Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 01
Author(s): Narottamdas Swami
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 16
________________ (५) दवावत और वचनिका-संज्ञक रचनाएं तो राजस्थानी भाषा में भी अधिक नहीं मिलती, अभी तक जिनलाभसूरि और नरसिंहदास गौड़की 'दवावत' ये दो दवावतें और अचलदास खींची की वनिका' और 'रतन महेसदासोतरी वचनिका' ये दो ग्रन्थ ही मुझे ज्ञात है। इनमें से 'रतन मेहेसदासोतरी वचनिका' एल. पी. तेसीतोरी ने सम्पादित कर के रायल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल से प्रकाशित की थी । अन्य तीनों रचनाएं अप्रकाशित हैं । "जिनलाभसूरि की दवावत' की भाषा हिन्दी है । सलोका-संज्ञक छोटे-छोटे देवी-देवताओं की गुण-वर्णनात्मक रचनाएं पचासों की संख्या में उपलब्ध हैं। राजस्थानी गद्य को कहीं-कहीं वार्ता या वार्तिक संज्ञा भी दी हुई मिलती है । वार्तिक के रूप में 'शिखरवंशोत्पत्ति काव्य' नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हो चुका है। 'केहर प्रकाश' ग्रन्थ में तुकान्त गद्य की संज्ञा वार्ता में पाई जाती है। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, सर्वप्रथम राजस्थानी गद्यकाम्य 'पृथ्वीचन्द चरित्र' है, जिसका प्रपर नाम 'वाग्विलास' है । इसकी रचना संवत् १४७८ में जैनाचार्य माणिक्यसुन्दर सूरि ने की है। इसमें पृथ्वीचन्द राजा की कथा तो बहुत छोटी-सी है, पर वर्णन का विस्तार अधिक है । ग्रन्थकार ने कोई भी प्रसंग बिना वर्णन या विवरण के खाली नहीं छोग। विवरणास्मक नामों के अतिरिक्त प्रायः सम्पूर्ण प्रन्थ तुकान्त गद्य में लिखा गया है, जिसे पढ़ते हुए काव्य का सा ग्रानन्द मिलता है । उदाहरणार्थ दो-एक वर्णन यहाँ दिये जा रहे हैं। मरहठ्ठदेश वर्णन "जिण देसि ग्राम अत्यन्त प्रभिराम । भला नगर जिहाँ न मागीयई कर । दुर्ग, जिस्या हुई स्वर्ग । धान्य, न नीपजह सामान्य । आगर, सोना रूपा तणा सागर । जेइ देस माहि नदी वहई,लोक सुषहं निर्वहइ । इसिउ देस पुण्य तरणउ निवेश गरुप्रउ प्रदेश । तिरिण देसि पहठाणपुर पाटण वर्तई, जिहां प्रन्याय न वर्तई। जीणइ नगरि कउसीसे करी सदाकार, पालि पोढउ प्राकार, उदार प्रतोली द्वार । पाताल भणी धाई, महाकाय पाई, समुद्र जेहनु भाई । जे लिइ कैलास पर्वत सिउवाद, इस्या सर्वश देव तरणा प्रासाद । करई उल्लास, लक्षेश्वरी कोटीध्वज तणा आवास प्रानन्दई मन, गरुड़ राजभवन । उपारी अपंड सुवर्णमय दण्ड, ध्वजपट लहलहई प्रचंड । हिव हूउप्रभात, फीटी राक्षसनी वात, टलिउ अंधकारवात, प्रदश्य नक्षत्र पटल, गगन उज्ज्वल, निःशब्द धूक कुल, निर्मल, दिग्मण्डल, प्राश्रित पूर्वाचल , हूउ रविमंडल, विहसई कमल, विस्तरई परिमल, वायु वाई शीतल, प्रसन्न महीतल, जिस्यां रातां पारेवा तणा चरण, तिस्यां विस्तरइ सूर्य तणा किरण । (२) जिसमें २०-२० मात्रामों के तुक-युक्त गद्य खंड हों। (ख) गद्यबद्ध-जिसमें मात्राओं का नियम नहीं होता। इसके भी दो भेद होते हैं-(३) वारता * या माधारण गद्य (४) तुक- युक्त गद्य । दवावैत के भी इसी प्रकार दो भेद होते हैं-(१) पद्यबद्ध ( या पदवद्ध )-इसमें २४.२४ मात्रामों के तुक-युक्त गद्य-खंड होते हैं । (२) गद्यबद्ध-इसमें तुक-युक्त गद्य-खंड होते हैं, मात्रामों का नियम नहीं होता। दवावत और वनिका में क्या अन्तर है ? यह अभी तक समझ में नहीं आ पाया है। वनिका के चतुर्थ भेद और दवावत के द्वितीय भेद में कोई अन्तर नहीं दीख पड़ता । उपलब्ध दवावतों की भाषा राजस्थानी से प्रभावित खड़ी बोली हिंदी है जबकि वचनिकारों की राजस्थानी। * कहीं-कहीं तुकान्त गद्य के लिये भी वात, वार्ता या वार्तिक नाम का प्रयोग देखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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