Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 14
________________ कृतियों होना सम्भव नहीं जान पड़ता । किसी प्रसिद्ध साम्प्रदायिक नेता या मस प्रवर्तक के अनुयायी स्वयं ग्रन्थ बना कर नेता के नाम से या मतप्रवर्तक के नाम से प्रसिद्ध करते रहते हैं । गोरखनाथ के इन ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियां अद्यावधि अठारहवीं शताब्दी से पूर्व की प्राप्त नहीं हैं। उनके अन्य पद्य-ग्रन्थों की प्रतियाँ भी अभी तक सत्रहवीं शताब्दी से पहले की मेरे अवलोकन में नहीं पायीं । अतः जब तक उनकी हिन्दी गद्य-रचनाओं की इससे पूर्ववर्ती प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त न हो जाएं', वल्लभ सम्प्रदाय के प्राचीन ब्रजभाषा के गद्य-ग्रन्थों को ही हिन्दी के प्राचीन गंद्य ग्रन्थ कहा जा सकता है । बीकानेर राज्य की अनूप-संस्कृत लाइब्रेरी में 'कुतुबुद्दीन की बात' संवत् १६३३ में लिखित प्राप्त है, जिसका गद्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी की अपेक्षा राजस्थानी और गुजराती गद्य अधिक प्राचीन मिलता है। जैन-भंडारों की ताड़पत्री प्रतियों में चौदहवीं शताब्दी का गद्य पाया जाता है। संवत् १३३६ के संग्रामसिंहरचित 'बाल शिक्षा' ग्रन्थ में तत्कालीन गद्य के उदाहरण पाये जाते हैं । यह संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है, जिसमें समझाने के लिए राजस्थानी का प्रयोग किया गया है। पन्द्रहवीं शताब्दी में 'पृथ्वीचन्द चरित' या 'वाग्विलास' नामक विशिष्ट ग्रन्थ मिलता है, जो राजस्थानी गद्यकाव्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस गद्य से वर्णनात्मक गद्य शैली की यह परिपक्वता का पता चलता है। इससे पूर्व भी कुछ ऐसे ग्रन्थ बने होंगे, ऐसी संभावना होती है। पर अब वे प्राप्त नहीं हैं । इसके बाद तुकान्त गद्य वाले और वर्णनात्मक विशिष्ट गद्य-ग्रन्थ राजस्थान में निरन्तर बनते रहे हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय कराना ही प्रस्तुत लेख का उद्देश्य है । संस्कृत ग्रन्थों में गद्यकाव्य के जो लक्षण दिये हुए हैं, उनमें समय-समय पर रचयिताओं की रुचि के अनुकूल परिवर्तन होता रहा है। राजस्थानी में गद्यकाव्य किसे कहा गया है और इनमें कितने प्रकार हैं, यह जान लेना परमावश्यक है। राजस्थानी के सुप्रसिद्ध छन्दग्रन्थ 'रघनाथ रूपक' में प्रसिद्ध छन्दों एवं गीतों के लक्षण एवं उदाहरण देने के पश्चात् गद्य के दो भेद दिये हैं-दवावैत और वनिका । इन दोनों के भी दो-दो भेद किये गये है-दवावत के शुद्धबध और गद्दबन्ध, (प.वाध) और वनिका के पदवन्ध और गदबन्ध । यथा-- तवं मंछ कवि हतिके, दवावत विध दोय । एक शुद्धबन्ध होत है, एक गद्दबन्ध होय ।। इसकी व्याख्या करते हुए आधुनिक टीकाकार श्रीमहताबचन्द खारंड लिखते हैं-“दवावंत कोई छन्द नहीं है, जिसमें मात्राों , वर्णों अथवा गणों का विचार हो । यह अंत्यानुप्रास रूप गद्य जाल है । अंत्यानुप्रास, मध्यानुप्रास और किसी प्रकार का सानुप्रास या यमक लिया हुअा गद्य का प्रकार है । यह संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू और हिन्दी भाषा में भी अनेक कवियों और ग्रन्थकारों द्वारा प्रयोग में लाया हुआ मालूम देता है । प्राधुनिक लल्लू जीलाल के 'प्रेमसागर' प्रादि ग्रन्थों में तथा उर्दू के 'बहारवेखि जा' 'नोवतन' आदि ग्रन्थों में तथा फारसी के ग्रन्थों में देखा जाता है। यह दवावत दो प्रकार की होती है-एक शुद्धबन्ध अर्थात् पदबन्ध, जिसमें अनुप्रास मिलाया जाता है और दूसरी गद्दबन्ध जिसमें अनुप्रास नहीं मिलाते हैं । पदबन्ध का उदाहरण "प्रथम ही अयोध्या नगर जिसका वरणाव, बार जोजन तो चौड़े, सौल जोजनको धाव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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