Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ पारधी परिवारों का जीवन सामान्य खेती और शिकार पर निर्भर था। वे कोई वस्तु खरीदने के लिए अन्यत्र नहीं जाते थे। उनकी आवश्यकताएं अत्यन्त सीमित और वस्तुओं का परिमाण अत्यन्त अल्प था। वे अपने पहनने के लिए वस्त्र वृक्षों की छाल से स्वयं बना लेते थे। वे भेड़ों की ऊन तथा जंगली चूहों के बालों से वस्त्र निर्माण कर लेते थे । वे व्याघ्रचर्म, मृगचर्म आदि का भी उपयोग करते थे। खाद्य सामग्री कृषि से पूरी हो जाती थी और फल-फूलों के लिए वनप्रदेश समृद्ध था। प्रत्येक पारधी के घर में दस-बीस भेड़ें, बकरियां और दो-चार गायें अवश्यं होती थीं। इनका दूध उन पारधियों के लिए अमृततुल्य होता था। वे मक्खन, दही, छाछ का झंझट नहीं करते थे । कोई पारधी बीमार होता तो उसके लिए आवश्यक औषधियां वनप्रदेश से ही प्राप्त हो जाती थीं। ये पारधी प्रायः निरोग और हृष्ट-पुष्ट रहते थे । वे प्रायः चमत्कारिक जड़ी-बूटियों के ज्ञाता और प्रयोक्ता थे। इनके मुख्य शस्त्र थे - धनुष-बाण, छुरिका, तलवार और भाला। इन सभी शस्त्रों का निर्माण ये स्वयं कर लेते थे । इस वनप्रदेश में हाथियों की बहुलता थी । पारधी लोग हाथी दांत से मालाएं, स्त्रियों के लिए कड़े, शृंगार के अन्यान्य साधन स्वयं बना लेते थे। कभीकभी बाहरी प्रदेश के व्यापारी यहां आ पहुंचते और हाथी दांत के बदले चांदी के आभूषण दे जाते। पारधी परिवारों में दो वस्तुओं का प्रचुर प्रचलन था - तंबाकू और मदिरा । इन दोनों वस्तुओं का उत्पादन यहीं हो जाता था। प्रत्येक परिवार में मदिरा के पांच-सात भांड भरे हुए मिल जाते थे । मदिरा का उत्पादन प्रत्येक घर करता था। तंबाकू की खेती होती थी और उसका उपयोग पीने - सूंघने में होता था। इस प्रकार पारधियों की सारी आवश्यकताएं यहीं से पूरी हो जाती थीं। वे पूर्ण स्वावलंबी जीवन जीते थे। वे अपना जीवन निर्वाह आनन्दपूर्वक कर रहे थे। इस वनमार्ग से कोई पथिक आने का साहस नहीं करता था और यदि कोई भूला भटका आ भी जाता तो पल्लीवासी उसे पीड़ित नहीं करते थे। उसे निर्भय मार्ग पर पहुंचा देते थे। उनका शौक कहें या व्यवसाय कहें या प्रवृत्ति कहें, वह बहुधा शिकार का ही था। हाथी, सिंह, वराह आदि का शिकार करने में वे अपनी मरदानगी समझते थे। शिकार के लिए भी कुछ नियम निर्धारित थे। जैसे-यदि हाथी हथिनियों के साथ विचरण कर रहा हो तो उसका शिकार वर्ज्य था। सगर्भा मादा प्राणी पर शस्त्र प्रहार वर्जनीय था। कोई भी हिंसक प्राणी रतिक्रीड़ा में हो, तो वह अवध्य ८/ पूर्वभव का अनुराग

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