Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
View full book text
________________
खोची
गंगेव खीची काग भड़ा किवाड़,
बैरियां जड़ां उपाड़, जिरकी सेल कहूं बरणाय, सुगियां मन प्रसन थाय.
वरखा रितु लागी, विरहणो जागी,
प्राभा भरहरे, atri प्रावास करे.
नदी ठेवा खावै, समुद्र े न समावे
पहाडा पाखर पड़ी, घटा ऊपड़ी. मोर सोर मंड,
इंद्र धार न खडे.
श्राभो गार्ज,
सारंग वाजे.
द्वादस मेघ नं दुवो हवी, सू दुखियारी प्रांख हुवा.
झड़ लागौ,
प्रथीरो दळत्र भागो.
दादुरा हिड है, सावर आणवैरी सिध कहै.
गंगेव नींबावतरो
दो-पहरौ
Jain Education International
इसी समइयौ वरण रह्यो छे, वरखा मंडने रही है. बिजली झिलमिल करने रही छे, वादळां झड़ लायो छं.
सेहरा - सेहरा वीज चमकन रही छै. जार कुळटा नायका घरसू नीसर अंग दिखाय दूसरे घर प्रवेश करै छे.
मोर कुहकै छ,
डेरा हक है.
भाखरांरा नाळा बोलनै रह्या छे. चोड़ियाळ डकनै रही छं, areपती' वेला लपटने रही है. परभातरी पोर छै.
गाज- प्रावाज हुयनै रही छे, जाणं घटा घर हरखसू ं जमीसू, मिलरण आयी है.
इसे वखत समइयं मैं
गंगेव नtarad बोलं छं, मनरी उमंग खोले छे. सैला- सिकारांरी दुवी हुवी छे, भाई अमराव साहरिणयांनं हुकम
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88