________________
( १७५) मूल तथा भाषांतर.
३ समसंख्य सिद्ध दंडिकानी स्थापना:- . सिदिमां गएला २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ सर्वार्थ गएला २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२
ए प्रमाणे असंख्यात लाख सुधी
तो एगु सिवे सव्वहि दुन्निति सिवम्मि चउर सव्वहे। इय एगुत्तरवुड्डी, जाव असंखा पुढो दोसु ॥ ६ ॥ एगु-एक
चउर-चार : वृद्धि दुनि-बे
सम्बठे-सर्वार्थसिद्धे, जाव-यावत् ति-त्रण इय-ए प्रमाणे असंखा-असंख्वात
| पुढो पृथक सिवम्मि-मोक्षमा । एगुत्तरवुड्डी- एकोत्तर दोसु बनेमा
अर्थ-त्यार पछी एक मोक्षे वे सर्वार्थ, त्रण मोक्षे चार सर्थेि. एम एकोत्तर वृद्धि करतां बनेमां प्रत्येके असंख्यात याय त्यां मुधी कहेवु. ६
विवेचन-एवी रीते त्रण प्रकारनी दंडिका कहीने हवे चार प्रकारनी चित्रान्तर (जुदा जुदा प्रकारना अंतरवाली ) दंडिका कहे :
१ एकादिक एकोत्तरा-एकथी मांडीने एक एक अधिक २ एकादि द्वयुत्तरा- , , बेबे अधिक ३ एकादि व्युत्तरा- , , त्रण त्रण अधिक
४ व्यादिका ध्यादिविषमोत्तरा-त्रण आदि लइ बे आदि विषमोत्तर अधिक (जेमा वृद्धिनी संख्या सरखी नहि ते) तेमायी पहेली एकादिक एकोत्तरा आवी रीतेः-त्यार पछी एक मोक्ष जाय अने बे सर्वार्थसिध्धे पछी त्रण मोक्षे अने चार थिसिद्धे पछी पांच मोक्षे अने छ सर्वार्थसिद्धे. एम वनेमा अनुक्रमे एक एक वधारता दरेकमां असंख्यात थाय त्यां सुधी कहेवू. ६