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सिरपंचाशिका. अर्थ-ए प्रमाणे उत्कृष्ट अन्तर कडं. उघन्यथी एक समयअन्तर सर्वने क्षायिकभाव जाणवो. चार अने दस, वीस अने वीस पृथक्त्व अने एकसो आठ अनुक्रमे सरखा, थोडा सरखा अने संख्यात गुणा जाणवा ए प्रमाणे अनंतर सिद्धोने कहीने हवे परंपरसिद्ध अल्प बहुत्व मूकीने बाकीना द्वारे कईशे. २९-३०
विवेचन-उपर कहेलं अंतर उत्कृष्टयी जाणवू. जघन्य अं. वर सघळे स्थळे एक समयनुं जाणवू. एवी रीते १५ द्वारने विषे अंतर नामे छर्छ मूल द्वार कपु.
क्षेत्रादि सघळां द्वारने विषे एक क्षायिक भाव जाणवो. ए प्रमाणे भाव नामे सातमुं मूल द्वार जाणवू.
हवे आठमुं अल्पबहुत्व द्वार कहे छे:
तीर्थंकरो तथा जलमां अने उर्वलोकादिकमां सीझनार चार चार वळी इरिवर्षादिकने विषे संहरणथी सीझनारा दश दश ते परस्पर तुल्य छे, कारणके उत्कृष्टथी एक साथे एक समयमां तेटला प्राप्त थता होवाथी, तेना करतां वीस सीझनारा थोडा तेओ स्त्रीमां दुःखमामां तेमज एक विजयमा प्राप्त थता होवाथी. तेना सरखा विशति पृथक्त्व सिद्ध जाणवा, कारण के ते अधोलौकिक ग्राम अने बुद्धीबोधित स्त्री आदिमां पामीए, तेथी विस सिद्धनी तुल्य. क्षेत्रकाल- स्वल्पपणुं होवाथी अने कदाचित संभव होवाथी तेना करतां एकसो आठ सिद्ध संख्यात गुणा जाणवा. एं अल्पबहुत्व द्वार पूर्ण थयु. एवी रीते पूर्वे कहेला प्रकार वडे अनन्तर सिद्धने विषे क्षेत्रादि पंदर द्वारने विषे सत्पदादि आड द्वार कह्यां.
हवे पछी परंपरा सिद्धने विषे ते आठ द्वार कहेवानां छे. ते आठ द्वारमाथी अल्पवहुत्व सिवाय बाकीना द्वार अनन्तर सिद्धने विषे कहा ते प्रकारे कहेवा. विशेषतः आप्रमाणे छे-द्रव्य प्रमाण