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श्री विचार पचाशिका. (1 ) ओरालियं शरीरं जोयणं दससय पमाणओ अहिएं। वेउदियं च गुरु जोअणलख्खं समहियं वा ॥ १२॥
अर्थ-औदारिक शरीरनु उत्कृष्ट प्रमाण एक हजार जोजनयी काइक अधिक छे, अने वैक्रिय शरीरनु उत्कृष्ट मान लाख योजनबी कांइक अधिक छे. आ विषय पर प्रज्ञापना मूत्रना एकवीशमा पदमा का छे के-यिंच जातिमा बादर पर्याप्त वायुकाय, जळचर, चतुष्पद (चार पगवाळा जानवरो), उरपरिसर्प. भुजपरिसर्प अने खेडरो* (पक्षीओ) ने तथा संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा गर्भज मनुष्या-आटलाने ज होय छे. ते सिवाय बीजाने क्रिय शरीरको निषेध छे, केमके तेओने (बीजाओने) भव स्वभावयी ज वैक्रिय लब्धिनो असंभव छे. १२.
आहारगं सरीरं हत्थपमाणं सुए समख्खायं। तेयस्स कम्मणमाणं लोयपमाणं सया भणियं ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-आहारक शरीरनुं प्रमाण एक हाथर्नु श्रुतमां कडं के. तथा तेजम अने कार्मण शरीरनुं मान उत्कर्षथी लोक प्रमाण (लोक जेबडु) कमु छे. १३.+
हवे पांचे शरीरनी अवगाहना (सातमो भेद कहे के:-- असंखपएससठियं ओरालियं यं जिमेण वज्जरियं। इत्तो य बहुयरेसु चवियं वेउवियसरीरं ॥ १४ ॥
• अर्थ-औदारिक शरीर अख्याता आकाश प्रदेशमा स्थित रहेलं छे, एम जिनेश्वर का छे; अने वैक्रिय शरीर ते करण धारे आकाश प्रदेशमा रहेलुं छे, एम कयु २ १४. *बा पंचेन्द्री तियचो पण संख्याता आयुवाळाने गर्मज जाणवा. +बा प्रमाण केवळी समुदूपातने आत्रीने समजई.