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पास चांगदेवकी या वना की। उस समय चांगदेव का पिता दूसरे गांवमें गया हुआ था। माताने बहुत कष्टसे देवचन्द्रकी याचना स्वीकार की। यह बात समझने पर, वापस आया हुआ चच्च क्रुद्ध हुआ। परन्तु सिद्धराजके उदयन नामके जैन मन्त्री ने उसे समझाया।
चांगदेवको पांचवें वर्ष में देवचन्द्रने जनसाधुकी दीक्षा दी, और उसका सोमचन्द्र नाम रखा । सोमचन्द्रने आवश्यक विद्याभ्यास किया। आगे चलकर सोमचन्द्रने गिरनार पर्वतपर सरस्वतीदेवीकी उपासनाकी । प्रसन्न हुई सरस्वतीने उसको सारस्वत मन्त्र दिया। जिसके बलसे सोमचन्द्र विद्वान् हो गया। उसकी विद्वत्ता देखकर, कुछ कालके अनन्तर देव चन्द्रने उसे 'सूरि' उपाधि दी, और उसका 'हेमचंद्र' ऐसा नया नामकरण किया।
एक बार हेमचन्द्र ने गुजरातकी राजधानीको भेंट दी। वहाँ सिद्धराज नामक तत्कालीन राजासे उसका परिचय करा दिया गया। और अनन्तर हेमचन्द्र उसके आश्रयमें रहा। इस सिद्धराजकी सूचनानुसार हेमचन्द्र ने "सिद्धहेमशब्दानुशासन" नामक व्याकरण रचा। सिद्धराजके कुमारपाल नामक पुत्रपर हेमचन्द्रका बहत प्रभाव पड़ा । कुमारपालके शासनकालमें हेमचन्द्रने अपने अन्य ग्रन्थोंकी रचना की।
चौयासी वर्षों की लम्बी आयु हेमचन्द्रको प्राप्त हुई थी। उसने अनेक वादविवाद किए, बहुत लोगोंको जैनधर्मके प्रति आकृष्ट किया, अनेक शिष्य किए, विविध ग्रन्थ रचे, और विक्रम सम्बत् १२२२ ( इ. स. ११७२ ) में देहत्याग किया।
हेमचन्द्रका पांडित्य देखकर उसे प्राचीन कालमें 'कलिकालसर्वज्ञ' उपाधि दी गई थी। कुछ अर्वाचीन लोग उसे 'ज्ञानसागर कहते हैं। .
हेमचन्द्र के नामपर अनेक ग्रंण हैं। उनमेंसे कुछ अन्थोंके उसके होनेपर संदेह किया जाता है। तथा इन ग्रन्थों में से कुछ सद्यःकालमें अनुपलब्ध, कुछ अमुद्रित, तो कुछ मुद्रित हैं। कुछ ग्रंथोंके नाम ऐसे हैं:-छन्दोनुशासन, सिद्धहेमशब्दानुशासन, अभिधानचितामणि, देशीनाममाला, काव्यानुशासन, व्याश्रयमहाकाव्य,प्रमाणमीमांसा, योगशास्त्र, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, इत्यादि ।
हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण सिद्धराजकी सूचनानुसार हेमचन्द्रने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक संस्कृत और प्राक्तका व्याकरण लिखा। इसपर उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति है। इस व्याकरणके कुल माठ अध्याय हैं। पहले सात अध्यायोंमें संस्कृत व्याकरणका विवरण है और
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