Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 7
________________ परीषहों को सहन करने के स्वभाववाले 'ऋषभदेव' की जय हो। दुष्ट स्वभाववाले तथा (संसार की चतुर्गतियों में भ्रमण कराने वाले) पर-(कर्मों) को जीतनेवाले 'अजितनाथ' की जय हो। भव (पंचपरावर्तन के कारणभूत मोह, राग-द्वेष) के चूर्ण करने में समर्थ 'सम्भवनाथ' की जय हो। 'संवर' राजा के समर्थ पुत्र अभिनन्दननाथ' की जय हो। सुमति (केवलज्ञान) रूपी पद्मा (लक्ष्मी) को अर्जित करनेवाले सुमतिनाथ' की जय हो। (अपनी ) प्रभा से पद्मों (रक्ताभ-कमलों) को प्रहत करनेवाले (नीचा दिखाने वाले) 'पद्मप्रभ' की जय हो। अपनी मृत्यु पर विजय प्राप्त करनेवाले अथवा ज्ञानियों की आशा-पाश का हनन (नष्ट पूर्ण) करनेवाले चन्द्रप्रभ' की जय हो। सुविधि (मोक्षमार्ग की पद्धति) को प्रकट करने में प्रवीण 'सुविधिनाथ' (पुष्पदन्त) की जय हो। परमतरूपी सर्पो को नष्ट करने के लिए गरुड-वीण के समान 'शीतलनाथ' की जय हो। श्रेय (पंचकल्याणक रूपी) लक्ष्मी के निवासस्थान 'श्रेयांसनाथ' की जय हो। वास (परमतरूपी दुर्गन्ध अथवा संसार के निवास) का परिहार (दूर) करनेवाले 'वासुपूज्य' की जय हो। विमल (द्रव्य-कर्म रूपी मलरहित) केवलज्ञान का प्रकाश करनेवाले विमलनाथ' की जय हो। अनन्त (लोक-अलोक) को प्रकाश (ज्ञान) से पूर्ण करनेवाले अथवा प्रजाजनों की आशा को पूर्ण करनेवाले एवं अपने चरणों से समस्त दिशाओं की आशा को पूर्ण करनेवाले 'अनन्तनाथ' की जय हो। धर्म-मार्ग की अनुवृत्ति करनेवाले (अर्थात् धर्म-मार्गप्रवर्तक) 'धर्मनाथ' की जय हो। पापों की भूमि की वाट को मथनेवाले (मर्दन करनेवाले) 'शान्तिनाथ' की जय हो। ___कुन्थु आदि जीवों की रक्षा करनेवाले (अथवा कुन्थु आदि भी द्वीन्द्रिय जीव हैं, ऐसी परीक्षा करनेवाले) 'कुन्थुनाथ' की जय हो। अरि (मोहनीय कर्म) का नाश करनेवाले महान् सत्त्व (बल) वाले 'अरहनाथ' भगवान् की जय हो। मल्लिका (बला-चमेली) पुष्पों से पूजित प्रधान (श्री) मल्लिनाथ' की जय हो। उत्तम-व्रतों के निधान (खजाने) स्वरूप 'मुनिसुव्रतनाथ' की जय हो। अमर (दव) और खचर (विद्याधर) वृन्द (समूह) से नमस्कृत 'नमिनाथ' की जय हो। अपने नेत्रों से अरविंद (कमल) की शोभा को भी जीत लेनेवाले 'नेमिनाथ' की जय हो। अपने (प्रशस्त) यश के द्वारा हीरा के हास्य (कान्ति) को आहत (नीचा) करनेवाले 'पार्श्वनाथ' की जय हो। हास्य (परनिंदा) को छोड़नेवाले 'वीरनाथ' की जय हो, जय हो। __ऐसे ज्ञान-दिवाकर (सूर्य), गुणरूपी रत्नों के आकर (भंडार), स्मर (कामदेव) रूपी मृगों को मारने के लिए शबर (भिल्ल) के समान तथा पापों को हरनेवाले वे जिनेन्द्रगण प्रस्तुत जिनेन्द्र-काव्य (पासणाहचरिउ) के प्रणयन-हेतु मेरी बुद्धि में प्रवर-विस्तार करें। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 005

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