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श्री विचार पञ्चाशिका.
( ८३ )
छहं वि समारंभी पढमा समण अंतमुह बीआ । ति तुरिअ समए समए मुरेसु पण छच इगसमए ||३७||
अर्थ - - देवताओने छए पर्याप्तनो आरंभ समकाळे थाय छे. पछी तेमांनी पहेली आहार पर्याप्ति एक समये पूर्ण थाय छे, बजी शरीर पर्या अंतर्मुहूर्ते पूर्ण थाय छे, त्रीजी अने चोथी एक एक समये थाय ले एटले के त्रीजी इंद्रिय पर्याप्ति एक समये थाय छे, चोथी उच्छास पर्याप्त त्यार पंछीना व जे समये थाय हे. तथा पांचमी वचन पर्याप्त अने छुट्टी मन पर्याप्ति एकज समये थाय के.
जे जीवो पोतपोतानी पर्याप्तिओ बडे अपर्याप्ता छतान काळ धर्म पामे छे, तेओ पण पहेली त्रण पर्याहिओने तो समाप्त एटले पूर्ण करीने पछी एक अंतर्मुहूर्तमां आयुष्य वांधीने ( आयुष्यनो बंध करीने) अने त्यार पछी अबाधाकाळ रूप अंतर्मुहूर्त सुधी जीवीने पछी ज मरे छे, पण ते पहेलां मरता नथी, कारण के आवता भवनुं आयुष्य आहार शरीर अने इन्द्रिय एत्रण पर्यावडे पर्याप्ता धरला जीवो ज बांधे छे, ( अने आगामी भवनुं आयुष्य संध्या विना जीव मरतो नथी तेमज जघन्य अंतर्मुहूर्त जेटला पण अबाधा काळ विना ते आयु उदयमां आवतुं नथी तेथी उपर कहेलुं युक्ति युक्त छे. ) ३७.
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सो लडिए पज्जन्तो जो य मरइ पूरिडं सपज्जति । लद्धि अपजस्तो पुण जो मरइ ता अपूरिता ॥ ३८ ॥
अर्थ - जे (जो ) पोगनी पर्यातिओ पूर्ण करीने मरे, ते लब्धि पर्याप्तो कहेवा छे, अने जे जीव पोतानी पर्याप्तिओ पूर्ण कर्या पहेली मरी जाय ते लब्धि अपर्याप्तो कहेवाय छे, ३८. नज्जवि पूरेइ परं पूरिरसइ स इह करणअपज्जन्तो । सो पुण करणपज्जो जेणं ता पूरिआ हुति ॥ ३९ ॥