ल, भल्ल,तीर, तोमर, नाराच प्रहरण पड़वा लागा बिहुँ पखा हाकि हाकि, हिरिण,-हिरिण, मारि-मारि। नाठउ-नाठउ, भागउ-भागउ । इणि परि सुभट शब्द नीपजावइ । गयण प्राछादिउ । सूर्य किरण रूध्या। तेवळ समइ- फूटेवा लागा कपाळ मंडळ, भाजवा लागा धनुमंडल। जाएवा लागा शिरखंड, पड़वा लागी खांडा तणी झड । वाजिवा लागी सुभटनी काट कड़ि, नाचेवा लागा धड़-कबंध । पाड़िवा लागा ध्वज चिंध, प्रहार जर्जर कुजर पड़ई। सुनासणा तुरंगम तड़फड़ई, भाले भरड़ीता गजेन्द्र अरड़इ । रीरीया करता राउत हथियार हलइ, घाइ धूमिया सुभट ढळई। पड़िया पाइक न ऊससीयई। हिव हाथियां पाश्वासीयइ। मउड़उ धाम उडपडई। रवंत रड़वड़ई। पड़िया पंचायणनी परि हाकइ, रोस लगि मुछ मुछ फरकावइ । रथ चक्र चांपी ती. किरोडि कड़हडइ । भाग्यवंत जयलक्ष्मी वरई, पापण काज करइ ॥ ११४ ॥ ४. प्रभात वर्णन - प्रभात समउ हुउ, अन्धकार फीटउ । गाय तणा गाळा छूटा, तारागण विरल हुउ , चन्द्रमा विछाय थिउ । कूकड़ा तणी उळि लवइ, देव तणा बार ऊघड़िया, प्राभातिक तूर्य बाजियां । राज भवनि वैतालिक पतुइ, विलोणा तणा झरड़का उपजई. पथिक मागि थया । ब्राह्मण तो धरि वेद ध्वनि विस्तरी, धार्मिक लोक प्रतिक्रमण पर हूया ॥ १४८ ।। ५. ऊनालो - उष्ण काल पहुतउ जिसि दाबानळ तणी ज्वाला तिसि लू वाई। जिसिउ बावन्न पळ तणउ गोळउ धमिउ हुई तिसिउ प्रादित्य तपइ । जिसी भाड़ तणी बेलू, तिसि भूमिका धगधगइ । मस्तक तरण उ प्रस्वेद पान्ही उतरइ, मि जीव लोक गलगल इ. श्रीमंतना चउबारा झळहळई। जलंद्रा शरीरि लगाड़ीयइ', गुलाब तणा अभ्यंग कीज इ, बावन श्रीखंड वसीयई। चउदिसि वीजण फिरई, द्राक्षा प्रांबिली पान कीजइ । कलम शालि तणा साधउरा करवा कीजई। पाछा कापड़ा पहिरीपइ । लूमा हण्या पाणी पीजई । १५० । । फिर संस्कृत श्लोक हैं )। जिन पांचों प्रतियों का परिचय प्रस्तुत लेख में दिया गया है- सभी जैन रचनाए हैं। इनके अतिरिक्त १५ वीं और १६ वीं शताब्दी की अन्य तीन ऐतिहासिक तुकान्त रचनाए हमारे संग्रह में हैं जिनमें से सं० १४८२ लिखित तपागच्छ गुर्वावली 'भारतीय विद्या' में प्रकाशित हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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