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प्रमेयकमलमार्तण्ड
जयन्तके इस समयका समर्थक एक प्रबल प्रमाण यह है कि-हरिभद्रसूरिने अपने षड्दर्शनसमुच्चय (श्लो० २०) में न्यायमंजरी (विजयानगरं सं० पृ० १२९) के
"गम्भीरगर्जितारम्भनिर्भिन्नगिरिगह्वराः। रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः॥ त्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः।
वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः॥" इन दो श्लोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा शामिल कर लिया है। प्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ मुनि जिनविजयजीने 'जैन साहित्यसंशोधक' (भाग १ अंक-१) में अनेक प्रमाणोंसे, खासकर उद्योतनसूरिकी कुवलयमाला कथामें हरिभद्रका गुरुरूपसे उल्लेख होनेके कारण हरिभद्रका समय ई० ७०० से ७७० तक निर्धारित किया है। कुवलयमाला कथाकी समाप्ति शक ७०० (ई. ७७८) में हुई थी। मेरा इस विषयमें इतना संशोधन है कि उस समयकी आयुःस्थिति देखते हुए हरिभद्रकी निर्धारित आयु खल्प मालूम होती है। उनके समयकी उत्तरावधि ई० ८१० तक माननेसे वे न्यायमंजरीको देख सकेंगे। हरिभद्र जैसे सैकड़ो प्रकरणोंके रचयिता विद्वान्के लिए १०० वर्ष जीना अस्वाभाविक नहीं हो सकता । अतः ई० ७१० से ८१० तक समयवाले हरिभद्रसूरिके द्वारा न्यायमंजरीके श्लोकोंका अपने ग्रन्थमें शामिल किया जाना जयन्तके ७६० से ८४० ई. तकके समयका प्रबल साधकप्रमाण है।
आ० प्रभाचन्द्रने वात्सायनभाष्य एवं न्यायवार्तिककी अपेक्षा जयन्तकी न्यायमञ्जरी एवं न्यायकलिकाका ही अधिक परिशीलन एवं समुचित उपयोग किया है। षोडशपदार्थके निरूपणमें जयन्तकी न्यायमञ्जरीके ही शब्द अपनी आभा दिखाते हैं। प्रभाचन्द्रको न्यायमंजरी खभ्यस्त थी। वे कहीं कहीं मंजरीके ही शब्दोंको 'तथा चाह भाष्यकारः' लिखकर उद्धृत करते हैं । भूतचैतन्यवादके पूर्वपक्षमें न्यायमजरी में 'अपि च' करके उद्धृत की गई १७ कारिकाएँ न्यायकुमुदचन्द्रमें भी ज्योंकी त्यों उद्धृत की गई हैं । जयन्तके कारकसाकल्यका सर्वप्रथम खण्डन प्रभाचन्द्रने ही किया है । न्यायमञ्जरीकी निम्नलिखित तीन कारिकाएँ भी न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत की गई हैं। ........ '. (न्यायकुमुद० पृ० ३३६ ) “ज्ञातं सम्यगसम्यग्वा यन्मोक्षाय भवाय वा। . तत्प्रमेयमिहाभीष्टं न प्रमाणार्थमात्रकम् ॥” [न्यायमं० पृ० ४४७] . (न्यायकुमुद० पृ० ४९१) “भूयोऽवयवसमान्ययोगो यद्यपि मन्यते। ।
सादृश्यं तस्य तु ज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि ॥" [न्यायमं० पृ० १४६] . ... (न्यायकुमुद० पृ० ५११) “नन्वस्त्येव गृहद्वारवर्तिनः संगतिग्रहः। ...
भावेनाभावसिद्धौ तु कथमेतद्भविष्यति ॥" [न्यायमं० पृ० ३८]... ..
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