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सुकृत करणे प्रमादु, बहु मृषावादु । सांप्रति वर्तइ-इस उ कलिकालु, जिहां को नहीं कृपालु । दरसरण उच्छल । पार्यजन स्वल्प, घरणा कुविकल्प । बहु भाराकांत देश मंडल, पृथ्वी मंद फल । साधुलोक प्रांकुल, राजा तुच्छ बल । प्रादि २ ।
यह प्रति अपूर्ण प्रतीत होती है। किनारे में अन्य का नाम 'मुत्कलानुप्रास' लिखा है जो ऐसी रचना का सार्थक व प्राचीन नाम प्रतीत होता है।
४-वर्णनात्मक बड़ी प्रति जैसलमेर से प्राते समय बड़ोदा युनिवर्सिटी के गुजराती भाषा के प्राध्यापक डा. भोगीलाल सा सरा मेरे साथ बीकानेर माये । साहित्य-गोष्ठी के प्रसंग में जब ऐसी रचनामों की चर्चा चली तो. मापने भी ऐसी एक प्रति मिली बतलाई। मैंने उसे उनसे मंगवा कर प्रतिलिपि. करवा ली। उपलब्ध प्रतियों में यह सबसे बड़ी है। इसके ४० पत्र हैं। फिर भी अपूर्ण है । लेख-विस्तार भय से इस ग्रन्थ के विशेष उरण न दे कर कुछ वर्णन ही दिये
१. प्रथ भाद्रपद मास. पूरह विश्वनी प्रास । लोक नइ मनि थाइ उल्लास ।
जिह नह प्रागमि वरसइ मेह, न लाभइ पारणीनो छेह । पुनर्नव थाह देह । भला हुइ दही, परीश्यां कोई कहे मबि सही। पृथ्वी रही गहगही । साचई कादम माचई, करसणि नाचइ । नीपजइ सातइ धानि, देखतां प्रधान ।
नासइ दुकाळ. भाद्रवे दूइ सुगाळ । प्रादि । २. गंगा पाखा जल नहीं, बंधु पाखइ बल नहीं।
मित्र पाखइ हेज नहीं, रवि पाखइ तेज नहीं।
पुत्री जन्म३. जउ पहिलउ बेटी जाई, माइ बाप काळ मुंहा थाइ ।
जसु घर बेटी प्रावी, पूठि लागि चिन्ता प्रावी । बेटी घर सम्महो पाउ चालइ, दरिद्र बाटि दिखाइइ । जां हुई बालि, ताउ हुइ लालि पालि । हुई वरेरी, थइ अनेरा केरी । अवाटइ चालती, देह मरोड़इ हालती। कुल कलंक प्राणइ, अपहुंती कलि सामूहि ताणइ ।
आपणु घर सोमइ, पिरयु घर पोसइ । आपणु कुल ईख इ, पिरायुभूखइ । घणइ न तूसइ, थोड़लइ अपमान रूसइ । न जाइ बेटी, मनरथ खाणि भेटी ।
५-महत्वपूर्ण अपूर्ण प्रति उपयुक्त प्रति के बाद जोधपुर के केशरियानाथ के भंडार का अवलोकन करते समय एक प्रपूर्ण प्रति प्राप्त इई जो १७ वीं शताब्दी की लिखी हुई है। इसमें १५७ वर्णन पूर और १५८ का अधूरा रह गया है । कई वर्णन बड़े ही अच्छे हैं। प्रत: चार-पांच वर्णनों के देने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता
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