Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 27
________________ ५. जिमि विलंब विणसइ काज, कुठाकुरी विणसइ राज । कुसंगति विणसइ संतान, स्वर पाखड विरणसइ गान । वर्णनात्मक ग्रंथों के प्रति मेरा आकर्षण - श्वेताम्बर जैन समाज में कल्पसूत्र का वाचन प्रतिवर्ष पर्युषणों में होता है । बचपन से ही मैं उसे सुनता रहा हूं। बीकानेर में उसकी खरतरगच्छीय 'लक्ष्मीवल्लभी' टीका ही विशेष रूप से बांची जाती है । इस टीका में व इससे पूर्ववर्ती 'कल्पलता' टीका में भगवान महावीर के जन्माभिषेक के प्रसंग में भोजन विच्छित्ति प्रादि का लोकभाषा में सरस वर्णन पाता है । जो मनोविनोद के लिए अच्छा है। उसमें विस्तार से जानने के लिए "वाग्विलास" * ग्रन्थ का निर्देश होने से उक्त ग्रन्थ के प्रति मेरा अाकर्षण बढ़ा। जब उस ग्रन्थ के दो चार वर्णन जो इस संस्कृत टीका में दिये हुए हैं वे इतने सुन्दर हैं तो वाग्विलास ग्रन्थ में तो न मालूम ऐसे कितने सुन्दर वर्णन संगृहीत होंगे। यही उस प्राकर्षण का कारण था । कुछ बड़े होने पर (साहित्यान्वेषण एवं अध्ययन की वृद्धि के समय) उपर्युक्त माणिक्यसुन्दरसूरि का 'पृथ्वीचन्द्र चरित्र' देखने में पाया जो बड़ोदा प्रोरियंटल सिरीज से प्रकाशित "प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह' और मुनि जिनविजयजी द्वारा संपादित "प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ" में प्रकाशित हुआ है । इस चरित्र का अपरनाम 'वाग्विलास' भी है । यह जानने पर वाग्विलास ग्रन्थ का स्वरूप तो स्पष्ट हो गया, पर लक्ष्मीवल्लभी टीका में उल्लिखित भोजन विच्छिति आदि का वर्णन इस ग्रन्थ में नहीं मिलने से वह वाग्विलास नामक ऐसा ही कोई अन्य ग्रन्थ होना चाहिये-यह अनुमान किया गया। पर कई वर्षों तक ऐसा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुा । फिर क्रमशः ५ ग्रन्थ उपलब्ध हुए जिनका परिचय प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है। १ कुतुहलम्बीकानेर के जैन ज्ञान-भंडार में एक 'कुतुहलम्" संज्ञक प्रति सर्व प्रथम मिली जिसमें गज नाम, समाना सभा नाम वस्त्रनाम प्रादि नाम और वर्षाकाल प्रादिका कछवगन था। इसके अन्त में 'इति कौतूहलम्' शब्द लिखे थे जिससे चमत्कारपूर्ण वर्णन वाली रचना को कौतूहलोत्पादक होने से 'कौतूहल' नाम दिया गया प्रतीत हया । इस ग्रन्थ के चार वर्णन पाठकों की जानकारी के लिए यहां दिये जाते हैं। . १. वर्षाकाल वर्णन ऊमटी घटा, बादला होई एकठा, पड़ई छटा, भाजइ भटा, भोजइ लटा । मेह गाजइ, जागे नाल गोला बाजइ. 'दुकाल लाजइ, सुवाव, इन्द्र राज इ, ताप पराजइ। बीज झबके, मेह टबके, हीया दबके, पाणी भभके, नदी उबके, वनचर लबके, पाभो प्रवके । बोलइ मोर, डेड करे मोर. अंधार घोर. पेंइसर चोर, भीजई ढोर । खलके खाल. वहै परनाल, चूये साल साप गया पयाल । झड़ लागी, लोक दसा जागी, घर पड़े, लोक ऊचा चड़े। प्राभा राता, मेह माता। २. एता किसी काम का नहीं ऊनालानो मेह. दासीनों नेह, रोगीनी देह, स्त्री विरण गेह । पर घरनी छासि, कंठ विहूणो रासि, अवसर बिना भास, कुकुलनो दास । फूसनी प्राग. जमाहनो भाग, काचो ताग, पागणीनो माग । दीवानो तेज, दुरजननो हेज । उधारानो वैपार, गंडनो सिणगार । पावइयानो प्यार । * अथ पुनः वाग्विलास ग्रन्थाइ भोजन युक्ति कथ्यते (पंचम ब्याख्यान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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